किसानों को आरक्षण दिलवाना चाहते थे चौधरी चरण सिंह, उनके हक में बनाए तीन भूमि सुधार कानून

पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह उन चंद नेताओं में हैं जिनकी राजनीति के केंद्र में किसान थे। किसान हित में उन्होंने अनेक कार्य किए थे। वे एक मात्र नेता थे जिन्होंने किसानों का एक मध्य वर्ग तैयार करने की जमीन तैयार की थी। उनके द्वारा उत्तर प्रदेश में लागू किये गये तीन कानून राज्य की कृषि और किसानों की स्थिति में आमूलचूल बदलाव लाने वाले साबित हुए।

पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह उन चंद नेताओं में हैं जिनकी राजनीति के केंद्र में किसान थे। किसान हित में उन्होंने अनेक कार्य किए थे। वे एक मात्र नेता थे जिन्होंने किसानों का एक मध्य वर्ग तैयार करने की जमीन तैयार की थी। उनके द्वारा उत्तर प्रदेश में लागू किये गये तीन भूमि सुधार कानून राज्य की कृषि और किसानों की स्थिति में आमूलचूल बदलाव लाने वाले साबित हुए। वे ग्रामीण भारत को भलीभांति समझते थे, इसलिए शहरी वर्ग और गांव व किसान के बीच के अंतर को पाटने के लिए किसान परिवारों के बच्चों को सरकारी नौकरियों में 50 फीसदी आरक्षण के पक्षधर थे। उन्होंने इस पर एक पेपर भी लिखा था। समय के साथ बदलाव को स्वीकार करते हुए उन्होंने 1939 के इस पेपर में 1960 में तब्दीली भी की और किसान परिवारों के लिए 60 फीसदी आरक्षण और खेती पर निर्भर भूमिहीन परिवारों को मिलाकर आरक्षण को 75 फीसदी करने की बात कही।

चौधरी साहब जिस किसान मध्य वर्ग की बात कहते थे, वह इस समय संकट में है। इसकी झलक हमने 2020-21 में दिल्ली की सीमाओं पर हुए किसान आंदोलन के रूप में देखी। उसकी अगली कड़ी अगले कुछ दिनों में दिख सकती है क्योंकि घटती आय और बढ़ती आकांक्षाओं के चक्र में फंसे किसानों की हकीकत सबके सामने है। पिछली शताब्दी के चौथे दशक से नौवें दशक तक उनका जीवन बदलने की क्षमता और सोच रखने वाले चौधरी चरण सिंह जैसे नेता न केवल राजनीति में थे बल्कि सरकारों में रहते हुए उनके लिए कानून बनाने और लागू करने की क्षमता रखते थे। विडंबना यह है कि आज उनकी जगह भरने वाला कोई राजनेता या किसान नेता नहीं है।

चौधरी चरण सिंह के राजनीतिक जीवन पर पॉल ब्रास की दो खंडों की किताब अहम दस्तावेज तो है ही, यह उनके कामकाज की शैली और राजनीतिक लोगों के बीच उनके पत्र व्यवहार से लेकर सरकारी विभागों के फैसलों को सामने रखती है। आरक्षण की वकालत करते हुए चौधरी चरण सिंह कहते हैं कि कृषि विभाग में ऐसे अधिकारी हैं जो जौ और गेहूं के पौधे के बीच अंतर नहीं कर सकते। इन लोगों नहीं पता कि किस फसल में कब सिंचाई की जरूरत है। 

नौकरियों में किसानों के बच्चों को 60 फीसदी आरक्षण क्यों मिलना चाहिए, इस शीर्षक से उन्होंने 21 मार्च, 1947 को एक पेपर लिखा था। इसमें उन्होंने साफ लिखा था कि खेती करने वालों के बेटों और आश्रितों को सरकारी नौकरियों और सार्वजनिक खर्च से चलने वाले शिक्षण संस्थानों में आरक्षण देना चाहिए। इसमें किसी जाति का जिक्र नहीं है। अगर हम अभी देखें तो खेती पर निर्भर रहने वाली जातियां जाट, मराठा, कापू और पटेल आरक्षण के लिए आंदोलन करती रहती हैं क्योंकि शहरी वर्ग के मुकाबले उनकी आर्थिक व सामाजिक स्थिति काफी कमजोर हो गई है। यह बात अलग है कि उत्तर प्रदेश में उनके बनाये कानूनों का जिन जातियों ने फायदा लिया, उसके एक बड़े हिस्से को अगस्त 1990 में लागू किये मंडल कमीशन की सिफारिशों से आरक्षण मिल गया। जिस मोरारजी देसाई सरकार ने जनवरी, 1979 में बी पी मंडल की अध्यक्षता में पिछड़ा वर्ग आयोग गठित किया था, चौधरी चरण सिंह उस सरकार में गृह मंत्री थे। दिसंबर, 1980 में आई इस आयोग की रिपोर्ट के आधार पर ही अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) को जाति आधारित 27 फीसदी आरक्षण देने का प्रावधान लागू किया गया। अनुसूचित जाति और जनजाति को पहले से ही 22.5 फीसदी आरक्षण प्राप्त है।

