16वें वित्त आयोग के गठन की अधिसूचना जारी कर दी गई है। डॉ. अरविंद पानगड़िया इसके अध्यक्ष बनाए गए हैं। वित्त आयोग के कार्य क्षेत्र (टर्म्स ऑफ रेफरेंस) इस प्रकार हैंः-
i.करों से जमा होने वाली कुल राशि का केंद्र और राज्यों के बीच बंटवारा, जिसे संविधान के चैप्टर 1, पार्ट 12 के तहत विभाजित किया जा सकता है अथवा किया जाना है, साथ ही इस राशि में राज्यों का हिस्सा तय करना।
ii.कंसोलिडेटेड फंड ऑफ़ इंडिया में राज्यों के राजस्व में ग्रांट इन एड निर्धारित करने के सिद्धांत क्या होंगे और संविधान के अनुच्छेद 275 के तहत राज्यों को उनके राजस्व में ग्रांट इन एड के रूप में दी जाने वाली राशि क्या होगी, यह राशि इस अनुच्छेद के क्लॉज़ 1 में उल्लिखित उद्देश्यों के अलावा अन्य कार्यों के लिए है।
iii.राज्य के वित्त आयोग की सिफारिशों के आधार पर वहां की पंचायतों और नगर निगमों के संसाधनों के लिए राज्य के कंसोलिडेटेड फंड में कैसे वृद्धि की जाए।
वित्त आयोग के लिए जो कार्य क्षेत्र तय किए गए हैं, वह वही हैं जो संविधान के अनुच्छेद 280 में बताए गए हैं। 15वें वित्त आयोग के कार्य क्षेत्र के विपरीत 15वें आयोग की अधिसूचना में विवाद वाले संदर्भों को दूर रखा गया है। इससे आयोग को राष्ट्रीय प्राथमिकताओं को हासिल करने के लिए संसाधन आवंटित करने में आसानी हो सकती है। पूर्व के वित्त आयोगों ने गरीबी, आबादी और भौगोलिक क्षेत्र को प्रमुख बेंचमार्क के तौर पर माना था। 15वें वित्त आयोग ने वन और पारिस्थितिकी को 10% वेटेज दिया था।
13वें वित्त आयोग ने जल संरक्षण और प्रबंधन के प्रयासों का विशेष उल्लेख किया था। उसने कहा था कि विभिन्न सेक्टर के बीच और एक सेक्टर के विभिन्न क्षेत्रों के बीच पानी का अविवेकपूर्ण वितरण, पानी के इस्तेमाल की कम एफिशिएंसी, जल संसाधन की प्लानिंग और उनके विकास के प्रति खंडित नजरिया, पानी के इस्तेमाल के बदले कम यूजर चार्ज और बहुत कम रिकवरी देश में जल संसाधनों के प्रबंधन की प्रमुख समस्याओं में हैं। राज्यों के स्तर पर एक वैधानिक स्वायत्त संस्था का गठन इन मुद्दों के समाधान में मदद कर सकता है।
हमारा सुझाव है कि हर राज्य में एक जल नियामक प्राधिकरण (वाटर रेगुलेटरी अथॉरिटी) का गठन किया जाए और पानी के लिए रिकवरी का एक न्यूनतम शुल्क तय किया जाए। इस प्रस्तावित नियामक प्राधिकरण को निम्नलिखित कार्यों का जमा दिया जा सकता हैः-
i)घरेलू, कृषि, उद्योग तथा अन्य कार्यों में इस्तेमाल होने वाले पानी का एक टैरिफ सिस्टम और शुल्क तय किया जाए और उसका नियमन किया जाए।
ii) विभिन्न श्रेणियों में और एक श्रेणी के विभिन्न क्षेत्रों में होने वाले इस्तेमाल में पानी के वितरण की पात्रता तय करना और उसे रेगुलेट करना।
iii) जल क्षेत्र की लागत और राजस्व की समय-समय पर समीक्षा तथा इसकी मॉनिटरिंग करना।
आयोग ने इस उद्देश्य के लिए 5000 करोड़ रुपए आवंटित किए थे। हालांकि इसका कोई बड़ा प्रभाव नहीं पड़ा और ना ही आगे चलकर उस दिशा में कोई प्रयास हुआ। जो भी हो, पानी उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों में सबसे प्रमुख है।
प्राकृतिक संसाधनों, खासकर मिट्टी और पानी का जिस तेजी से क्षरण हो रहा है, वह गंभीर चिंता का विषय है। देश के अनेक हिस्सों में नीति निर्माता इसे लेकर चिंतित हैं तो किसान भी कृषि के भविष्य को लेकर पसोपेश में हैं। वे इस बात को समझते हैं कि इस समस्या के समाधान के लिए व्यक्तिगत रूप से वे ज्यादा कुछ करने की स्थिति में नहीं हैं। इस स्थिति को सुधारने के लिए राज्य के स्तर पर बड़े नीतिगत कदमों की जरूरत है।
ऐसा करने में भारत की राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं कभी ख्याल रखा जाना चाहिए, जिनमें प्रमुख हैंः-
-वर्ष 2027 तक एक करोड़ हेक्टेयर जमीन में प्राकृतिक खेती शुरू करना।
-वर्ष 2030 तक खराब हो चुकी 2.6 करोड़ हेक्टेयर जमीन को सुधार कर खेती योग्य बनाना (यूएनसीसीडी कॉप 2019)।
-वर्ष 2024 तक 41 लाख हेक्टेयर भूमि पर फसल अपशिष्ट प्रबंधन शुरू करना (आउटकम बजट 2023-24)
-भारत के 33 प्रतिशत भौगोलिक क्षेत्र में वनों का विस्तार करना और पेड़-पौधे लगाना (एनएपीसीसी 2008)।
-वर्ष 2030 तक 2.5 से 3 अरब टन कार्बन डाइऑक्साइड के बराबर अतिरिक्त कार्बन सिंक का इंतजाम करना (यूएनएफसीसीसी 2015)।
-वर्ष 2070 तक कार्बन न्यूट्रलिटी हासिल करना।
राज्यों को अतिरिक्त संसाधनों के आवंटन के बगैर इन लक्ष्यों को हासिल करना मुमकिन नहीं है। वित्त आयोग प्राकृतिक संसाधनों के सतत संरक्षण के लिए राज्यों को संसाधन आवंटित करने में एक महत्वपूर्ण माध्यम हो सकता है। वित्त आयोग पानी और मिट्टी जैसे संसाधनों का क्षरण करने वाले राज्यों को दंडित करे अथवा नहीं, यह बहस का विषय हो सकता है, लेकिन यह स्पष्ट होना चाहिए कि जो राज्य कृषि पारिस्थितिकी, पानी, नमी और मृदा संरक्षण को विभिन्न योजनाओं, नीतिगत पहल और सिविल सोसाइटी के प्रयासों से बढ़ावा देंगे, उन्हें पुरस्कृत किया जाएगा। इसके मानदंड और डिजाइन तैयार करने का जिम्मा आयोग पर ही छोड़ दिया जाना चाहिए। कहा जा सकता है कि वित्त आयोग की गणनाओं में कृषि पारिस्थितिकी के साथ प्राकृतिक संसाधनों और वनों का संरक्षण को ज्यादा तवज्जो मिलनी चाहिए।
(लेखक भारत सरकार के पूर्व खाद्य एवं कृषि सचिव हैं)