भारतीय कृषि को चार समस्याओं ने बुरे तरीके से प्रभावित किया है। पहला आय का संकट है। कृषक परिवारों की आमदनी या तो स्थिर है या घट रही है, जिसका नतीजा खेती में परिवार का निवेश न होना है। दूसरा संकट है प्राकृतिक संसाधनों, खासकर मिट्टी और पानी का क्षरण। तीसरा मानव संसाधन का बढ़ता अभाव है। किसी भी राज्य में युवा पीढ़ी का एक आकर्षक रोजगार के विकल्प के तौर पर खेती में भरोसा नहीं रह गया है। युवा वैकल्पिक आजीविका के लिए शहरों अथवा दूसरे देशों में जाना चाहता है। इन सब के साथ नया संकट जलवायु परिवर्तन का जुड़ गया है, जो हमारी कठिन मेहनत से हासिल की गई खाद्य सुरक्षा को चुनौती दे रहा है।
एक बात ऐसी भी है जो इन चारों संकटों को जोड़ती है। वह है इन चुनौतियों से निपटने के लिए एक सुसंगत और समन्वय वाली नीति का नितांत अभाव। केंद्र सरकार 2020 में जो तीन कृषि कानून लेकर आई थी, उसके पक्ष अथवा विरोध में मत हो सकते हैं, लेकिन यह सच है कि कृषक समुदाय के एक बड़े वर्ग की तरफ से इन कानूनों के विरोध के बाद कृषि के प्रति नीतिगत गंभीरता नहीं दिख रही है। किसानों के विरोध के बाद तीनों कृषि कानूनों को वापस लेना पड़ा था। हालांकि कृषि से जुड़ी योजनाओं पर अमल जारी है और कुल मिलाकर फूड इकोनॉमी में सरकार की तरफ से अनेक कदम उठाते देखे जा सकते हैं, लेकिन आम जन को नहीं मालूम कि ऊपर बताई चुनौतियों से निपटने के लिए दीर्घकालिक योजना क्या है।
खाद्य सुरक्षा हासिल करने के अपने इतिहास पर ही अगर हम गौर करें तो हमें इस बात के संकेत मिलते हैं कि आगे क्या करने की जरूरत है। 1950 में भारत खाद्यान्नों की भीषण कमी वाला देश था। उस समय सिर्फ 5 करोड़ टन खाद्यान्नों का सालाना उत्पादन होता था। पिछले वर्ष का आंकड़ा देखें तो हम 33 करोड़ टन तक पहुंच गए हैं। किसी भी पैमाने पर देखें तो स्वतंत्र भारत की यह सबसे बड़ी उपलब्धियों में एक है। अंग्रेजों की एक सदी से भी ज्यादा चली शोषणकारी नीतियों के कारण कृषि क्षेत्र को काफी नुकसान पहुंचा था, लेकिन इसमें सिर्फ तीन दशक में उल्लेखनीय सुधार किया गया। केंद्र और राज्य सरकारों की तरफ से इसके लिए दूरदर्शी नीतियां अपनाई गईं। कृषि वैज्ञानिकों ने समर्पण दिखाया तो फील्ड में तैनात प्रशासकों ने भी कठिन परिश्रम किया। इन सब के ऊपर जटिल नई टेक्नोलॉजी और कृषि प्रबंधन प्रणाली को अपनाने में कृषक समुदाय की भागीदारी रही।
तथाकथित हरित क्रांति एक व्यापक इकोसिस्टम के विकास को दर्शाती है, जिसे भारतीय कृषि को आधुनिक बनाने और खाद्य सुरक्षा हासिल करने के मकसद से अपनाया गया था। इस इकोसिस्टम में अनुसंधान संस्थानों, एक्सटेंशन मशीनरी, क्रेडिट और इनपुट, सप्लाई चेन, मार्केटिंग और खरीद का इंफ्रास्ट्रक्चर तथा पूरे देश में सार्वजनिक वितरण प्रणाली शामिल हैं, जिनकी मदद से खाद्य की भीषण कमी और अकाल जैसी परिस्थितियों को स्थायी रूप से खत्म किया जा सका। इस महत्वाकांक्षी परियोजना में बड़ा काम केंद्र सरकार की तरफ से किया गया, लेकिन इस प्रयास को राज्यों का भी पूर्ण समर्थन मिला। यहां यह बात भी उल्लेखनीय है कि राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा की ऐतिहासिक उपलब्धि को लेकर नई पीढ़ी के नेताओं, नीति निर्माताओं, वैज्ञानिकों और प्रशासकों में गर्व का अभाव तथा अज्ञानता आज के समय की बड़ी पहेली है।
हरित क्रांति के दौर की उपलब्धियों की इस संक्षिप्त समीक्षा से तीन बड़ी सीख मिलती हैं।
1.नीति के स्तर पर लक्ष्य स्पष्ट रूप से निर्धारित थे, उन लक्ष्यों को हासिल करने के लिए एक इकोसिस्टम तैयार किया गया तथा समग्र नजरिया अपनाया गया।
2. तीन दशक के लंबे समय तक केंद्र और राज्य सरकारों ने बेहतरीन समन्वय के साथ काम किया, सभी पक्ष उन्हें दी गई जिम्मेदारियों और भूमिका के प्रति पूरी तरह समर्पित थे।
3. नीति निर्माण का आधार नॉलेज यानी जानकारी था। केंद्र और राज्य सरकारों के संस्थानों में गुणवत्तापूर्ण अनुसंधान को बड़ी अहमियत दी जाती थी। साथ ही एक मजबूत डेटा संग्रह और मॉनिटरिंग ढांचा तैयार किया जा रहा था।
