मौसम के झटकों और वैश्विक आपूर्ति बाधाओं ने बढ़ाई महंगाई: क्रिसिल रिपोर्ट

खाद्य कीमतों में अस्थिरता से निपटने के लिए दीर्घकालिक समाधान की आवश्यकता पर जोर। सस्टेनेबिलिटी सुनिश्चित करने के लिए संरचनात्मक सुधार जरूरी।

भारत में खाद्य महंगाई एक स्थायी चुनौती बन गई है। प्रमुख फसलों में यह 2021 से 2024 के बीच तेजी से बढ़ी है। रेटिंग एजेंसी क्रिसिल की नई रिपोर्ट इस प्रवृत्ति के पीछे कई कारणों को उजागर करती है और दीर्घकालिक सस्टेनेबिलिटी सुनिश्चित करने के लिए मजबूत संरचनात्मक सुधारों की आवश्यकता पर जोर देती है। इसका कहना है कि 2021 से 2024 के दौरान औसत खाद्य मुद्रास्फीति 2017 से 2020 की तुलना में दोगुनी रही। इसी दौरान खाद्य उत्पादन वृद्धि की दर भी कम हुई है। मौसम के झटकों, वैश्विक आपूर्ति बाधाओं और बढ़ती घरेलू मांग ने मिलकर इस समस्या को बढ़ा दिया है।

हाल के वर्षों में खाद्य मुद्रास्फीति का समग्र उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआई) में योगदान काफी बढ़ गया है। वर्ष 2022 में महंगाई में इसका योगदान 27% था, जो वर्ष 2023 में 55% और वर्तमान वर्ष में 67% हो गया है। खाद्य कीमतों में वृद्धि व्यापक रही है। विशेष रूप से सब्जियों की मुद्रास्फीति रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गई है, जो अक्टूबर 2024 में औसतन 42.2% दर्ज की गई। पिछले तीन वित्तीय वर्षों में सब्जियों की महंगाई में काफी अस्थिरता देखी गई। पिछले 12 महीनों में से सात में इसमें दहाई अंकों की वृद्धि हुई।

गेहूं, दालों और तिलहन जैसी प्रमुख फसलों की उत्पादन वृद्धि में गिरावट आई, जिससे आपूर्ति श्रृंखला और बाधित हुई। यहां तक कि गन्ना और चावल, जिनके उत्पादन आंकड़े तुलनात्मक रूप से बेहतर थे, वे भी ऊंची वैश्विक कीमतों और घरेलू मांग के प्रभाव से बच नहीं सके।

बढ़ती मुद्रास्फीति के कारण
क्रिसिल के अनुसार, भारत के खाद्यान्न उत्पादन की वृद्धि वर्ष 2021-2024 के दौरान औसतन 2.8% तक धीमी हो गई, जो वर्ष 2017-2020 के दौरान 4.3% थी। बागवानी उत्पादन में वृद्धि ने थोड़ी बेहतर प्रगति दिखाई, फिर भी पिछले दशक की तुलना में धीमी रही। 

उत्पादन वृद्धि में गिरावट का मुख्य कारण फसल उत्पादकता में कमी है, जिसे जलवायु परिवर्तन ने नकारात्मक रूप से प्रभावित किया है। उदाहरण के लिए, गेहूं की पैदावार हीटवेव के कारण प्रभावित हुई है। गेहूं की उत्पादकता में 2022 के दौरान 15-25% की कमी आई। सीमित सिंचाई कवरेज के कारण विशेष रूप से दालों और सब्जियों पर भी प्रभाव पड़ा है।

वैश्विक आपूर्ति बाधा भी एक प्रमुख कारण है। वैश्विक खाद्य मूल्य सूचकांक वित्तीय वर्ष 2021 और 2024 के बीच 9.5% बढ़ा, जबकि वित्तीय वर्ष 2017 से 2020 में यह मात्र 0.7% बढ़ा था। रूस-यूक्रेन संघर्ष, प्रतिकूल मौसम की घटनाओं और शिपिंग में देरी जैसी चुनौतियों ने वैश्विक खाद्य आपूर्ति श्रृंखला को बाधित किया। चावल, मक्का और तिलहन जैसी प्रमुख वस्तुओं की कीमतों में भारी वृद्धि हुई। दक्षिण-पूर्व एशिया में श्रमिकों की कमी और मौसम से संबंधित व्यवधानों के कारण वैश्विक तिलहन की कीमतों में वृद्धि हुई।

