देश में जब जब बड़े आंदोलन हुए उनसे कोई न कोई एक नया चेहरा राष्ट्रीय नेता के रूप में उभर कर सामने आया। उदाहरण के लिए जे पी आंदोलन से राष्ट्रीय जनता दल के लालू प्रसाद यादव, जनता दल यूनाइटेड के नीतीश कुमार और भारतीय जनता पार्टी के सुशील मोदी इन तीनों नेताओं का करियर एक ही सियासी अखाड़े से और लगभग एक ही समय शुरू हुआ। इसी तरह अन्ना आंदोलन से अरविन्द केजरीवाल जैसे नेता अपनी पार्टी की पहचान देश में बनाने के लिए संघर्ष कर रहे है। अगर इतिहास उठा कर देखा जाय तो कांग्रेस जैसी देश की पहली व सबसे पुरानी पार्टी भी आंदोलनों की उपज है। भारत के प्रमुख राजनीतिक दलों में शुमार कांग्रेस का गठन 28 दिसंबर 1885 को हुआ था। इसकी स्थापना अंग्रेज एओ ह्यूम (थियिसोफिकल सोसाइटी के प्रमुख सदस्य) ने की थी। दादा भाई नौरोजी और दिनशा वाचा भी संस्थापकों में शामिल थे। संगठन का पहला अध्यक्ष व्योमेशचंद्र बनर्जी को बनाया गया था। उस समय कांग्रेस के गठन का मुख्य उद्देश्य भारत की आजादी था, लेकिन स्वतंत्रता के पश्चात यह भारत की प्रमुख राजनीतिक पार्टी बन गई।
क्या किसान आंदोलन भी इस दिशा की ओर जा रहा है जिससे कोई नेता या पार्टी राष्ट्रीय स्तर पर उभर कर सामने आएगी। क्योंकि किसान आंदोलन में सम्मलित कई जाने पहचाने चेहरे किसी न किसी पार्टी से परोक्ष व् अपरोक्ष रूप से किसी न किसी पार्टी से जुड़े हुए थे या है। जैसे राकेश टिकैत ही कांग्रेस ओर लोकदल के प्रत्याशी के रूप में दो बार चुनाव लड़ चुके है | हालाँकि उनको हार का मुँह देखना पड़ा। इसी तरह दर्शन पाल , जगमोहन पटियाला , हन्नान मोल्ला सीपीआई से जुड़े है। योगेंद्र यादव भी अन्ना आंदोलन से निकल कर आये हुए है, आप पहले आम आदमी पार्टी से जुड़े रहे, जब वह २०१५ में आम आदमी पार्टी से बाहर हुए तब उन्होंने प्रशांत भूषण के साथ मिलकर स्वराज अभियान संगठन की स्थापना की|
किसान आंदोलन से जुड़े नेता लोग अब इस बात का संकेत दे रहे है कि अब वो अपना अस्तित्व राष्ट्रीय स्तर पर लाना चाहते है। क्योंकि जिस तरह से पांच राज्यों में जो विधान सभा चुनाव होने है उनमे किसान आंदोलन के नेताओं ने अपनी भूमिका निभानी शुरू की है उससे इस संभावना को नहीं नकारा जा सकता है कि ने वाले समय में इस आंदोलन से कोई नया राष्ट्रीय नेता निकल कर सामने आने वाला है। इसका एक कारण यह भी है कि किसान आंदोलन को कांग्रेस, आम आदमी पार्टी, अखिल भारतीय तृणमूल कांग्रेस व अन्य पार्टियों का समर्थन भी मिल रहा है। पश्चिम बंगाल में किसान रैलियों के लिए गये राकेश टिकैत की हवाई अड्डे पर अखिल भारतीय तृणमूल कांग्रेस की सांसद डोला सेन द्वारा आगवानी करना एवं राकेश टिकैत का बंगाल में चुनाव प्रचार करना इस बात को और पुख्ता करता है।
हो सकता है कि आने वाले दिनों में कॉर्पोरेट जगत भी किसान आंदोलन के पक्ष में खुलकर सामने आ जाए। ये भी कोई बड़ी बात नहीं होगी कि आने वाले समय में परोक्ष रूप में इन आंदोलन के चेहरों में से कोई राष्ट्रीय राजनीति में विकल्प के रूप में देश की जनता को दिखाई देने लगे। क्योंकि चुनाव किसी भी तरह का हो, ग्राम प्रधानी से लेकर लोकसभा तक, पूँजी की जरूरत प्रत्येक पार्टी को होती है | यही वजह है कि औद्योगिक घरानो को चुनाव से दूर नहीं रखा जा सकता है। क्योंकि सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज ने अपने रिसर्च में खुलासा किया था कि 2014 के लोकसभा चुनाव में 30 हजार करोड़ रुपए खर्च हुए थे। जो 2019 में बढ़कर दोगुना हो गया था। यह दुनिया का सबसे महंगा चुनाव साबित हुआ था।
ये अलग बात है कि उभरने वाला नया चेहरा अथवा पार्टी अगर ज्यादा महत्वाकांक्षी नहीं हुयी, तो हो सकता है कि वो किसी राष्ट्रीय पार्टी में शामिल हो जाए। इसलिए किसान आंदोलन को हल्के में नहीं लेना चाहिए क्योंकि आम जनता, अब देश और प्रदेश में, व्यक्तिवादी या पार्टीवादी शासन का जल्दी ही बदलाव का मन बनाती है | इस किसान आंदोलन को गंगा व हाल ही हुए अन्य आंदोलनों की नज़र से देखने की भूल नहीं करनी चाहिए | क्योंकि इन आंदोलनों से किसी राजनैतिक पार्टियों व औद्योगिक घरानो का ज्यादा सम्बन्ध नहीं था | वजह इनमे वोट बैंक और व्यापार को मजबूत करने जैसी कोई सम्भावना नहीं दिखी। हालाँकि यह भी कहा जा रहा है कि मौजूदा परिदृष्य और भविष्य वक्ताओं की घोषणाओं को माने तो केंद्र की सरकार को फिलहाल डरने की जरूरत नहीं है।
( गुंजन मिश्रा पर्यावरणविद हैं और उत्तर प्रदेश का बुंदेलखंड उनका कार्यक्षेत्र है, लेख में विचार उनके निजी हैं )