देश का कृषि क्षेत्र एक स्लो चेंज (धीमे लेकिन सतत बदलाव) के दौर में है। कृषि क्षेत्र अर्थव्यवस्था का सबसे बड़ा निजी क्षेत्र है। सरकार के अलग-अलग आंकड़ों के मुताबिक 12 से 14 करोड़ जोत के मालिक छोटे-मझोले और बड़े किसान इस निजी क्षेत्र को चलाते हैं। सरकार की नीति अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों को असंगठित (अनआर्गनाइज्ड) से संगठित (आर्गनाइज्ड) में तब्दील करने की है। गुड्स एंड सर्विस टैक्स (जीएसटी) और नोटबंदी के बाद इसमें तेजी आई है। छोटे और असंगठित कारोबार सिमट रहे हैं और बड़े यानी आर्गनाइज्ड सेक्टर का दायरा तेजी से बढ़ रहा है। लेकिन कृषि क्षेत्र में इसका स्वरूप अलग है। जोत के छोटे आकार और मैन्यूफैक्चरिंग व सर्विस सेक्टर में रोजगार के सीमित अवसरों के चलते कृषि क्षेत्र पर निर्भर लोगों की संख्या में कोई बड़ा बदलाव बहुत जल्द आने वाला नहीं है। लेकिन जो बदलाव हो रहा है, वह है सरकार की भूमिका का धीरे-धीरे कम होते जाना और निजी क्षेत्र का बढ़ते जाना।
बात ढांचागत सुविधाओं से शुरू की जा सकती है। किसानों की आर्थिक स्थिति में बेहतरी के लिए पहली जरूरत सिंचाई सुविधाओं का विकास है। पिछले कुछ बरसों में सिंचाई की कोई बड़ी परियोजना शुरू नहीं हुई है। हां, सिंचाई के लिए उपयोग होने वाले पानी की एफिसिएंसी कैसे बढ़े इस पर कुछ काम हुआ है। यानी सरकारों ने सिंचाई सुविधाओं पर निवेश बहुत कम कर दिया है। जहां तक हर बूंद से अधिक उत्पादन की बात है, तो यह एक महंगा विकल्प है। इसमें नई तकनीक का इस्तेमाल कर ड्रिप या स्प्रिंकलर सिंचाई सुविधाओं का उपयोग होता है। इन सुविधाओं के लिए केंद्र और राज्य सरकारें सब्सिडी देती हैं ताकि किसान पर आर्थिक बोझ कम हो सके। यानी सरकार खुद इस काम को नहीं कर किसान और कंपनियों पर छोड़ रही है। इसके साथ ही सिंचाई उपकरणों का निजी उद्योग तेजी से बढ़ रहा है।
कृषि शोध दूसरा अहम हिस्सा है जो कृषि विकास के लिए जरूरी है। लेकिन पिछले कई वर्षों में इसके लिए आवंटित राशि में अपेक्षित बढ़ोतरी नहीं हुई है। चालू वित्त वर्ष का भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) का बजट पिछले वित्त वर्ष के बराबर ही था। इसका अधिकांश हिस्सा वेतन और दूसरे व्यय में जाता है, रिसर्च के लिए संसाधन बहुत कम रह जाते हैं। नया शोध कारपोरेट क्षेत्र से आ रहा है। इसकी वजह से नई किस्मों के बीज निजी क्षेत्र से आएंगे और किसानों को लिए उत्पादन लागत बढ़ेगी।
गेहूं और धान की बड़ी खाद्यान्न फसलों में सामान्य बीज प्रजातियां अभी सरकारी क्षेत्र से आ रही हैं। लेकिन धान की हाइब्रिड किस्म में निजी क्षेत्र का दबदबा है। इनके अलावा बाकी फसलों की हाइब्रिड किस्में निजी क्षेत्र से ही आ रही हैं। यानी यहां से सरकार ने अपने हाथ धीरे-धीरे खींच लिए हैं जिसके चलते बेहतर गुणवत्ता के बीज के लिए किसान को अधिक कीमत चुकानी पड़ रही है। इसी के जरिये एक संगठित बीज उद्योग खड़ा हो रहा है। राष्ट्रीय बीज निगम, स्टेट फार्म कारपोरेशन ऑफ इंडिया, राज्यों के बीज निगम और सरकारी विश्वविद्यालयों के जरिये बीज की उपलब्धता का दायरा कम हो रहा है। यह आने वाले दिनों में और अधिक तेजी से कम होगा। सरकारें बीज पर सब्सिडी देने की योजनाएं जरूर चला रही हैं। राज्य सरकारें कई बार बीज किट देती हैं। लेकिन इस तरह दिए गए बीज की गुणवत्ता को लेकर अक्सर सवाल उठते हैं। 1970 के दशक में निजी क्षेत्र ने कपास जैसी फसलों का बीज मल्टीप्लाई कर बेचना शुरू किया और उसके बाद 1980 और 1990 के दशक में इन कंपनियों ने खुद के ब्रीडिंग प्रोग्राम के जरिये बीज उत्पादन कर बाजार खड़ा किया। वहीं करीब 25 साल पहले बहुराष्ट्रीय कंपनियों की भी एंट्री इस बाजार में हो गई और अब देश के निजी क्षेत्र की बीज कंपनियों का कारोबार करीब 15 हजार करोड़ रुपये तक पहुंच गया है।