मांग-आपूर्ति का अंतर भी एक बड़ा कारण रहा है। जनसंख्या वृद्धि और बदलते खपत पैटर्न के कारण घरेलू मांग में वृद्धि हुई तो आपूर्ति की कमजोरियां और उजागर हुईं। इथेनॉल की मांग, जो गन्ना, चावल और मक्का पर बहुत अधिक निर्भर है, ने भी आपूर्ति की स्थितियों को प्रभावित किया।

जलवायु परिवर्तन की भूमिका
जलवायु परिवर्तन भारत की कृषि चुनौतियों के पीछे एक महत्वपूर्ण कारक के रूप में उभरा है। असमान मानसून पैटर्न, बढ़ते तापमान और चरम मौसम की घटनाओं ने फसल की पैदावार और उत्पादन चक्र को बाधित किया है। उदाहरण के लिए, 2023 में मानसून के मौसम में काफी भिन्नता देखी गई। अगस्त में भारी कमी के बाद सितंबर में अधिक बारिश हुई। इस प्रकार की भिन्नताएं न केवल पैदावार को कम करती हैं, बल्कि फसलों की गुणवत्ता को भी प्रभावित करती हैं।

कुछ फसलें जलवायु परिवर्तन के प्रति विशेष रूप से संवेदनशील हैं। जैसे, दालों के लिए केवल 5% कृषि क्षेत्र में सिंचाई की सुविधा है। यह वर्षा में उतार-चढ़ाव के प्रति अत्यधिक संवेदनशील हैं। इसके विपरीत गन्ना, जिसके लगभग 99% क्षेत्र में सिंचाई की व्यवस्था उपलब्ध है, बेहतर स्थिति में है। हालांकि चरम मौसम की घटनाओं की बढ़ती फ्रीक्वेंसी सभी फसलों के लिए जोखिम पैदा कर रही है।

सरकार ने खाद्य पदार्थों की कीमतों में उतार-चढ़ाव को नियंत्रित करने के लिए कई उपाय लागू किए हैं। इनमें खुले बाजार की बिक्री के माध्यम से खाद्य स्टॉक जारी करना, निर्यात पर प्रतिबंध लगाना और जमाखोरी को रोकने के लिए स्टॉक सीमाएं शामिल हैं।

सरकार ने जलवायु-सहिष्णु बीजों को बढ़ावा देना शुरू किया दिया है, लेकिन उन्हें बड़े पैमाने पर अपनाने की आवश्यकता है। किसानों को पानी और उर्वरकों का कुशल उपयोग सिखाने की आवश्यकता है। उन्हें मौसम से संबंधित जोखिमों को बेहतर तरीके से निपटने के लिए सटीक पूर्वानुमान उपलब्ध कराना भी महत्वपूर्ण है। इसके अलावा, नुकसान को कम करने के लिए लॉजिस्टिक्स और परिवहन अवसंरचना में निवेश जरूरी है।

इथेनॉल उत्पादन से सबक
इथेनॉल ब्लेंडिंग बढ़ाने के दबाव से गन्ना, चावल और मक्के की मांग बढ़ी है। किसानों ने भी इनका रकबा बढ़ाया है। लेकिन इथेनॉल उत्पादन की बढ़ती मांग ने भूमि और जल संसाधनों पर दबाव डाला है। खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करते हुए इथेनॉल उत्पादन को संतुलित करना महत्वपूर्ण है। इथेनॉल की बढ़ती मांग नई चुनौतियां पेश कर रही है। 2025 तक 20% ब्लेंडिंग लक्ष्य को पूरा करने के लिए उत्पादन में उल्लेखनीय वृद्धि की आवश्यकता होगी, जिससे भूमि और जल संसाधनों पर और अधिक दबाव पड़ सकता है।

रिपोर्ट में कहा गया है कि खाद्य मुद्रास्फीति, जलवायु परिवर्तन और वैश्विक आपूर्ति व्यवधानों से निपटने के लिए बहुआयामी दृष्टिकोण की आवश्यकता है। क्रिसिल का मानना है कि सही नीतिगत सुधारों और तकनीकी हस्तक्षेपों से भारत खाद्य मुद्रास्फीति को कम करने और सस्टेनेबल कृषि तंत्र बनाने की दिशा में अग्रसर हो सकता है। क्रिसिल की रिपोर्ट यह भी बताती है कि भारत घरेलू अक्षमताओं और वैश्विक चुनौतियों का समाधान करके न केवल खाद्य मुद्रास्फीति को नियंत्रित कर सकता है, बल्कि दीर्घकालिक खाद्य सुरक्षा और आर्थिक स्थिरता भी सुनिश्चित कर सकता है।