पर्यावरण संतुलन और पेड़ पौधों को ग्रीन गोल्ड के रूप में अपनाने की जरूरत

आज जरूरत है ईकोसाइड का आकलन करने की एवं प्राकृतिक संसाधनों के साथ स्थाई विकास की राह पर चलने की। यानी बड़ी बड़ी परियोजनाओं में पैसा न लगाकर छोटी छोटी विकास की वह योजनाएं लागू हों जिनसे प्रकृति का सहअस्तित्व का सिद्धांत न बाधित हो, तभी मानव सुख पूर्वक इस धरती पर जीवनयापन कर सकेगा।

विकास के नाम पर अभी तक हमारी अपनी जो स्थायी पूँजी या समृद्धि थी, उसको सतही या कृत्रिम सुख पाने के लिए बेचने व नष्ट करने का काम किया है। सोने की चिड़िया देश को इसलिए कहा जाता था क्योंकि देश में मिटटी, पानी, हवा यानी जंगल जीवंत हुआ करते थे। हमारे पूर्वज इनको ही स्थायी संपत्ति मानते थे, न कि कागज़ के छोटे व बड़े  टुकड़ो को। इस बात के कई उदाहरण मौजूद है कि प्रकृति की रक्षा के लिए लोगो ने कितने  और किस किस तरह के प्रत्यन नहीं किये । भारत में जहा पेड़ों, नदियों एवं पशुओं की पूजा कि जाती है वहां पर विश्व के 30 सबसे ज्यादा वायु प्रदूषित शहरो में 22 शहर भारत के हैं। शायद यही कारण है कि गोवा, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र आदि राज्यों में कोरोना से पीड़ित तमाम मरीज़ ऑक्सीजन के न होने के कारण काल के ग्रास में चले गए।  

आज अस्पतालों में ऑक्सीजन की कमी का एक कारण यह भी है, कि अस्पतालों की परिधि में पेड़ पौधे मरीज़ो की संख्या से हिसाब से ना के बराबर है। यानी प्राकृतिक ऑक्सीजन मरीज़ो व कर्मचारियों के हिसाब से उपलब्ध नहीं है। एक मानव एक वर्ष में लगभग 9.5  टन हवा में सांस लेता है | लेकिन ऑक्सीजन केवल द्रव्यमान से उस वायु का लगभग 23 प्रतिशत होता है, और हम प्रत्येक सांस से ऑक्सीजन का एक तिहाई से थोड़ा अधिक ही निकालते हैं। अतः यह प्रति वर्ष कुल 740  किलो ऑक्सीजन होती है । इतनी ऑक्सीजन मोटे तौर पर सात या आठ पेड़ों से प्राप्त हो सकती है। इससे हम अनुमान लगा सकते है, कि किस जगह कितने पेड़ पौधों की जरूरत होगी। अस्पतालों में ऑक्सीजन की आवश्यकता इसलिए भी अधिक होती है क्योंकि वाणिज्यिक स्थानों व कार्यालयों  की तुलना में अस्पताल में अधिक बार वायु परिवर्तन की आवश्यकता होती है। कारण अस्पतालों में सफाई के लिए बहुत ज्यादा रासायनिक उत्पादों का इस्तेमाल होता है।

