वही लोग कोरोना से ज्यादा प्रभावित हो रहे है जो कृत्रिम संसाधनों के माध्यम से जीवन यापन कर रहे है यानी पेड़ पोधों व प्रकृति से दूर हैं। जो भी व्यक्ति खेती किसानी का कार्य अपने हाथ से करता है उसको कोरोना जैसी बीमारी होने की सम्भावना नगण्य है। इसके अलावा जो आदिवासी जंगलों में निवास करते है उनको भी कोरोना किसी भी प्रक्रार से प्रभावित नहीं कर सकता है। कारण पेड़ पोधों से फाइटोनाइड्स रोगाणुरोधी एलेलोकेमिक वाष्पशील कार्बनिक यौगिक निकलते हैं। इन फाइटोनसाइड्स में एंटीबैक्टीरियल और एंटीफंगल गुण होते हैं। जब लोग इन रसायनों से युक्त हवा की सांस लेते हैं, तो यह हमारे शरीर में एक प्रकार की श्वेत रक्त कोशिका की संख्या और गतिविधि को बढ़ाकर प्रतिक्रिया करते हैं जिसे प्राकृतिक कोशिका हत्यारा या एनके कहा जाता है। ये कोशिकाएं हमारे शरीर में ट्यूमर और वायरस से संक्रमित कोशिकाओं को मार देती हैं और शरीर की प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया भी मजबूत रखती है। पेड़ पोधों द्वारा हज़ारों तरह के दिखाई न देने वाले फाइटोनसाइड्स निकलते हैं। यहां तक कि सब्जियों के पोधों से भी इन कार्बनिक यौगिकों का उत्सर्जन होता है। इसीलिए घर पर किचिन गार्डन के माध्यम से सब्जी पैदा करना हमको न सिर्फ पौष्टिक खाना देता है बल्कि ये तनाव, तंत्रिका तंत्र, अवसादरोधी, नींद, रक्त शर्करा आदि में भी फायदा पहुंचाता है।
पेड़ पोधों से हजारों तरह के फाइटोनसाइड्स निकलते हैं, लेकिन सबसे आम वन-संबंधी फाइटोनसाइड्स - अल्फ़ा पिनेने, डी लिमनेने, बीटा पिनेने, सबीनेने, मीरन, कम्फेने आदि वे रसायन हैं जो मानव शरीर में प्राकृतिक हत्यारे (एनके) सेल गतिविधि को प्रोत्साहित करते हैं। एनके कोशिकाएं कैंसर से लड़ने वाले प्रोटीन हैं जो सचमुच ट्यूमर और वायरस से ग्रस्त कोशिकाओं की तलाश करते हैं और नष्ट करते हैं।
एक मूल्यांकन में कहा गया है कि दुनिया भर में वातावरण में बायोजेनिक वीओसी (बीवीओसी) उत्सर्जन लगभग एक बिलियन टन प्रति वर्ष हो सकता है। शहरो में सजावटी व जल्दी बढ़ने वाले पोधो को लगवाए जाने एवं पौधों की संख्या कम होने के कारण शहरों की हवा में फाइटोनसाइड्स की मात्रा नहीं पायी जाती है यही कारण है कि शहर के लोग शारीरिक व मानसिक दोनों रूप में कमजोर होने के कारण कोरोना वायरस ही नहीं बल्कि अन्य बीमारियों के कारण भी हज़ारो लोग हर रोज़ मौत के गाल में समा रहे हैं।
इसके अलावा अनाजों और सब्जियों में रासायनिक खाद व कीटनाशकों का होना भी कोरोना जैसी बीमारियों का एक कारण है। क्योंकि इनके कारण मानव शरीर को उचित मात्रा में ऑक्सीजन नहीं मिल पाती है खाद्य सुरक्षा के नाम पर जिस तरह खेतो में जहर का प्रयोग किया गया ये उसी का परिणाम है कि आज धरती पर न केवल मानव वरन प्रत्येक जीव प्रजाति अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही है। दुनिया में 37400 से अधिक प्रजातियां विलुप्ति के कगार पर है। एकल फसल के नाम पर जैवविविधता को नष्ट कर देना व प्रकृति के सहअस्तित्व के सिद्धांत को नकार देना ही आज मानव के लिए परेशानी का सबब है। केवल 30 फसलें ही मानव खाद्य ऊर्जा की 95 फीसदी जरूरतें प्रदान करती हैं। वास्तव में, हमारी खाद्य जरूरतों का 60 फीसदी चार फसलों, विशेष रूप से आलू, मक्का, चावल और गेहूं के मोनोकल्चर के माध्यम से पूरा किया जाता है। आगामी यूएन फ़ूड समिट का धनी निगमों और उनके खाद्य एजेंडे द्वारा अपहरण कर लिया गया है।
"वर्तमान में, खाद्य उत्पादन मृदा अपरदन, जैव विविधता का ह्रास, जल प्रदुषण व् कमी, जंगल आग के साथ मानव स्वास्थ्य के लिए भी हानिकारक है। मेरा मानना है कि ऊर्जा युक्त पानी की एक बूंद, एक मिलीग्राम स्वस्थ मिटटी, एक मिलीलीटर स्वच्छ हवा, दुनिया के सभी औद्योगिक घरानो की तुलना में अधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि उसमे जीवन है। अगर सहअस्तिव्त के सिद्धांत पर कृषि की जाय तो विश्व का 5-10% कृषि क्षेत्र (4 बिलियन एकड़), और वनभूमि (10 बिलियन एकड़) मौजूदा CO2 को बाहर निकालने और रद्द करने के लिए पर्याप्त से विश्व की पारिस्थितिकी प्रणालियों द्वारा मनुष्यों को प्रदान की जाने वाली सेवाओं की कीमत 1997 में 33 ट्रिलियन डॉलर प्रति वर्ष आंकी गई थी । साल 2011 में 125 ट्रिलियन डॉलर प्रति वर्ष आंकी गई। इसमें स्वच्छ जल और कृषि उत्पादों की कीमत सबसे ज्यादा है। इसी से हम अनुमान लगा सकते है क्यों राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय कम्पनिया जल और कृषि में निवेश करने को तैयार रहती है। भारतीय संस्कृति में धरती को माँ का दर्जा दिया गया है लेकिन जिस तरह से विकास और व्यापार के लिए खनन हो रहा है उससे तय है कि आने वाले समय में कोरोना जैसी भयानक बीमारियां धरती पर जन्म लेती रहेगी। अतः धरती को सजाने के लिए नहीं बल्कि व्यवस्थित करने के लिए कुछ प्रयास इस तरफ भी होने चाहिए।
(गुंजन मिश्रा, पर्यावरवणविद हैं और बुंदेलखंड में काम करते हैं, लेख में विचार उनके निजी हैं)