जैसे-जैसे विश्व की आबादी बढ़ती जा रही है, लोगों की खाद्य और पोषण सुरक्षा सुनिश्चित करने की चुनौती भी बढ़ रही है। ऐसे में कृषि वानिकी से जुड़ी टिकाऊ कृषि पद्धतियां कारगर समाधान के रूप में उभर रही हैं। सेंटर फॉर इंटरनेशनल फॉरेस्ट्री रिसर्च (CIFOR) और वर्ल्ड एग्रोफॉरेस्ट्री (ICRAF) के अनुसार, कृषि वानिकी यानी "पेड़ों की खेती" - पेड़ों, झाड़ियों और पशुधन को खेती के साथ जोड़ती हैं, जिससे कृषि भूमि की उत्पादकता और इकोलॉजिकल हेल्थ को बढ़ावा मिलता है। कृषि वानिकी भारत के पूर्वोत्तर क्षेत्र के लिए विशेष रूप से प्रासंगिक है, जहां जटिल भौगोलिक स्थितियों और विविध पारिस्थितिकी संतुलन तंत्रों के लिए टिकाऊ कृषि की आवश्यकता है।
कृषि वानिकी पारिस्थितिकी संतुलन को बनाए रखते हुए कृषि उत्पादकता को बढ़ाकर खाद्य और पोषण सुरक्षा में अहम योगदान कर सकती है। पारंपरिक कृषि पद्धतियों की तुलना में कृषि वानिकी 30 प्रतिशत तक अधिक कार्बन संग्रहित करती है। इस प्रकार यह जलवायु परिवर्तन से निपटने के प्रयासों में महत्वपूर्ण योगदान कर सकती है। कृषि वानिकी कूड़े के अपघटन, जड़ उत्सर्जन और जैविक नाइट्रोजन स्थिरीकरण के माध्यम से पोषक चक्रण को बढ़ाकर खाद्य और पोषण सुरक्षा को बेहतर बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है।
खासकर सूखे के दौरान कृषि वानिकी फसल उत्पादन को स्थिर रख जलवायु की बदलती दशाओं का मुकाबला करने की क्षमताओं को बढ़ाती है। मिट्टी में ऑर्गेनिक तत्वों की वृद्धि से मृदा संरचना और उर्वरता में सुधार आता है जो फसल उत्पादकता के लिए महत्वपूर्ण है। इसके अलावा, फसलों के साथ-साथ पेड़ों को लगाने से निरंतर खाद्य आपूर्ति बनाए रखने, आहार विविधता और एकल फसल उत्पादन की तुलना में अधिक पोषण प्राप्त करने में मदद मिलती है।
मिट्टी में नमी बरकरार रखकर कृषि वानिकी मिट्टी कटाव के जोखिम को कम करने में मदद कर सकती है। यह पूर्वोत्तर भारत के पहाड़ी इलाकों के लिए खासतौर पर फायदेमंद हो सकता है। यह क्षेत्र अनियमित वर्षा, असामयिक बाढ़, तापमान में उतार-चढ़ाव से ग्रस्त हैं। कृषि वानिकी का लाभ उठाकर पूर्वोत्तर भारत में हरित क्षेत्र बढ़ाकर और बेहतर जल प्रबंधन के द्वारा टिकाऊ कृषि को बढ़ाया दिया जा सकता है।
कृषि वानिकी किसानों को उनकी आय में विविधता लाने का अवसर भी प्रदान करती है। फलों, सब्जियों, फसलों, लकड़ी और चारे के समन्वय से किसान आय के लिए एक ही फसल पर निर्भरता को कम कर सकते हैं। पूर्वोत्तर भारत के संदर्भ में यह एक कारगर उपाय है क्योंकि वहां लगभग 80 प्रतिशत किसान छोटी जोत वाले हैं। चूंकि पूर्वोत्तर भारत के कई हिस्सों में खाना पकाने के लिए अब भी ईंधन के तौर पर लकड़ी का इस्तेमाल किया जाता है इसलिए कृषि वानिकी ईंधन का एक स्थायी स्रोत प्रदान करती है जिससे प्राकृतिक वनों पर निर्भरता कम होती है।
इन सभी फायदों के बावजूद, पूर्वोत्तर भारत में कृषि वानिकी का भरपूर लाभ नहीं उठाया गया है। इसके लिए किसानों में कृषि वानिकी के लाभ के बारे में जागरूकता की कमी, कृषि वानिकी की शुरुआत में अधिक लागत और भूमि स्वामित्व से मुद्दे वजह हो सकते हैं। इस क्षेत्र को जलवायु परिवर्तन के कारण सामाजिक-आर्थिक चुनौतियों का भी सामना करना पड़ रहा है, जिससे कमजोर समुदायों के लिए खाद्य सुरक्षा की समस्या और भी गंभीर हो गई है।
हालांकि, सरकार राष्ट्रीय कृषि वानिकी नीति और राष्ट्रीय सतत कृषि मिशन जैसी पहलों के माध्यम से टिकाऊ कृषि प्रणालियों को बढ़ावा दे रही हैं, लेकिन कृषि वानिकी प्रथाओं को प्रोत्साहन देने के लिए लक्षित कार्यक्रमों और कार्यान्वयन की आवश्यकता है। नीतिगत समर्थन और निवेश किसानों के आत्मविश्वास को बढ़ाने और उन्हें खाद्य व पोषण सुरक्षा प्राप्त करने में मदद कर सकता है, साथ ही उनकी आजीविका में भी सुधार ला सकता है। जलवायु परिवर्तन की चुनौती के मद्देनजर यह आवश्यक है कि हमारे पास कृषि वानिकी को बढ़ावा देने और भविष्य की खाद्य और पोषण संबंधी जरूरतों को सुरक्षित करने के लिए आम सहमति और आवश्यक उपाय हों।
(लेखक एक सामाजिक उद्यमी और बालीपारा फाउंडेशन के संस्थापक एवं अध्यक्ष हैं। बालीपारा फाउंडेशन पर्यावरण संरक्षण, कृषि और आजीविका के क्षेत्रों में पूर्वी हिमालयी समुदायों के साथ मिलकर काम करता है।)