विपणन ढांचागत सुविधाओं को कृषि विकास और किसानों की बेहतर आमदनी के लिए महत्वपूर्ण माना गया और सातवें व आठवें दशक में देश भर में मंडियों व सरकारी भंडारण सुविधाओं पर सरकारों ने तेजी से काम किया। लेकिन अब सरकार इस ढांचागत सुविधा को कृषि क्षेत्र के लिए रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण मानते हुए किसी बड़े आवंटन की कोशिश करती नहीं दिखती है। हालांकि यहां परोक्ष रूप से काम करते हुए जरूर दिखना चाहती है। इसके लिए सरकार ने एक लाख करोड़ रुपये का नेशनल एग्रीकल्चर इंफ्रास्ट्रक्चर फंड बनाया है। लेकिन यह कोई ऐसा फंड नहीं है जिसका उपयोग ढांचागत सुविधाओं के लिए सीधे होना है। सरकार रियायती कर्ज के लिए सब्सिडी देगी। यानी सरकार खुद ढांचागत सुविधाएं बनाने की बजाय संस्थाओं को इसके लिए सस्ता कर्ज देगी। किसी बड़ी ढांचागत सुविधा इसके तहत बनने की संभावना नहीं है क्योंकि कर्ज की सीमा बहुत बड़ी नहीं है। लेकिन सरकार ने निजी क्षेत्र के साथ दीर्घकालिक समझौते किये हैं जिसके तहत निजी क्षेत्र की बड़ी कंपनियों ने आधुनिक भंडारण सुविधाएं विकसित की हैं और लगातार इसकी क्षमता बढ़ा रही हैं। यानी यहां भी संगठित क्षेत्र का स्वरूप बढ़ रहा है।
टेक्नोलॉजी का उपयोग कृषि में तेजी से बढ़ रहा है। यह फसल उत्पादन प्रक्रिया से लेकर जरूरी आंकड़े जुटाने, वित्तीय संसाधनों की उपलब्धता, विपणन और उत्पादों के बाजार व वैश्विक बाजार तक पहुंचने और फसल के लिए जरूरी उर्वर तत्वों समेत हर क्षेत्र में तेजी से अपनी जगह बना रही है। प्रिसिजन फार्मिंग का दुनिया के विकसित देशों में चलन बढ़ रहा है। यह लागत को कम करने से लेकर श्रम के कम उपयोग और बेहतर उत्पादकता व गुणवत्ता जैसे नतीजे हासिल करने में मददगार साबित हो रही है।
हमारे देश में भी इस दिशा में काम तो हो रहा है लेकिन अधिकांश निजी क्षेत्र में है। सरकारी संस्थानों ने इंटरनेट ऑफ थिंग्स और आईटी प्लेटफॉर्म के उपयोग जैसे प्रोजेक्ट तो शुरू किये हैं लेकिन इनके नतीजे आने में समय लगेगा। इनका व्यावहारिक उपयोग कब और कैसे होगा उसके बारे में अभी कुछ कहना जल्दबाजी होगी। वहीं निजी क्षेत्र की कंपनियां और खासतौर से भारतीय कृषि क्षेत्र में तेजी से कारोबार बढ़ा रही बड़ी घरेलू कंपनियां और दुनिया की बड़ी एग्रीकल्चर बिजनेस करने वाली बहुराष्ट्रीय कंपनियां इस दिशा में तेजी से काम कर रही हैं। यही वजह है कि सरकार ने भी एग्री स्टैक और फार्मर्स आईडी जैसे तमाम प्रोजेक्ट के लिए घरेलू और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के साथ करीब दस समझौते किये हैं। यह इस बात का संकेत है कि सरकार व सरकारी संस्थानों की भूमिका कम होगी और निजी क्षेत्र की बढ़ेगी।
