पिछला एक माह देश में चल रहे किसान आंदोलन और देश की राजनीति को एक दूसरे के करीब लाने वाले घटनाक्रमों वाला रहा है। केंद्र सरकार द्वारा लाये गये तीन नये केंद्रीय कृषि कानूनों के खिलाफ पहले भारत बंद को भी एक साल हो गया है और किसानों का आंदोलन दूसरे साल में प्रवेश कर गया है। वहीं दिल्ली की सीमाओं पर चल रहा किसानों का आंदोलन 11वें माह में प्रवेश कर गया है। सुस्त पड़ते और लोगों के जेहन से दूर होते आंदोलन में इस एक माह ने नई ऊर्जा भर दी है, नतीजतन किसान आंदोलन और राजनीति के बीच का फासला बहुत कम हो गया है। इस मामले में 3 अक्तूबर, 2021 की लखीमपुर खीरी में एक केंद्रीय मंत्री की कार द्वारा प्रदर्शन के बाद लौट रहे किसानों को रौंद दिये जाने और उसमें चार किसानों की जान चले जाने की दुर्भाग्यपूर्ण घटना ने राजनीति को आंदोलन के सबसे करीब लाने का काम किया है। वहीं पांच सितंबर की मुजफ्फरनगर की किसान महापंचायत और उसके बाद करनाल में एक एसडीएम के विवादित विडियो और लाठी चार्ज में एक किसान की मौत के बाद वहां किसानों का धरना प्रदर्शन और उसके बाद सरकार का बैकफुट पर आना तीसरी बड़ी घटना है। इसके साथ ही केंद्र सरकार द्वारा पंजाब और हरियाणा में धान की सरकारी खरीद को दस दिन पीछे करने का फैसला और किसानों के आंदोलन के बाद उसे बदलकर 3 अक्तूबर से खरीद शुरू करने का कदम भी आंदोलन के लिए एक अहम घटना रही है।
इन घटनाओं और आंदोलन के पड़ावों के चलते केंद्रीय कृषि कानूनों के खिलाफ चल रहा आंदोलन राजनीतिक रूप से अधिक प्रभावी होता जा रहा है। यही वजह है कि रविवार की घटना में किसानों की मौत के अगले ही दिन सरकार को किसान संगठनों के साथ बातचीत में समझौते का फैसला करने की जल्दी करनी पड़ी। जबकि उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार को एक सख्त सरकार के रूप में पेश किया जाता रहा है। समझौते की जल्दबाजी करने के साथ ही इसमें केंद्रीय गृह राज्य मंत्री के बेटे के खिलाफ हत्या का केस दर्ज करने व मृतक किसानों के परिवारों को मुआवजा और एक परिजन को नौकरी देने का मतलब है कि जिन किसानों को भाजपा के कई नेता और उसके सहयोगी संगठनों के पदाधिकारी उपद्रवी व राजनीति से प्रेरित कह रहे थे उनको राज्य सरकार ने पीड़ित माना है। हालांकि इस मामले में मंत्री के पुत्र की गिरफ्तारी और केंद्रीय राज्य मंत्री की केंद्रीय मंत्रीमंडल से बर्खास्तगी की किसान संगठनों की मांग पर अभी अमल नहीं हुआ है। वहीं छह अक्तूबर को पंजाब और छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्रियों द्वारा मृतक किसानों के परिवारों को 50 लाख रुपये देने की घोषणा ने राज्य सरकार के मुआवजे के फैसले को फीका कर दिया है।
खीरी की घटना के पहले 5 सितंबर की मुजफ्फरनगर की किसान महापंचायत में राज्य और केंद्र की भाजपा नेतृत्व वाली सरकारों के खिलाफ खुलकर आरोप लगाये गये और आने वाले विधान सभा चुनावों में भाजपा को हराने का आह्वान किया गया। इस पंचायत के बाद भारतीय किसान यूनियन के राष्ट्रीय प्रवक्ता राकेश टिकैत राजनीतिक निशाने पर भी आए लेकिन पंचायत में किसानों की भारी शिरकत ने उनके कद को मजबूत कर दिया। उसके बाद करनाल में किसानों की मांगों का माना जाना और 2 अक्तूबर को धान की खरीद देर से शुरू करने के फैसले को सरकार द्वारा बदलना किसानों के मजबूत आंदोलन के परिणाम के रूप में देखा जा रहा था।
इस बीच दिल्ली के बार्डरों पर बैठे किसानों के चलते रास्ते बंद होने का मुद्दा भी सुप्रीम कोर्ट में पहुंचा और कोर्ट ने सख्त टिप्पणियां भी की। किसान महापंचायत नाम का जो संगठन जंतर मंतर पर सत्याग्रह की अनुमति की मांग लेकर सुप्रीम कोर्ट पहुंचा था वह है 26 जनवरी को आंदोलन छोड़कर चला गया था। वहीं संयुक्त किसान मोर्चा के सदस्यों ने साफ किया है कि वह कोर्ट नहीं गये थे।
