हम अक्सर सरकार को यह कहते सुनते हैं कि वह किस तरह भारतवासियों का जीवन आसान (ईज ऑफ लिविंग) करना चाहती है। आशय बहुत उम्दा है लेकिन इज ऑफ लिविंग तब तक सफल नहीं हो सकता जब तक लोगों के लिए रोजमर्रा के खर्चे (कॉस्ट ऑफ लिविंग) कम नहीं होते। सवाल है कि क्या कॉस्ट ऑफ लिविंग कम है। इस सवाल का जवाब तलाशना कोई मुश्किल बात नहीं है। कॉस्ट ऑफ लिविंग ना सिर्फ ज्यादा है बल्कि महंगाई दर लगातार ऊंची बने रहने के कारण यह दिनोंदिन असहनीय होती जा रही है। दूसरे शब्दों में, खुदरा और थोक महंगाई के सरकारी आंकड़ों पर ही गौर करें तो कॉस्ट ऑफ लिविंग कम होने का नाम नहीं ले रही है। ऊंची महंगाई दर के कारण कॉस्ट ऑफ लिविंग असहनीय हो रही है, जिससे ईज आफ लिविंग लगातार छह महीने से असंभव हो गई है। आने वाले दिनों में इससे राहत मिलने के आसार भी नहीं दिख रहे हैं।
अगर जून 2022 के थोक महंगाई के आंकड़ों पर गौर करें तो इससे पता चलता है कि कॉस्ट ऑफ लिविंग 6 महीने से किस तरह ऊंचे स्तर पर बनी हुई है। जाहिर है कि थोक महंगाई का असर खुदरा महंगाई पर भी पड़ता है। जून में थोक महंगाई 15.18 फ़ीसदी थी। इससे पहले मई में यह 15.88 फ़ीसदी, अप्रैल में 15.38 फ़ीसदी, मार्च में 14.63 फ़ीसदी, फरवरी में 13.43 फ़ीसदी और जनवरी में 13.68 फ़ीसदी थी।
अनाज, फल और सब्जियां जैसी प्राथमिक वस्तुओं की स्थिति तो और विकट है। इनकी महंगाई जून में 19.22 फ़ीसदी रही। परिवारों का घरेलू बजट रसोई गैस ने भी बिगाड़ा जिसके दाम सालाना आधार पर 53.20 फ़ीसदी बढ़ गए। यही स्थिति बाइक और कार चलाने वालों की है जिन्हें 57.82 फ़ीसदी अधिक कीमत चुकानी पड़ रही है। ट्रक ऑपरेटरों के लिए ईंधन की लागत बढ़ गई है क्योंकि डीजल 55 फ़ीसदी महंगा हो गया है। इसका असर माल भाड़े के साथ पूरी सप्लाई चेन पर देखा जा सकता है।
ऊंची महंगाई दर के लिए यूक्रेन संकट और डॉलर की बढ़ती कीमत को इतनी बार जिम्मेदार ठहराया गया है कि आम लोगों की अब इनमें कोई रुचि नहीं रह गई है। ताज्जुब तो तब होता है जब कुछ तथाकथित विशेषज्ञ यह तर्क देते हैं कि मानसून की बारिश के साथ कीमतों में गिरावट आएगी। यह तो स्पष्ट है कि या तो वे ग्रामीण इलाकों और मौसम की खबरों से कोई वास्ता नहीं रखते या फिर वे ऊपर बैठकर नीचे देखने की जहमत नहीं उठाना चाहते। मौसम की इस खबर पर गौर कीजिए - पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और अन्य कई राज्यों में कम बारिश के चलते खरीफ में धान की बुवाई का रकबा पिछले साल के मुकाबले 17.38 फ़ीसदी घटकर 128.5 लाख हेक्टेयर रह गया है। अब आप बताइए कि रकबा घटने पर अनाज उत्पादन बढ़ने और कीमतों में गिरावट का अनुमान कैसे लगाया जा सकता है। वह भी तब जब पूरी दुनिया खाद्य संकट का सामना कर रही है।
जो लोग फल और सब्जियों के दाम में गिरावट की उम्मीद लगाए बैठे हैं उन्हें भी भारत के मौसम के मानचित्र पर गौर करना चाहिए। उन्हें यह देखना चाहिए कि महाराष्ट्र, गुजरात, तेलंगाना और उत्तर पूर्व में किस तरह बाढ़ ने तबाही मचा रखी है। फसल, मवेशी और उनके चारे को हुए नुकसान से किसानों और उपभोक्ताओं दोनों के लिए कॉस्ट ऑफ लिविंग बढ़ जाएगी।
ऐसा लगता है कि रिजर्व बैंक भी महंगाई के अनुमानों को लेकर आश्वस्त नहीं है। संभव है कि वित्त वर्ष के अंत तक ऊंचे बेस के कारण महंगाई दर में कुछ कमी नजर आए। यह 2024 में आम चुनावों से एक साल पहले केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी के मनमाफिक होगा क्योंकि तब खुदरा महंगाई दर कम होगी, भले ही खाद्य तेलों के दाम 200 रुपए प्रति लीटर के आसपास पहुंच जाएं।
हालांकि यह भी एक अनुमान है और यह गलत भी हो सकता है। अगर यूक्रेन संकट बना रहता है, कच्चे तेल की कीमत ऊंची रहती है और रुपए में कमजोरी का दबाव बना रहता है तो बेस इफेक्ट ज्यादा कारगर नहीं होगा। कुल मिलाकर आयातित महंगाई और बढ़ जाएगी। बदलाव के लिए ही सही, महंगाई अब नीति निर्माताओं और रिजर्व बैंक की प्राथमिकता में नजर आने लगी है। बहरहाल, हम चाहे जो ख्वाहिश रखें, कॉस्ट ऑफ लिविंग फिलहाल ऊंची ही बनी रहेगी। इसलिए ईज ऑफ लिविंग के बारे में बस कल्पना ही की जा सकती है।