अगर इतिहास पर नज़र डाली जाय तो महिलाओं की भूमिका मानवीय जीवन के साथ अन्य क्षेत्रों में भी बहुत महत्वपूर्ण रही है। क्योंकि महिलाओं का खाद्य प्रणाली से लेकर अंतरिक्ष और अंटार्कटिका तक, कई बहुत महत्वपूर्ण आविष्कारों में योगदान रहा। महिलाएं ही जैव विविधता,जल,जंगल एवं जमीन की मुख्य संरक्षक मानी जाती हैं। इसके बावजूद महिलाओं पर बहुत कम लिखा गया। लेकिन महिलाओं को लेकर उपदेश दिए गए हैं या दिए जाते रहे हैं। इसलिए किसी महिला शख्सियत का बखान थोड़ा बहुत किया जा सकता है। मैं भी शायद यही करने का प्रयास कर रहा हूँ।
इसी के अंतर्गत मैं अपने एक मित्र श्री अमित शुक्ल के इस अवलोकन का जिक्र करना उचित समझता हूँ। श्री शुक्ल जी कहते हैं कि आम बोलचाल की भाषा में समाज में जो दो शब्द महिलाओं या लड़कियों के लिए प्रयोग में लाये जाते हैं, जिनसे पता चलता है कि महिलाओं को आज भी पुरुषों के बराबर अधिकार प्राप्त नहीं है या लड़कियां, लड़कों की बराबरी नहीं कर सकती है। पहला मर्दानी, किसी औरत को मजबूत बताने के लिए पुरुष के विश्लेषण की क्या जरूरत है। दूसरा "ये मेरी बेटी नहीं, बेटा है" इसमें कहीं न कहीं बेटा न होने का भाव छिपा होता है, मतलब मुझे बेटी की नहीं, बेटे की जरूरत है। ये बिलकुल सच है, क्योंकि हर पुरुष में कहीं न कहीं महिलाओं को कमतर आंकने का भाव होता है। वर्ष 2000 के पहले तक मैं भी इस गलत धारणा का शिकार था। लेकिन जब मुझे डॉ वंदना शिवा के साथ काम करने का मौका मिला, तब मुझे पुरुष और स्त्री को उनकी क्षमताओं के अनुरूप समझने का मौका मिला । फिर शादी होने के काफी समय के बाद, ये समझ विकसित हुई कि किसी भी पुरुष को स्त्री का प्रेम ही मनुष्य बना सकता है। तब मुझे पुरुष और स्त्री के रिश्ते को जानने की समझ आयी। लेकिन राजस्थान, ओडिशा, उत्तर पूर्व, झारखण्ड, गुजरात, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, हिमाचल, उत्तराखण्ड और उत्तर प्रदेश के आदिवासी स्थानों पर घूमने के बाद ये भी समझ आया कि सभ्य और पढ़े - लिखे समाज में महिलाओं को उतने अधिकार नहीं हैं, जितने आदिवासी महिलाओं के पास हैं।
महिलाओं और लड़कियों पर बढ़ते अत्याचार भी पढ़े लिखे समाज की देन है। क्योंकि मैंने असभ्य या आदिवासी या जंगली लोगों के बीच लड़कियों और महिलाओं के साथ बलात्कार जैसे घिनौने अपराध कभी नहीं सुने। जंगली समाज में मैंने महिलाओं की स्थिति बहुत ही सम्मानजनक पायी। जैसे कि, उत्तर पूर्व में घर की सबसे छोटी बेटी ही घर की मालकिन होती है। यानी घर की पूरी जायजाद पर छोटी बेटी का अधिकार होता है। उत्तर पूर्व में लड़कियां ससुराल नहीं जातीं बल्कि लड़कों को अपनी पत्नी के घर आना पड़ता है यानी रहना पड़ता है। इसी तरह हिमाचल के बर्फीले स्थानों पर बेटी को वही अधिकार प्राप्त हैं जो लड़को को मिलते हैं। लड़कियां अकेले कहीं भी आ जा सकती हैं। इसका सबसे बड़ा कारण महिलाओं पर घर की पूरी जिम्मेदारी होती है। इसको ऐसे भी कह सकते हैं कि जो स्थान साम्राज्यवाद से दूर रहे, वहाँ महिलाओं की स्थिति पुरुषों की तुलना में बेहतर पायी गयी।
इसको कुछ इस तरह भी समझा जा सकता है, कि तुलसी दास को महाकवि गोस्वामी तुलसीदास बनाने का काम भी उनकी पत्नी द्वारा इस दोहे के माध्यम से किया था। अस्थि चर्म मय देह यह, ता सों ऐसी प्रीति ! नेकु जो होती राम से, तो काहे भव-भीत ? यही वह दोहा है जिसके कारण तुलसी ने महाकाव्य श्रीरामचरितमानस लिखा जिसको विश्व के 100 सर्वश्रेष्ठ लोकप्रिय काव्यों में 46वाँ स्थान दिया गया। लेकिन तुलसी की तुलना में रत्नावली को कोई नहीं जानता। इतिहास गवाह है कि भारत में पुरुषों के लिए महिलाओं को अपनी इच्छाओं और अधिकारों का बलिदान देना पड़ा। बुंदेलखंड में मैंने यहाँ तक देखा है, कि सिर्फ लड़कों को ही अच्छे खाने-पीने और पहनने का हक है। महिलाएं आज भी घर के पुरुषों के भोजन कर लेने के बाद जो बचता है वही खाकर संतोष करती हैं। यही कारण है कि देश में लड़कियां दहेज़,बलात्कार,आर्थिक व सामाजिक शोषण की शिकार हैं। कारण लड़कियों की क्षमताओं को बेहतर न मानना। जबकि देश में गाय, गंगा, गायत्री की रक्षा करने की बात आज प्राथमिकता के साथ की जाती है। और हो भी क्यों नहीं क्योंकि महिला को शक्ति का दूसरा रूप माना जाता है।