रविवार की लखीमपुर खीरी की घटना ने किसानों के आंदोलन को एक नये मोड़ पर ला दिया है। इसकी वजह है पूरे आंदोलन के दौरान पहली बार किसानों पर हमले में चार किसानों की मौत होना। इसके पहले दिल्ली के बार्डरों पर चल रहे आंदोलन के दौरान 600 से ज्यादा किसानों के शहीद होने का आंकड़ा संयुक्त किसान मोर्चा देता है लेकिन यह पहली घटना है जिसमें किसान मारे गये हैं और उसमें आरोपित भारतीय जनता पार्टी के एक केंद्रीय मंत्री का बेटा है। इसलिए इसका सीधा राजनीतिक असर पड़ना तय है। कार के नीचे किसानों के रौंदे जाने की घटना का पूरे देश में विरोध और प्रतिक्रिया हुई। उत्तर प्रदेश में आगामी विधान सभा चुनाव कुछ माह ही दूर हैं इसलिए इसका राजनीतिक नुकसान भाजपा को हो सकता है। इसीलिए उत्तर प्रदेश की राजनीतिक पार्टियों सपा, बसपा और रालोद के अलावा कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस से लेकर अकाली दल, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी, वाम दल और आप जैसी पार्टियों ने इस पर तीखी प्रतिक्रियाएं दी हैं और इनके नेता लखीमपुर खीरी पहुंचने की कोशिश कर रहे हैं। यह बात अलग है कि 6 अक्तबूर को कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी को वहां जाने की इजाजत देने के पहले राज्य सरकार ने राजनीतिक दलों के लोगों को खीरी जान से रोकने के पुख्ता इंतजाम किये थे। वहीं इस मुद्दे पर भारतीय जनता पार्टी लगभग चुप्पी साधे हुए है।
इस अकेली घटना ने राजनीतिक दलों को किसानों के मुद्दे पर मुखर होने का सबसे बड़ा मौका दिया है। पंजाब में भी विधान सभा चुनाव हैं और उत्तर प्रदेश व उत्तराखंड में चुनाव होने हैं। पंजाब में केंद्रीय कानूनों के खिलाफ आंदोलन सबसे अधिक मजबूत है और इसी तरह की स्थिति हरियाणा में है लेकिन अब उत्तराखंड के तराई और मैदानी हिस्सों में भी मजबूत हो रहा है। जबकि पश्चिमी उत्तर प्रदेश तक सीमित किसान आंदोलन अब उत्तर प्रदेश की तराई में बरेली से बहराइच तक अधिक मुखर होगा। आंदोलन जितना मजबूत होगा विपक्षी दलों को उतना ही अधिक फायदा होगा।
जहां तक तीन केंद्रीय कानूनों की बात है तो उनको रद्द किये जाने की संयुक्त किसान मोर्चा की मांग पर केंद्र सरकार लगभग चुप है। लेकिन इस बढ़ते राजनीतिक दबाव के चलते यह स्थिति अधिक दिनों तक बनी रहेगी कहना मुश्किल है। हालांकि इस बीच पंजाब में मुख्यमंत्री पद से हटाये गये कैप्टन अमरिंद्र सिंह के साथ मिलकर किसान आंदोलन को खत्म करने लिए राह निकालने जैसे कयास भी मीडिया में लगाये गये थे। लेकिन लखीमपुर खीरी की घटना के बाद शायद ही इस विकल्प की कोई अहमियत अब बची है। जाहिर सी बात है कि अब केंद्र सरकार पर आंदोलन को समाप्त करने की दिशा में विकल्प तलाशने का दबाव बढ़ जाएगा। लेकिन कानूनों की वापसी जैसा विकल्प उसे मंजूर होगा इसको लेकर कहा नहीं जा सकता है क्योंकि कुछ लोगों का तर्क है कि इससे सरकार के बड़े फैसले लेने की छवि प्रभावित होगी।
वहीं सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियों के अलावा सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित कमेटी एक सदस्य अनिल धनवत द्वारा पिछले महीने देश के मुख्य न्यायाधीश को पत्र लिखकर कमेटी द्वारा तैयार रिपोर्ट को सार्वजनिक करने की अपील की गई। लेकिन यह रिपोर्ट अभी तक सार्वजनिक नहीं हुई है। संयुक्त किसान मोर्चा में शामिल किसान संगठनों का कहना है कि कानूनों के अमल पर सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगाई है लेकिन कानून तो कायम हैं। इसलिए रोक तो कभी भी हटाई जा सकती है। उनका कहना है कि हम तो कोर्ट गये ही नहीं क्योंकि कानून सरकार ने बनाये हैं इसलिए इनको रद्द करने का फैसला भी उसे ही लेना है। हालांकि 22 जनवरी, 2021 के बाद से संयुक्त किसान मोर्चा और सरकार के बीच बातचीत नहीं हो रही है।
लेकिन हाल के घटनाक्रम मामले की पेचीदगी बढ़ा रहे हैं। कुछ एक्सपर्ट किसान आंदोलन को अमीर किसानों का आंदोलन बता रहे हैं और उनका तर्क है कि सरकार को छोटे किसानों को कानून के पक्ष में जागृत करना चाहिए। लेकिन शायद यह एक्सपर्ट इस बात से अनभिज्ञ हैं कि अधिकांश किसान छोटे ही हैं और उनको आय का दूसरा कोई विकल्प नहीं मिल रहा है इसलिए वह खेती कर रहे हैं। इनमें बड़ी तादाद उन संयुक्त किसान परिवारों की है जहां अभी भूमि का बंटवारा कागजों पर नहीं हुआ है इसलिए इनको खेमों में बांटना संभव नहीं है।
इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि छोटे-मोटे मामलों को छोड़ दें तो संयुक्त किसान मोर्चा के सदस्य संगठन एकजुट हैं और इसके चलते आंदोलन को लंबा खींचकर खत्म करने की सरकार की रणनीति कारगर नहीं हो रही है। दस माह से अधिक समय से दिल्ली की सीमाओं पर बैठे किसानों के संगठन साबित कर रहे हैं कि आंदोलन को जारी रखने का माद्दा उनके पास है। इसलिए अब सरकार को देखना है कि किसानों के साथ बातचीत कर रास्ता निकालने के लिए अभी इंतजार करना है या फिर इसके बढ़ते राजनीतिक असर की परवाह किये बगैर आगामी विधान सभा चुनावों में इसके प्रभाव का आकलन करने तक यथास्थिति को बरकार रखना है।