क्या हरित क्रांति का समय हमें भविष्य के लिए कोई दिशा दे सकता है? मेरे विचार से हमें उस दौर से मिली सीख पर अमल करना चाहिए जिसने राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा के महत्वपूर्ण लक्ष्य को हासिल करने में हमारी मदद की।
इस संदर्भ में तीन विचार ध्यानार्थ रख रहा हूं-
सबसे पहली जरूरत केंद्र और राज्यों के बीच भरोसे और समन्वय के रिश्ते को दोबारा स्थापित करने की है, ताकि कृषि में अगले चरण की नीतिगत चुनौतियों से निपटा जा सके। इसके बिना हम जो इकोसिस्टम को दुरुस्त करने और मजबूत बनाने की बात कर रहे हैं, उसे हासिल कर पाना मुश्किल लगता है। चाहे केंद्र हो अथवा राज्य, शीर्ष राजनीतिक स्तर पर अभी ऐसी कोई स्थायी व्यवस्था नहीं नजर आती जहां बिना राजनीतिक पक्षपात के कृषि नीति की चुनौतियों और उनके विकल्पों पर चर्चा की जा सके। हमें कृषि के क्षेत्र में भी जीएसटी काउंसिल की तर्ज पर एक बॉडी गठित करने की जरूरत है जिसकी अध्यक्षता स्वयं प्रधानमंत्री, या नहीं तो कम से कम केंद्रीय कृषि मंत्री करें। बीते दो दशकों में नीति के स्तर पर जो सुस्ती देखने को मिल रही है, उसे तोड़ने की दिशा में यह पहला कदम होगा। इसके बाद ही कृषि इकोसिस्टम के पुनर्निर्माण की महती जरूरत पर फोकस किया जा सकेगा।
दूसरी राय यह है कि अनुसंधान से लेकर एक्सटेंशन तक, फाइनेंसिंग से लेकर ग्रामीण इंफ्रास्ट्रक्चर तक और टेक्नोलॉजी से लेकर मार्केटिंग तक, कृषि इकोसिस्टम के बिखरे पुर्जों की पहचान की जाए। विभिन्न एग्री वैल्यू चेन के समेकित विचार और विश्व बाजार में भारत के वांछित स्थान से निवेश, अनुसंधान, स्केलिंग, इंफ्रास्ट्रक्चर निर्माण आदि का आधार बन सकता है। हरित क्रांति की शुरुआत 5 दशक से भी अधिक पहले की गई थी। तब और अब में एक बड़ा परिवर्तन निजी क्षेत्र द्वारा क्षमता निर्माण और उनका इस सेक्टर में रुचि दिखाना है। कृषि इकोसिस्टम की क्षमता को तेजी से सुधारने में इसका सफलतापूर्वक इस्तेमाल किया जा सकता है, खासकर मूल्य संवर्धन और ग्रामीण क्षेत्र में रोजगार सृजन के मामले में।
तीसरा लेकिन समान रूप से महत्वपूर्ण पहलू यह है कि योजना बनाने और उन पर अमल करने में पूरी तरह से विकेंद्रीकृत नजरिया अपनाया जाए। इसमें स्थानीय स्तर पर जमीन की स्थिति, खाद्य एवं पोषण, कृषि जलवायु स्थिति और जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को शामिल किया जाए। अनुसंधान, एक्सटेंशन और नीतियों को अमल में लाने की क्षमता राज्यों और उनमें भी निचले स्तर पर विकसित की जानी चाहिए। 1960 और 1970 के दशक की तुलना में आज का कृषक समुदाय काफी अधिक जानकारी रखता है और सजग है। उस समय काफी हद तक केंद्रीकृत योजना और निवेश की जरूरत थी जिसका नेतृत्व वैज्ञानिक और प्रशासक कर रहे थे। कृषक समुदाय के इनोवेशन और उनकी जानकारी को उसमें शामिल करने की गुंजाइश बहुत कम थी। लेकिन आज के दौर में योजना बनाने और उन पर अमल करने में कृषक समुदाय को बड़ी और सक्रिय भूमिका देने की जरूरत है। उन्हें सिर्फ नीतियों के अमल में नहीं, बल्कि नीतियां बनाने में भी सहयोगी बनाने की जरूरत है।
लेख की शुरुआत में मैंने कृषि क्षेत्र के जिन चार संकटों का जिक्र किया था, उनसे निपटने के लिए ये कुछ समाधान हैं। हालांकि ये अपने आप में कोई अनूठे अथवा अंतिम समाधान नहीं हैं। जरूरी यह है कि कृषि क्षेत्र की चुनौतियां को व्यापक रूप से स्वीकार किया जाय। पूरे देश को एक इकाई के तौर पर समझने के बाद ही इसका समाधान निकाला सकता है। राजनीतिक संघर्ष तो लोकतंत्र की रगों में लहू के समान है। यह संघर्ष बना रह सकता है और रहना भी चाहिए। लेकिन खाद्य और पोषण सुरक्षा विवाद का विषय नहीं हो सकता है। इसलिए यह काम करने और आगे बढ़ने का समय है।
(लेखक समुन्नति एग्रो के डायरेक्टर और मध्य प्रदेश सरकार के पूर्व कृषि सचिव हैं। लेख में व्यक्ति विचार उनके निजी हैं)