इसके अलावा महिलाओं के प्रबंधन का इससे बेहतर और कोई उदाहरण नहीं हो सकता है, कि जब विश्व कोविड-19 जैसी महामारी से बहुत ज्यादा परेशान था, तब इसके स्वास्थ्य, सामाजिक, एवं आर्थिक प्रभावों को कम करने के लिए उन देशों ने बहुत अधिक सफलता प्राप्त की जिनका नेतृत्व महिलाओं द्वारा किया जाता है। उदाहरण के लिए, डेनमार्क, इथियोपिया, फिनलैंड, जर्मनी, आइसलैंड, न्यूजीलैंड और स्लोवाकिया में सरकार के प्रमुखों को कोविड -19 के लिए उनकी राष्ट्रीय प्रतिक्रिया की दृढ़ता, निर्णायकता और प्रभावशीलता के लिए व्यापक रूप से सराहा गया। यही वजह है कि इस बर्ष संयुक्त राष्ट्र महिला संगठन ने अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस, 8 मार्च 2021 के लिए थीम , "नेतृत्व में महिला: कोविड-19 के समय दुनिया में एक समान भविष्य की प्राप्ति," की घोषणा की है। हालाँकि अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस की आधिकारिक वेबसाइट पर इस बर्ष की थीम "चुनौती चुनें" (चूज़ टू चेलेंज)के साथ छवियों को साझा कर रही है।
महिलाएं सिर्फ इस धरती पर मानवीय जीवन का सृजन ही नहीं करतीं, बल्कि धरती पर जीवन का संरक्षण भी करती हैं। वांगारी मथाई, पोली हिगिंस, डॉ वंदना शिवा, जो जो मेहता आदि महिलाओं से लेकर एक बिना पढ़ी लिखी, खेत पर काम करने वाली मजदूर स्त्री भी जैव विविधता के साथ प्रकृति के मूल सिंद्धांत सहअस्तिव्त को उसके द्वारा किये गए कार्यो में प्राथमिकता देती है। इसमें उन स्थानों की महिलाएं भी शामिल हैं जो जंगल से लकड़ियां बीनकर शहहों में बेचती हैं। जिनपर ये आरोप वन विभाग की तरफ से लगाए जाते हैं, कि ये महिलाये वनों को नुकसान पहुँचाती हैं। यही सब कारण हैं कि डॉ वंदना शिवा इस वर्ष अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस को “पृथ्वी का उदय, महिलाओं का उदय”उत्सव के रूप में मना रही हैं।
हमारे घरों में कई ऐसी बेटियाँ व बहुएं हैं जिन्होंने पढ़े लिखे होने के बाबजूद अपना कॅरियर अपने परिवार की खातिर दांव पर लगा दिया। इसका कारण आज भी महिलाओं के द्वारा किये गए घरेलू कार्य को उनका कर्तव्य माना जाता है। इसीलिए श्री भूपेंद्र सिंह, जो जिला परियोजना समन्वयक के पद पर कार्यरत हैं, कहते हैं कि महिला व बाल विकास तभी संभव है, जबकि परिवार का विकास होगा। इसलिए जितनी भी योजनाएं भारत व् राज्य सरकारों द्वारा महिला विकास व् समानता के नाम पर चलाई जा रही हैं, वो सब परिवार विकास के लिए होनी चाहिए। क्योंकि महिला के नाम पर हर कार्य में पुरुष ही उसकी पैरवी करते है। जो भी संसाधन महिला के नाम पर होते हैं उनके मालिक पुरुष ही हैं, महिला तो सिर्फ एक मजदूर के तरह कार्य करती है। अतः महिलाओं का विकास तो हो रहा है, लेकिन सिर्फ कागज़ो पर। इसका कारण अभी तक पुरुष समाज ने अपनी मानसिकता में महिलाओं को बराबर का दर्जा नहीं दिया है। इसलिए परिवार का विकास होने पर ही महिलायें पुरुष के साथ कदम मिला कर चल सकती हैं। नहीं तो जैसा होता है कि महिला सम्मान के नाम पर आयोजित कार्यक्रमों में पुरुष कुर्सी पर बैठे नज़र आते हैं और गावं की महिलाये नीचे जमीन पर। इतना ही नहीं महिलाये तो खाने, पीने, बोलने की आज़ादी से भी आज वंचित हैं। अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस 1977 से संयुक्त राष्ट्र द्वारा मनाया जा रहा है, परिणाम हमारे सामने है। अभी विश्व बैंक के सर्वे के अनुसार दुनिया में 190 देशों में भारत का 123 वां स्थान है जहां महिलाओं को सबसे निचले पायदान पर रखा जाता है। अब इसी से अनुमान लगाया जा सकता है कि हमारे देश में महिलाओं की क्या स्थिति है। शायद इसीलिए मजाज लखनवी ने कहा है कि“तिरे माथे पे ये आँचल बहुत ही खूब है लेकिन, तू इस आँचल से एक परचम बना लेती तो अच्छा था।”