उन्होंने 1961 के एक सर्वे का हवाला देते हुए कहा कि भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईएएस) में किसान परिवार की पृष्ठभूमि रखने वाले लोगों की हिस्सेदारी मात्र 11.5 फीसदी है, जबकि सरकारी नौकरी करने वालों के बच्चों की हिस्सेदारी 45.8 फीसदी है। इसके मद्देनजर उन्होंने कहा कि किसानों के बच्चों को 60 फीसदी आरक्षण तो मिलना ही चाहिए। साथ ही, सरकारी नौकरी का लाभ ले चुके लोगों के बच्चों को सरकारी नौकरियों के लिए अयोग्य माना जाए। उनका तर्क था कि इससे सरकारी विभागों की कार्यकुशलता बढ़ेगी क्योंकि किसानों के बच्चे कामकाज में बेहतर हैं और मुश्किल परिस्थिति में बेहतर फैसला लेने में भी सक्षम हैं। शहरी पृष्ठभूमि से आने वाले अधिकारी की तरह सख्त फैसला लेने में उसके हाथ नहीं कांपेंगे। वह उस तहसीलदार से बेहतर साबित होगा जो ओलावृष्टि से नष्ट फसल के लिए 100 रुपये के मुआवजे के मामले की सुनवाई के लिए दर्जन भर तारीखें लगाता है। 

असल में गांव और शहरों के बीच अंतर को लेकर उनकी राय पुख्ता थी। उनका मानना था कि असल अंतर गांव और शहर का है। शहरी लोग गांव के लोगों को देहाती और गंवार समझते हैं। यह स्थिति तब है जब 1950-51 में देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में कृषि की भागीदारी 54 फीसदी थी और देश के 70 फीसदी लोग रोजगार के लिए कृषि पर निर्भर थे। इस अंतर को समाप्त करने के लिए आरक्षण जरूरी है, क्योंकि अभी सरकारी नौकरियों में शहरी लोगों का कब्जा है। मौका नहीं मिलने के कारण किसान और ग्रामीण लोग गरीबी का दंश झेल रहे हैं। उन्होंने यह भी साफ कहा कि सरकारी नौकरी और शिक्षण संस्थानों में प्रवेश के समय किसी की जाति नहीं पूछी जानी चाहिए।

किसानों के बच्चों के लिए आरक्षण का पहला प्रस्ताव उन्होंने अप्रैल 1939 में उत्तर प्रदेश (उस समय संयुक्त प्रांत) कांग्रेस विधायक दल की एक्जीक्यूटिव समिति के सामने रखा था, जिसमें 50 फीसदी आरक्षण की बात कही गई थी। भूमिहीन लोगों को आरक्षण से बाहर रखने की उनकी राय की आलोचना हुई तो उन्होंने कहा कि मुझे उस पर कोई आपत्ति नहीं है और आरक्षण को बढ़ाकर 75 फीसदी कर देना चाहिए। 1951 की जनगणना के मुताबिक कृषि कार्यों में लगे इन लोगों की हिस्सेदारी 28.1 फीसदी थी।

उन्होंने कभी खुद को अपनी जाति जाट के रूप में दिखाने की कोशिश नहीं की, बल्कि सभी किसानों के लिए काम किया। इसी के चलते उन्होंने राजनीतिक ताकत के रूप में मुस्लिम, अहीर, जाट, गुर्जर और राजपूत (मजगर) का गठजोड़ खड़ा किया।

