हरित क्रांति के जनक और 1970 में नोबेल शांति पुरस्कार विजेता डॉ. नॉर्मन बोरलॉग ने कहा था, "आप भूखे पेट विश्व में शांति नहीं बना सकते”। कोविड-19 महामारी के बाद की दुनिया में उनके इस कथन के दूरगामी और गंभीर परिणाम देखने को मिल रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र के खाद्य और कृषि संगठन (एफएओ) के अनुसार 2021 में वैश्विक भुखमरी के शिकार और कुपोषित लोगों की संख्या बढ़कर 82.8 करोड़ हो गई जो की दुनिया की आबादी का करीब 10 फीसदी है। दुनिया भर में बढ़ते जातीय संघर्ष, युद्ध और जलवायु परिवर्तन के कारण सस्ती कीमत पर भोजन की उपलब्धता दूर की कौड़ी बनती जा रही है। भारत भी इससे अछूता नहीं है। यहां के लगभग 80 करोड़ लोग अपनी खाद्य संबंधी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए सरकारी सब्सिडी वाले राशन पर निर्भर हैं, जबकि भारत 142 करोड़ की आबादी के साथ दुनिया की सबसे अधिक आबादी वाला देश बन गया है।
एक ओर हरित क्रांति ने भारत को खाद्य उत्पादन में अपनी जरूरतों को पूरा करने में सक्षम बनाया, वहीं कृषि शिक्षा, विज्ञान और अनुसंधान के मूलभूत ढांचे और सरंचना ने खाद्य सुरक्षा को सुनिश्चित करने में अहम् भूमिका निभाई। भारत में कृषि शिक्षा, अनुसंधान और प्रसार की विशाल दीवार भारत और अमेरिका के घनिष्ट संबंधों का जीता जागता उदहारण हैं। वर्तमान में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) के 113 संस्थानों, 74 राज्य कृषि विश्वविद्यालयों, 4 मानद विश्वविद्यालयों, 3 केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालयों और 4 केंद्रीय विश्वविद्यालयों के साथ देश की राष्ट्रीय कृषि अनुसंधान प्रणाली दुनिया में सबसे बड़ी है। कृषि विश्वविद्यालयों की नींव अमेरिका के लैंड ग्रांट यूनिवर्सिटी (एलजीयू) की तर्ज पर इंडो-अमेरिकन टीमों की सिफारिशों पर अमेरिकी सरकार, फोर्ड और रॉकफेलर फाउंडेशन की मदद से की गई। इसकी बदौलत भारत में एलजीयू की तर्ज पर पहला राज्य कृषि विश्वविद्यालय 1960 में पंतनगर में स्थापित किया गया था। इसी के साथ 1960 के दशक के मध्य में भारत में अमेरिका के सहयोग से हरित क्रांति की शुरुआत ने देश को विनाशकारी अकाल से बचाया।
गेहूं और चावल की अर्द्ध-बौनी और उच्च उपज वाली किस्मों के उत्पादन के परिणाम अभूतपूर्व थे। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) के नेतृत्व में प्रो. एम.एस. स्वामीनाथन ने गेहूं में मेक्सिको की नोरिन-10 से प्राप्त अर्द्ध-बौना आरएचटी जीन और विशेष रूप से ताइवान से प्राप्त डी-जियो-वू-जीन चावल की किस्म से प्राप्त अर्द्ध-बौना एसडी-1 जीन से भारत में पहली सबसे लोकप्रिय अर्द्ध-बौनी आईआर-8 चावल किस्म का विकास किया। इसकी स्वीकृति और प्रचलन से कृषि विज्ञान और अनुसंधान को गति मिली और अगले पांच दशकों तक देश में अर्द्ध-बौना जीन आरएचटी और एसडी-1 का विभिन्न कृषि जलवायु क्षेत्रों के लिए आधुनिक गेहूं और चावल की किस्मों को विकसित करने के लिए बड़े पैमाने पर उपयोग किया गया। देश के किसानों ने गेहूं और चावल की अर्द्ध-बौनी और उच्च उपज वाली किस्मों को खूब अपनाया। इसके साथ ही सिंचाई, उर्वरक और मशीनीकरण जैसे कृषि उद्योगों के विकास की एक नई लहर खेतों और खलिहानों में दौड़ पड़ी।
अनाज की फसलों में कृषि विज्ञान का वो दौर आगे बढ़ा और 1980 के दशक में संकर पद्धति का उपयोग अधिक उपज वाले संकर बीजों के रूप में बाजरा, जवारी, कपास और सब्जियों में व्यापक स्तर पर होने लगा। इसके परिणामस्वरूप आज देश में अन्न के भंडार भरे हैं। वर्ष 2022-23 में भारत ने खाद्यान्न और बागवानी फसलों का क्रमशः 33 करोड़ और 34.2 करोड़ टन उत्पादन कर नया रिकॉर्ड बनाया। अपनी खाद्य सुरक्षा को पूरा कर आज भारत दुनिया भर में कृषि और खाद्य उत्पादों का 50 अरब डॉलर से ज्यादा का निर्यात कर रहा है।
