एक और बजट आया और चला गया, लेकिन बदलावकारी नीति के लिए भारत के किसानों का इंतजार खत्म नहीं हुआ। यह इंतजार वैसे ही है जैसे हर साल वे गर्मियों के बाद मानसून के पहले संकेत का इंतजार करते हैं। मानसून तो अक्सर उनके इंतजार का फल देता है, भले ही वह समय पर ना आए या किसान की उम्मीद के मुताबिक नहीं बरसे। लेकिन बजट तो दूर दिखने वाले उन बादलों की तरह प्रतीत होता है जो नीति की सूखी जमीन पर कभी नहीं बरसते। दशकों की सूझबूझ वाली नीति के साथ हमारे वैज्ञानिकों, प्रशासकों तथा किसानों की कड़ी मेहनत के बल पर हम खाद्य सुरक्षा की छतरी की ठंडी छाया में आराम फरमा रहे हैं, लेकिन कृषि का भविष्य इसकी अतीत की कुछ उपलब्धियों जैसा उज्जवल नहीं जान पड़ता है।
यह लेख इस बजट में विभिन्न मदों में आवंटित राशि और नई योजनाओं की घोषणा के बारे में नहीं है, इसमें यह बताने की कोशिश की गई है कि वास्तव में बजट में क्या चूक हुई और एक आदर्श स्थिति में उसमें क्या किया जा सकता था। मेरे विचार से इस बजट में चार बड़ी चूक हैं।
पहली बात तो यह कि बजट समग्र तौर पर देश को और खास तौर से कृषक समुदाय को यह संकेत देने में विफल रहा कि यह आने वाले दशकों में कृषि को रोजगार सृजन तथा विकास के इंजन के केंद्र के रूप में देखता है। यह एक ऐसा बड़ा विचार (बिग आइडिया) है जो कृषि क्षेत्र को ऊर्जा से भर देता और नीतिगत सुधार की प्रक्रिया को गति देता, जिसका इंतजार लगभग तीन दशकों से है। आप को याद होगा कि वर्ष 1991 में वित्त मंत्री के तौर पर डॉ मनमोहन सिंह ने मशहूर बजट भाषण में आर्थिक नीति के कंपास को रीसेट कर दिया था। वह बजट भी जुलाई में ही आया था। उनके भाषण का समग्र फोकस उद्योग, व्यापार और फाइनेंशियल सेक्टर की नीतियों के उदारीकरण पर था। वह वास्तव में अगले तीन दशकों के लिए नीतिगत सुधारों का एजेंडा था। लेकिन 1991 में भी कृषि के लिए कुछ नहीं कहा गया और यह आज भी उसी स्टेशन पर खड़ा है, क्योंकि नीति की कोई भी ट्रेन उस स्टेशन पर नहीं रुक रही है।
मेरा तर्क है कि कृषि हमेशा बिग आइडिया का हिस्सा रही है। आजादी के बाद पहला बिग आइडिया जमींदारी प्रथा खत्म करने का था। उसके बाद 1950 के दशक में सामुदायिक विकास की पहल हुई, 1960 और 70 के दशक में हरित क्रांति की टेक्नोलॉजी आई। फिर 1980 के दशक में डेयरी कोऑपरेटिव प्रयोग से दुग्ध क्रांति आई। इस तरह देखें तो 1947 से लगभग हर दशक में एक बदलावकारी नीति लागू की गई। लेकिन यह प्रक्रिया अचानक 1991 में बंद हो गई जिसे दोबारा कभी शुरू नहीं किया गया। इस बजट ने भी इस अवसर को खो दिया।