किसानों के स्तर पर भी आर्गनाइज्ड सेक्टर बनाने की कवायद है और उसके लिए एफपीओ बनाने पर सरकार का जोर है। सरकार ने 10 हजार एफपीओ बनाने का लक्ष्य रखा है। कोआपरेटिव्स का दायरा बढ़ाने पर फोकस किया जा रहा है और प्राइमरी कोआपरेटिव को मल्टी फंक्शनल सोसायटी में बदलने की योजना है। एफपीओ और कोआपरेटिव के विकल्प किसानों के लिए कितने फायदेमंद हैं, इसकी समीक्षा भी किया जाना जरूरी है।
जहां तक अर्थव्यवस्था में कृषि क्षेत्र की भूमिका की बात है तो पिछले तीन साल से वह बेहतर स्थिति में है। कोरोना के समय जहां कृषि क्षेत्र के बेहतर उत्पादन ने अर्थव्यवस्था को सहारा दिया, वहीं सरकारी योजनाओं के लिए खाद्यान्न की उपलब्धता भी इसके चलते ही संभव हो सकी। चालू साल में कृषि क्षेत्र के विकास के बेहतर आंकड़ों के चलते ही अर्थव्यवस्था सात फीसदी की वृद्धि दर के करीब है। चालू वित्त वर्ष के पहले छह माह में कृषि क्षेत्र की विकास दर 4.5 फीसदी से अधिक बनी हुई है। लगातार चार साल सामान्य मानसून ने इसमें बड़ी मदद की है। वैश्विक बाजार में तेल और उर्वरकों की कीमतों में आई भारी तेजी के चलते सरकार को उर्वरकों पर सब्सिडी में भारी बढ़ोतरी करनी पड़ी। इसके चलते चालू वित्त वर्ष में उर्वरक सब्सिडी 2.25 लाख करोड़ रुपये से अधिक रहने का अनुमान है। कृषि उत्पादन की बेहतर स्थिति के चलते ही भारत महंगाई पर काबू पाने में सफल हो रहा है। हालांकि खाद्य तेलों के आयात पर 20 अरब डॉलर खर्च करना पड़ रहा है, जिसे नीतियों में ढील के रूप में देखा जा सकता है।
इन सबके बीच सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि सरकार कृषि क्षेत्र में कई सारे कदम उठाती दिखती तो है लेकिन उसके पास कोई स्पष्ट नीतिगत एजेंडा नहीं है। अमेरिका जैसा देश हर पांच साल में एक बार नई कृषि नीति लेकर आता है, लेकिन हम जरूरत पड़ने पर फैसला लेकर आगे बढ़ने की नीति पर ही अमल कर रहे हैं। जरूरी है कि एक समग्र कृषि नीति बने जिसमें उत्पादन से लेकर विपणन तक के सभी पक्षों की बात हो, घरेलू बाजार और वैश्विक बाजार से जुड़े आयात-निर्यात के मुद्दों पर स्पष्टता हो, बीज से लेकर टेक्नोलॉजी और वित्तीय सुविधाओं का एक साफ खाका हो और भू-स्वामित्व जोत के रिकॉर्ड से लेकर डिजिटलाइजेशन के भावी स्वरूप का दृष्टिकोण हो जो किसानों को आर्थिक रूप से अधिक सक्षम इकाई रूप में स्थापित कर सके। सुधारों को लेकर भी बात हो, लेकिन लगता है कि सरकार 2020 में लाये गये तीन नये कृषि कानूनों के विरोध और उनकी वापसी से पैदा हुई नीतिगत जड़ता को तोड़ना नहीं चाहती है। इसलिए अपनी भूमिका को सीमित करने की नीति पर धीरे-धीरे आगे बढ़ रही है।
सवाल कृषि क्षेत्र के सबसे बड़े भागीदार, किसानों के प्रतिनिधि संगठनों और उनके नेतृत्व पर भी है। लगता है कि वे अभी तक एमएसपी और कर्ज माफी जैसे मुद्दों पर ही अटके हुए हैं। कृषि क्षेत्र में जो बड़ा बदलाव आ रहा है उस पर उनकी समझ बहुत साफ नहीं दिखती है। बेहतर होगा कि किसान संगठन और उनके पदाधिकारी इस बदलाव को समझकर इस मोर्चे पर भी अपना पक्ष साफ करें या किसान हित के लिए जरूरी बातों को लेकर नीतिगत फैसलों में उनकी भागीदारी सुनिश्चित करें। यह तभी संभव है जब सरकार और किसान प्रतिनिधियों के बीच संवाद शुरू हो, जो फिलहाल दिख नहीं रहा है। बदलाव हो रहा है और यह जारी रहेगा, लेकिन अगर इसमें सभी हितधारकों की भागीदारी रहेगी तो इस बदलाव में किसानों के हितों को सुरक्षित रखा जा सकेगा।