इक्कीसवीं सदी में अमेरिकी सरकार कृषि और खाद्य नीति में बड़ा बदलाव कर कृषि में बौद्धिक संपदा अधिकारों की सुरक्षा, प्रौद्योगिकियों का व्यावसायीकरण और व्यापार के माध्यम से अपनी बहुराष्ट्रीय कंपनियां के लिए अंतरराष्ट्रीय बाजार खोलने में लग गई। भारत में भी इसका प्रभाव देखने को मिला। अमेरिकी सरकार, उसकी सहायक एजेंसियों और विकास संस्थानों का ध्यान और दृष्टिकोण कृषि में द्विपक्षीय सहयोग से निजी व्यवसाय और बाजार व्यवस्था को सक्षम करने में निहित किया गया। चाहे 2001 में अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश और भारतीय प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा हस्ताक्षरित “उच्च प्रौद्योगिकी सहयोग समूह (एचटीसीजी)” हो या 2005 में राष्ट्रपति जॉर्ज बुश और भारतीय प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह द्वारा हस्ताक्षरित “यूएस-इंडिया नॉलेज इनिशिएटिव ऑन एग्रीकल्चर एजुकेशन, टीचिंग, रिसर्च, सर्विस और कमर्शियल लिंकेज (एकेआई)” हो, कृषि का बाजार खोलने की व्यवस्था और कृषि व्यवसाय द्विपक्षीय सहयोग का अभिन्न अंग बन गया। यही नहीं, 2021 के भारत-अमेरिकी टीपीएफ के अंतर्गत "2 बनाम 2 कृषि बाजार खोलने" की व्यवस्था के मुताबिक अमेरिका ने भारतीय आमों और अनार/अनार के दानों का बाजार इस शर्त पर खोला कि भारत अमेरिकी चेरी और अमेरिकी अल्फाल्फा घास के लिए अपना बाजार खोले।
वैश्वीकरण के इस दौर में सरकारों के बीच द्विपक्षीय सहयोग के माध्यम से बाजार को खोलना विकासशील और विकसित देशों के बीच कोई फर्क नहीं रखता है। जहां तक विकसित और विकासशील देशों की बात है, तो जलवायु परिवर्तन के इस काल में जहां गरीबी, भुखमरी और कुपोषण विकासशील देशों में अपने पैर फैला रही है, वहीं विकसित देशों का मानवीय कर्तव्य कि बाजार व्यवस्था के साथ-साथ विकासशील देशों को द्विपक्षीय सहयोग के माध्यम से कृषि के क्षेत्र में अच्छी पद्धति, नई तकनीक और नवाचार के लिए सहयोग करें। साथ ही नई तकनीक और नवाचार को इन देशों में खाद्य पदार्थों की उत्पादकता को बढ़ाने के लिए साझा करें।
भारत और अमेरिकी सहयोग और व्यापर तभी सार्थक होगा जब अमेरिका भारत में द्विपक्षीय सहयोग से कृषि विज्ञान, अनुसंधान और संयुक्त तकनीकी विकास कार्यक्रमों को तेज करे। अमेरिकी कांग्रेस को तेजी से विकसित हो रहे वैश्विक व्यापार और प्रौद्योगिकियों में कृषि तकनीकियों जैसे बायोटेक, जीनोम एडिटिंग, डिजिटल एवं प्रिसिजन खेती को आकार देने के लिए पर्याप्त संसाधनों का आवंटन कर जलवायु-स्मार्ट एवं सतत कृषि से खाद्य सुरक्षा को सुनिश्चित किया जा सके। भारत-अमेरिका रणनीतिक साझेदारी को बाजार खोलने और व्यापार से परे देखना चाहिए और कृषि विज्ञान और विकास में सहयोग करना चाहिए।
भारत और अमेरिका दुनिया के दो सबसे बड़े कृषि उत्पादक देश हैं। उन्हें एक-दूसरे से बहुत कुछ सीखना है। भारत और अमेरिका को कृषि क्षेत्र में सिंजेंटा और एडामा जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के अधिग्रहण के साथ चीन का वैश्विक स्तर पर कृषि क्षेत्र में उभरती उद्योग संरचना से होने वाले प्रभावों को समझाना हैं और नई कृषि रणनीति बनाने की अवश्यकता है।
भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अमेरिकी यात्रा में दोनों देशों के बीच 21वीं सदी में कृषि व्यापार के साथ कृषि विज्ञान, अनुसंधान, नवाचार और विकास की जुगलबंदी और साझेदारी की जरूरत हैं। कृषि विकास में सहयोग कर भारत और अमेरिका एक मजबूत और अधिक टिकाऊ कृषि क्षेत्र का निर्माण कर सकते हैं जो दोनों देशों को सतत लाभान्वित करने में सहायक साबित होगी।
(भगीरथ चौधरी जोधपुर स्थित दक्षिण एशिया बायोटेक्नोलॉजी केंद्र के संस्थापक हैं।)