अस्पतालों में पेड़ पोधो का होना इसीलिए भी जरूरी है क्योंकि पेड़ पौधों से फाइटोनाइड्स रोगाणुरोधी एलेलोकेमिक वाष्पशील कार्बनिक यौगिक निकलते हैं। फाइटोनसाइड्स में एंटीबैक्टीरियल और एंटीफंगल गुण होते हैं। जब लोग इन रसायनों में सांस लेते हैं, तो हमारे शरीर एक प्रकार की श्वेत रक्त कोशिका की संख्या और गतिविधि को बढ़ाकर प्रतिक्रिया करते हैं जिसे प्राकृतिक कोशिका हत्यारा या एनके कहा जाता है। ये कोशिकाएं हमारे शरीर में ट्यूमर और वायरस से संक्रमित कोशिकाओं को मार देती हैं। एनके सेल गतिविधि बढ़ने के कारण प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया भी मजबूत होती है। पेड़ पौधों द्वारा हज़ारों तरह के दिखाई न देने वाले फाइटोनसाइड्स निकलते है यह तक की सब्जियों के पौधों से भी ये कार्बनिक यौगिकों का उत्सर्जन होता है। ये तनाव, तंत्रिका तंत्र, अवसादरोधी, नींद, रक्त शर्करा आदि में भी फायदा पहुंचते है।  वैसे भी भारत में हर एलोपैथिक डॉक्टर कम से कम 1,511 लोगों की सेवा करता है, जो विश्व स्वास्थ्य संगठन के हर 1,000 लोगों पर एक डॉक्टर के मानदंड से बहुत अधिक है। प्रशिक्षित नर्सों की कमी और भी विकट है, जिसमें नर्स-से-जनसंख्या अनुपात 1:670 है, जो डब्ल्यूएचओ के 1:300 के मानदंड के विपरीत है। मानव विकास रिपोर्ट 2020 से पता चला है कि अस्पतालों में बेड की उपलब्धता के हिसाब से 167 देशो में से भारत का स्थान 155 पर है। यानी 5 बेड 10 हजार  लोगो पर। इससे देश के नीति निर्माताओं के बारे में पता चलता है कि किस तरह उन्होंने देश को विकास के पथ पर ले जाने का खाका खींच रखा है। यही कारण है कि आज देश में सिर्फ 28 पेड़ प्रति व्यक्ति है।  जबकि चीन में 102 , ब्राज़ील में 1414 कनाडा में 8943 अमेरिका में 716  व ऑस्ट्रेलिया में 3266  पेड़  प्रति व्यक्ति हैं। यानी देश को विकास के पथ पर ले जाने वाले लोगों ने विकसित देशों की नक़ल भी सही तरह से नहीं की। विकास के लिए निर्धारित नीतियों का ही परिणाम है कि आज हम ऑक्सीजन के लिए परेशान हैं। जिस देश की राजधानी में प्रति व्यक्ति एक पेड़ भी न हो, जो दुनिया के सबसे अधिक वायु प्रदूषित शहरो में एक हो, जिस शहर के बच्चे भी अस्थमा से पीड़ित हों वहाँ पर नई इमारतों के लिए हज़ारों पेड़ों की बलि दी जा रही हो | ऐसा विकास का मॉडल मैंने नहीं देखा। अब तो डॉक्टर भी मरीज़ों को फारेस्ट बाथिंग की सलाह देते है। अभी सांसो के लिए ऑक्सीजन के लिए परेशान है, कल पानी के लिए और यही हाल रहा तो भविष्य में अनाज के लिए मारामारी होगी। अतः जिस तरह वर्षा जल संरक्षण के लिए नियम बनाये गए उसी को ध्यान में रखते हुए अस्पतालों में 33 प्रतिशत से ज्यादा जगह पेड़ पौधों के लिए निर्धारित की जाय। देश में ग्रीन बिल्डिंग कानून के तहत किस तरह ग्रीन हॉस्पिटल बनाये जाते है और  किस तरह आई एस ओ सर्टिफिकेट लिए जाते है, यह सबको मालूम है।

आज जिस अदृश्य वायरस के कारण कोरोना मरीज़ों के शरीर में ऑक्सीजन की कमी के कारण जो मौतें हो रही है उनको लेकर न्यायालयों का सरकारों के लिए सख्त शब्दों का प्रयोग उचित है या अनुचित यह नीति निर्माताओं के विचार करने का प्रश्न है। आज पूरी दुनिया में जब मानवता की रक्षा के लिए ईकोसाइड जैसे कानूनों की मांग होने लगी है तब नदियों के गठजोड़, सड़कों, बांधों, खदानों आदि के नाम पर लाखो हेक्टेअर जंगलों को नष्ट करते जा रहे है। आज जरूरत है ईकोसाइड का आकलन करने की  एवं प्राकृतिक संसाधनों के साथ स्थाई विकास की राह पर चलने की। यानी बड़ी बड़ी परियोजनाओं में पैसा न लगाकर छोटी छोटी विकास की वह योजनाएं लागू हों जिनसे प्रकृति का सहअस्तित्व का सिद्धांत न बाधित हो, तभी मानव सुख पूर्वक इस धरती पर जीवन यापन कर सकेगा।

(गुंजन मिश्रा पर्यावरणविद हैं और उनका कार्यक्षेत्र बुंदेलखंड है। लेख में व्यक्त विचार उनके निजी हैं)