आज दुनिया के अनेक देशों में खाद्य संकट सबसे बड़ा खतरा बन गया है। रूस और यूक्रेन के बीच युद्ध के कारण गेहूं- चावल जैसी रोजाना खाई जाने वाली चीजों और उर्वरकों की सप्लाई बाधित हुई, लेकिन इससे पहले ही विश्व में भूख की समस्या दूर करने के सस्टेनेबल डेवलपमेंट लक्ष्य (एसडीजी) की दिशा में प्रगति रुक गई थी। दुनिया में भीषण खाद्य असुरक्षा से जूझने वाले सबसे अधिक एशिया और प्रशांत क्षेत्र में हैं। कोविड-19 से पहले की तुलना में इनकी संख्या 3 गुना हो गई है। महामारी के अलावा जलवायु से संबंधित आपदाओं और मैक्रोइकोनॉमिक दबाव के चलते ऐसा हुआ है। विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के अनुसार कोविड-19 महामारी के कारण दुनिया में गरीबी कम करने के लक्ष्य को बड़ा आघात पहुंचा है और अब खाद्य पदार्थों तथा ऊर्जा की बढ़ती कीमतों के साथ जलवायु के कारण होने वाली आपदाओं और युद्ध ने स्थिति में सुधार को ठहरा दिया है।
भारत इन प्राकृतिक और मानव जनित समस्याओं से अछूता नहीं है। खाद्य सुरक्षा के मोर्चे पर संतुष्ट हो जाने की कोई गुंजाइश भी नहीं है। 2022 के ग्लोबल हंगर इंडेक्स में भारत 121 देशों की सूची में 107 में स्थान पर है। बाढ़, सूखा, बीमारी और अन्य जलवायु प्रभावों के कारण यह संकट और बढ़ सकता है, क्योंकि इनकी वजह से खाद्य उत्पादन कम होगा और आजीविका के साधन भी प्रभावित होंगे। इससे खाद्य संकट और बढ़ेगा तथा जलवायु से प्रभावित माइग्रेशन में भी इजाफा होगा। भारत में दुनिया की लगभग 20% आबादी रहती है। इतनी बड़ी आबादी को निरंतर खिलाने के लिए कार्यक्रम तैयार करना और उन्हें लागू करना देश की सुरक्षा के लिए भी महत्वपूर्ण है।
खाद्य पदार्थों का होने वाला नुकसान और उनकी बर्बादी पहले से कमजोर खाद्य इकोसिस्टम को और कमजोर बनाता है। अनुमान है कि भारत में जितना खाद्य उत्पादन होता है उसका लगभग 40% सप्लाई चेन अथवा उपभोक्ता के स्तर पर नष्ट या बर्बाद हो जाता है। खाद्य पदार्थों का नुकसान और उनकी बर्बादी श्रम, पूंजी, पानी, ऊर्जा, जमीन तथा अन्य संसाधनों की भी बर्बादी है क्योंकि खाद्य पदार्थों के उत्पादन में इन संसाधनों का इस्तेमाल होता है। यह सस्टेनेबिलिटी के लिए खतरा है। खाद्य उत्पादन और खपत की श्रृंखला में नुकसान और बर्बादी को कम करना बड़े बिजनेस के लिए भी अवसर पैदा करता है।
इस संकट का कोई सरल समाधान नहीं है, लेकिन आगे बढ़ने की राह स्पष्ट दिखाई दे रही है। मेरा दृढ़ मानना है कि ऐसी कोई भी व्यवस्था जिसमें संसाधनों के इस्तेमाल की क्षमता से समझौता किया गया हो, वह राष्ट्रीय हित के खिलाफ है। उसे ना तो सहन किया जाना चाहिए ना ही उसे आदर्श बताया जाना चाहिए। खाद्य सुरक्षा और सस्टेनेबिलिटी के लिए भारत को नए तरीकों की जरूरत है। सस्टेनेबल खाद्य सुरक्षा हासिल करने के लिए खाद्य उत्पादन, सप्लाई और उपभोक्ता श्रृंखला, हर बिंदु पर बड़े बदलावकारी कदमों की जरूरत है। हमें ऐसे इनोवेटिव सिस्टम की आवश्यकता है जो प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण करने के साथ उन्हें बढ़ा सके, इसके साथ उत्पादकता में भी इजाफा कर सके।
इसके लिए एक समग्र नजरिया अपनाने की जरूरत है जो घरेलू और पारंपरिक ज्ञान पर आधारित हो। साथ ही जिसमें कोऑपरेटिव जैसे ही कम्युनिटी आधारित संस्थानों के महत्व और उनकी केंद्रीयता को स्वीकार किया गया हो। मिट्टी की क्वालिटी सुधारने, जैव विविधता को बचाने, विपरीत मौसम के प्रति फसलों की क्षमता और उत्पादकता सुधारने और आजीविका के क्षेत्र में किसानों को उनके अपने कोऑपरेटिव के माध्यम से सक्रिय और प्रभावी तरीके से जोड़ना पड़ेगा। कृषि उत्पादन बढ़ाने के साथ-साथ इकोसिस्टम को दोबारा खड़ा करने के लिए हमें प्रकृति आधारित समाधान ही तलाशने होंगे।