इस बजट की दूसरी बड़ी चूक है कि मौजूदा कृषि संकट के कारण को यह ठीक से पहचानने में नाकाम रही है। इस संकट का प्रमुख कारण निवेश और सब्सिडी के बीच असंतुलन है। कुछ अनुमानों के अनुसार यह अनुपात एक-चार का है। अर्थात कृषि में रिसर्च और डेवलपमेंट, इंफ्रास्ट्रक्चर आदि पर एक रुपया निवेश होता है तो सब्सिडी पर खर्च चार रुपए का होता है। यह असंतुलन खेती के स्तर पर होने वाले खर्च को विकृत करता है। इसकी वजह से दीर्घकालिक निवेश के बजाय अल्पकालिक हस्तक्षेप को वरीयता मिलती है। सब्सिडी और निवेश के इस असंतुलन को ठीक करना राजनीतिक अथवा प्रशासनिक रूप से आसान नहीं है, लेकिन कम से कम भूल सुधार की प्रक्रिया यह संकेत देती कि सरकार इस चुनौती से निपटने की मंशा रखती है।
तीसरी बड़ी चूक मार्केटिंग सुधारों पर चुप्पी है। जून 2020 में अचानक लागू किए गए तीन केंद्रीय कानूनों में एक बिग आइडिया का बीज हो सकता था। लेकिन ना तो उन्हें लागू करने से पहले सार्वजनिक रूप से चर्चा हुई, ना ही अचानक उन्हें वापस लिए जाने से पहले ऐसा किया गया। इसलिए हम सिर्फ अनुमान ही लगा सकते हैं कि क्या हम उन कानूनों में कोई बड़ी चीज खो बैठे। जबरदस्त किसान आंदोलन के चलते उन कानूनों को वापस लिए जाने के बाद लगता है कृषि उपज की मार्केटिंग पर कुछ करने के मामले में सरकार गहरे खोल में समा गई है। कृषि बाजार पुरानी गड़बड़ियों और अक्षमता के साथ काम कर रहे हैं, जिससे किसान अपनी उपज के उचित मूल्य से वंचित रह जाते हैं। दाम भी पारदर्शी तरीके से तय नहीं होते हैं। मार्केटिंग सुधारों का एक लंबा एजेंडा दो दशक से भी अधिक समय से सुस्त पड़ा हुआ है।
जलवायु परिवर्तन को अस्तित्व के लिए खतरे के तौर पर स्वीकार ना करना बजट की चौथी बड़ी चूक है। जलवायु परिवर्तन का संकट जितनी तेजी से बढ़ रहा है उसे देखकर कहा जा सकता है कि अनुमान से भी कम समय में हमें अपनी खेती का तौर-तरीका बदलने पर मजबूर होना पड़ेगा। हीट वेव, भीषण तेज बारिश, बादल फटने जैसी घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं। जलवायु विज्ञानियों के अनुसार मानसून के आने और जाने के समय में भी परिवर्तन हुआ है। तेजी से बढ़ते इस खतरे से निपटने के लिए हमें मौसम तथा कीटों से संबंधित चुनौतियों से जूझने वाली फसल किस्मों की जरूरत है। अनुसंधान एवं विकास का बजट इस अहम जरूरत को प्रदर्शित नहीं करता है। इस संकट से निपटने के लिए हमें संसाधनों को एकत्र करने और उन उपायों को गति देने की जरूरत है जिनसे किसानों को कोई समाधान मिल सके।
यह सही है कि किसानों को डायरेक्ट ट्रांसफर की फ्लैगशिप स्कीम जारी है, लेकिन इसमें मिलने वाली रकम इतनी नहीं होती कि किसान जलवायु परिवर्तन से जूझने वाले उपायों को अपना सकें अथवा उत्पादकता बढ़ाने के लिए निवेश कर सकें। देश के स्तर पर एक डेटाबेस बनाने की बात कही गई है, लेकिन केंद्र तथा विपक्ष शासित राज्यों के बीच तनाव भरे वातावरण के मद्देनजर यह देखना होगा कि इस पहल पर कैसे काम होता है। इस तरह के डेटाबेस के बिना नीति निर्माण इनपुट और उपभोक्ता सब्सिडी जैसे बिना धार वाले औजारों पर निर्भर रहेगा।
ऐसा लगता है कि देश के किसानों को एक अच्छे मानसून की तुलना में एक अच्छी नीति के लिए अधिक इंतजार करना पड़ेगा।
(लेखक पूर्व आईएएस अधिकारी हैं। लेख में व्यक्त विचार उनके निजी हैं)