चौधरी चरण सिंह के तीन कानूनों की बात करें तो पहला है उत्तर प्रदेश जमींदारी उन्मूलन और भूमि सुधार कानून (जेडएएलआर) 1950, जिसके जरिये जमींदारों से जमीन लेकर उसका मालिकाना हक उस पर खेती करने वाले बटाईदार किसानों को दिया गया। 1950 का यह कानून उत्तर प्रदेश के किसानों किस्मत बदल गया। जमींदारों की तमाम कोशिशें नाकाम हो गईं और खेती करने वाले किसान जमीन के मालिक बन गये। इस कानून के जरिये सरकार को टैक्स देकर खेती कराने वाले जमींदारों की व्यवस्था हमेशा के लिए समाप्त हो गई। वहीं खेती करने वाले किसान पुश्तैनी हक के साथ जमीन के मालिक बन गये। इस कानून का सबसे अधिक फायदा यादव, कुर्मी, गुर्जर, मुस्लिम और तमाम पिछड़ी जातियों को मिला।

यूपी कंसोलिडेशन ऑफ होल्डिंग्स एक्ट, 1953 दूसरा कानून था। इस कानून के तहत वह चाहते थे कि जिन लोगों को पुरानी व्यवस्था बदलने के बाद जमीन मिली, उनको अधिक कुशल किसान बनाया जाए। उसके लिए किसानों की अलग-अलग जगहों पर मौजूद जोत को एक जगह लाने का काम किया गया ताकि उसका पूरी जोत एक स्थान पर हो। इससे उसकी उत्पादकता और कुशलता बढ़ेगी। इस कानून के चलते 1976-77 में उत्तर प्रदेश में 146 लाख हेक्टेयर जमीन में से 142 लाख हेक्टेयर की चकबंदी की प्रक्रिया इस कानून के तहत पूरी हो चुकी थी।

इसके बाद आया तीसरा कानून यूपी इंपोजिशन ऑफ सीलिंग ऑन लैंड होल्डिंग्स एक्ट 1960। इस कानून के तहत पांच व्यक्तियों के परिवार के लिए बेहतर गुणवत्ता की 40 एकड़ भूमि की सीमा तय की गई। उनका मानना था कि किसी किसान की जोत का न्यूनतम से अधिकतम ढाई एकड़ से 27.5 एकड़ का आकार आदर्श है। इसमें वह अपने परिवार के साथ खुद खेती कर सकता है और ट्रैक्टर समेत उत्पादकता में बढ़ोतरी करने वाली मशीनों का इस्तेमाल भी कर सकता है। 

चौधरी चरण सिंह के इन कानूनों के साथ हरित क्रांति का किसानों को फायदा हुआ। अधिक उत्पादकता वाली फसलों की प्रजातियां, उर्वरकों की उपलब्धता, एमएसपी व्यवस्था के तहत सरकारी खरीद जैसे प्रावधानों ने किसानों का एक बड़ा मध्य वर्ग खड़ा कर दिया। 

करीब चार दशकों तक हासिल यह उपलब्धि अब इतिहास बन चुकी है। हरित क्रांति की कामयाबी वाले इलाकों में उत्पादकता स्थिर हो जाने, जमीनों का बंटवारा होने से छोटी होती जोत, बढ़ती फसल उत्पादन लागत और असामान्य मौसमी बदलाव ने हालात को बदल कर रख दिया है। इसके चलते गांव, किसान व उसके परिवार संकट में हैं। उनको इस संकट से निकालने की दृषि और नीतिगत बदलावों को नेतृत्व देने की क्षमता रखने वाला राष्ट्रीय स्तर का किसान नेता अब मौजूद नहीं है। इसके चलते खेती किसानी पर निर्भर लोगों और अर्थव्यवस्था के दूसरे क्षेत्रों में काम कर रहे लोगों के बीच आर्थिक-सामाजिक असमानता तेजी से बढ़ी है। नतीजा, चौधरी चरण सिंह और सर छोटूराम जैसे नेताओं के कदमों व कानूनों की बदौलत खड़ा हुआ किसान इसी कश्मकश के बीच आंदोलन की ओर बढ़ रहा है। लेकिन आंदोलन की राह भी केवल एमएसपी जैसे मुद्दों तक ही जाती है। कोई बड़ा समग्र उपाय उसमें नहीं है जो इस संकट से किसानों को निजात दिला सके। सरकार द्वारा चौधरी चरण सिंह को भारत रत्न देने की घोषणा ने एक बार फिर उनकी नीतियों और कदमों को समझने और किसानों संकट की समीक्षा का मौका दिया है।