कृषि क्षेत्र को मदद और खाद्य सुरक्षा कार्यक्रमों के लिए सरकार पर भारी वित्तीय और गवर्नेंस का बोझ आता है। हमारे यहां कोऑपरेटिव की जड़ें काफी मजबूत हैं। मेरे विचार से सरकार को खाद्य उत्पादन और खाद्य सुरक्षा प्रबंधन से निकल जाना चाहिए और इसकी जिम्मेदारी किसान कोऑपरेटिव को सौंप देनी चाहिए। सरकार को यह बात स्वीकार करनी चाहिए कि कोऑपरेटिव खाद्य सुरक्षा, रोजगार, गरीबी कम करने और वित्तीय समायोजन जैसे कार्यों के लिए सबसे योग्य संस्थान हैं। वह इन क्षेत्रों में महत्वपूर्ण योगदान कर सकते हैं।
भारत की सबसे बड़ी और सबसे महत्वपूर्ण ताकत यहां के लोगों में निहित है, खासकर यहां के लाखों किसान परिवारों में। किसानों की ताकत को प्रोफेशनल मैनेजमेंट के साथ जोड़कर भारत किसी भी लक्ष्य को हासिल कर सकता है। मेरे लिए यह देखना बड़ा कष्टप्रद है कि जो किसान खाद्य उत्पादन में सक्षम हैं, वह अपने परिवार को खिलाने के लिए सरकार के राहत कार्यक्रमों पर निर्भर हैं। भारतीय संस्कृति में दूसरों की दी गई मदद पर जीवन बिताने को अच्छा नहीं माना गया है। इसे किसी भी व्यक्ति की क्षमता और उसकी प्रतिष्ठा पर कलंक माना गया है। बिना मर्यादा के व्यक्ति आत्मविश्वास खो देता है और समाज तथा देश के लिए बोझ बन जाता है।
सच तो यह है कि हर भारतीय को इतना सक्षम बनाना संभव है कि वह अपने परिवार को खिलाने के लिए पर्याप्त भोजन पैदा कर सकें और सम्मान के साथ जिंदगी जी सके। मेरा सुझाव है कि सरकार उचित नीतियों और इंसेंटिव के माध्यम से किसानों को कोऑपरेटिव के तौर पर संगठित करने में मदद करे। इसके अलावा देश के हर गांव को आत्मनिर्भर सहकार ग्राम की दिशा में बढ़ने के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए।
‘सहकार ग्राम’ की अवधारणा कृषि विकास और खाद्य प्रबंधन के गुरुत्व बल को बदलकर गांवों और किसानों तक ले जाने से जुड़ी है। किसानों को अपने प्राकृतिक और आर्थिक संसाधनों की पूलिंग करने के लिए प्रोत्साहित किया जाए ताकि उन संसाधनों का प्रभावी और सस्टेनेबल इस्तेमाल हो सके, उन्हें संरक्षित रखा जा सके। जमीन, पानी और मवेशी जैसे संसाधनों का तार्किक और सक्षम प्रबंधन यह सुनिश्चित करेगा कि कोई बर्बादी ना हो और रासायनिक इनपुट का प्रयोग तभी हो जब दूसरा कोई विकल्प ना रहे।
मेरा यह सुझाव भी है कि सरकार को नेशनल कोऑपरेटिव फूड ग्रिड (एनसीएफजी) के गठन की दिशा में कदम बढ़ाना चाहिए। देश के हर गांव में एक कृषि कोऑपरेटिव हो जो सहकारिता के सिद्धांतों पर समस्त आर्थिक गतिविधियों का संचालन और प्रबंधन करे। इससे उत्पादन की लागत कम होगी और उत्पादकता बढ़ेगी। ग्राम स्तर के हर कोऑपरेटिव के पास कृषि से जुड़ी मशीनरी और मवेशी प्रबंधन केंद्र होने चाहिए।
इस तरह के दो या तीन ग्राम स्तरीय कोऑपरेटिव को मिलकर एक बहुउद्देशीय ग्राम कोऑपरेटिव सोसायटी (एमपीवीसीएस) को प्रमोट करना चाहिए जो जल्दी नष्ट होने वाले और अन्य उपज के भंडारण, उनकी छंटाई, ग्रेडिंग, पैकेजिंग और ट्रेडिंग सुविधाओं का ख्याल रखे। यह बहुउद्देशीय कोऑपरेटिव सोसायटी अपने सदस्यों को कर्ज की सुविधा देने में भी सक्षम होने चाहिए। इसके अलावा यह पर्यटन, उपभोक्ता, स्वास्थ्य और शिक्षा प्रशिक्षण केंद्र भी चलाएं। एमपीवीसीएस को सरकार की तरफ से चलाए जाने वाले खाद्य सुरक्षा कार्यक्रमों की एकमात्र एजेंसी बनाया जाना चाहिए।
गांव में उपजाए जाने वाले अनाज का एक-एक दाना इन्हीं कोऑपरेटिव के जरिए एनसीएफजी तक पहुंचे। इससे खाद्य पदार्थों का नुकसान और उनकी बर्बादी पूरी तरह दूर हो जाएगी। ग्राम कोऑपरेटिव सदस्य किसानों की पूरी उपज का संग्रह करे और उसे एमपीवीसीएस तक ले जाए, जो उस सदस्य के खाते में सरकार की तरफ से तय की गई दर के मुताबिक तत्काल रकम का भुगतान करे। जिन फसलों के लिए सरकार ने कोई दर तय नहीं की है, उनके लिए किसानों को बाजार की सबसे अच्छी कीमत दी जा सकती है। अगर कोई सदस्य अपनी उपज तत्काल नहीं बेचना चाहता है तो वह कोऑपरेटिव को उसकी जानकारी दे सकता है। किसान के पास अपनी इच्छा के मुताबिक विकल्प चुनने, अपनी बात रखने और कीमत तय करने का अधिकार होना चाहिए। एमपीवीसीएस खाद्य सुरक्षा कार्यक्रमों के लिए अनाज का भंडारण भी कर सकता है। इसके लिए सरकारी एजेंसियां उन्हें उपयुक्त भुगतान कर सकती हैं।
अगर पूरे देश में इस अवधारणा को लागू किया जाए तो कुल मिलाकर लगभग सात लाख ग्राम कृषि कोऑपरेटिव और लगभग 3.5 लाख बहुद्देशीय कोऑपरेटिव सोसायटी होंगी। नेशनल कोऑपरेटिव फूड ग्रिड का गठन ग्राम स्तरीय कोऑपरेटिव और एमपीवीसीएस के पूरे नेटवर्क को डिजिटल तरीके से जोड़कर किया जा सकता है। मेरा मानना है कि खाद्य उत्पादन की लागत घटाकर और खाद्य सुरक्षा कार्यक्रम पर सरकारी खर्च में कटौती करके एनसीएफजी हर साल दो लाख करोड़ रुपए बचाने में मदद कर सकता है। एनसीएफजी से ग्रामीण इलाकों में बड़े पैमाने पर रोजगार के अवसर पैदा होंगे तथा इससे ग्रामीण विकास की नई लहर पैदा होगी।
एनसीएफजी के पूरक के तौर पर एक डेडिकेटेड नेशनल रूरल एंड फार्म प्रोस्पेरिटी फंड (एनआरएफपीएफ) का गठन किया जा सकता है। यह फंड कोऑपरेटिव के मूल्यों पर आधारित आत्मनिर्भर भारत के आंदोलन के लिए वित्तीय मदद उपलब्ध करा सकता है। इनोवेटिव और रचनात्मक दृष्टिकोण अपनाकर मौजूदा बजटीय प्रावधानों में ही एनआरएफपीएफ और एनसीएफजी के लिए आवश्यक संसाधन जुटाए जा सकते हैं। अगर सरकार और कॉरपोरेट की तरफ से दी जाने वाली वित्तीय सहायता का उचित तरीके से इस्तेमाल किया जाए तो यह आर्थिक और सामाजिक कल्याण का एक महत्वपूर्ण माध्यम बन सकता है। इस तरह देश के नागरिकों की प्रतिष्ठा और आत्मविश्वास भी अक्षुण्ण रहेगा।
कृषि उत्पादन प्रणाली का प्रभावी प्रबंधन, खाद्य सुरक्षा और खाद्य आपूर्ति चयन का प्रबंधन, स्वच्छ और हरित मार्ग से ऊर्जा की सुरक्षा, प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण, जलवायु परिवर्तन के विपरीत प्रभावों को कम करना और सामाजिक समरसता की सुरक्षा को बरकरार रखना- आने वाले दिनों में ये देश की प्रमुख चुनौतियां होंगी। इन चुनौतियों के समाधान में कोऑपरेटिव की बड़ी भूमिका हो सकती है। मेरा अपना अनुभव मुझे यह कहने का भरोसा देता है कोऑपरेटिव इन अवसरों का लाभ उठाने का सबसे उपयुक्त संस्थानिक रूप है। यह भी कि अगर सच्चे कोऑपरेटिव मूल्यों पर आधारित उद्यमिता की पहल की जाए तो वह कभी विफल नहीं होगा, आर्थिक और बाजार परिस्थितियां चाहे जो हो।
अपने अनुभवों से मैंने यह जाना है कि एक सक्षम और सदस्यों द्वारा चलाए जाने वाला कोऑपरेटिव कैसा चमत्कार कर सकता है। ऐसे कोऑपरेटिव के जरिए ही एक मनुष्य दूसरे मनुष्य का शोषण रोक सकता है। इसी से हर तरफ संपन्नता भी आएगी। विकसित भारत का मार्ग निश्चित रूप से इसके नागरिकों, गांवों, नदियों, खेतों, प्राकृतिक संसाधनों और इसके सहकारिता के मूल से होकर गुजरता है।
(लेखक सहकार भारती के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं)