देश के पशुपालक किसान इस समय लंपी स्किन रोग (एलएसडी) से बुरी तरह प्रभावित हैं। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 31 अगस्त तक 49,628 गौवंश की मौत इससे हो चुकी है। केंद्रीय पशुपालन और डेयरी विभाग के मुताबिक 12 राज्यों के 165 जिले इससे प्रभावित हैं और दो करोड़ से अधिक पशु इस बीमारी की चपेट में आने की आशंका में हैं। वहीं कृषि मंत्रालय के अधिकारियों के मुताबिक बीमारी 24 राज्यों में फैल चुकी है। यहां तक कि यह सुदूर अंडमान और निकोबार द्वीप समूह तक में इसके संक्रमण से गायों की मौत हो रही है। लेकिन इस भारी संकट के बावजूद राज्य सरकारें इसे महामारी घोषित नहीं कर रही हैं। यह स्थिति तब है जब इस बीमारी का कोई इलाज अभी नहीं है। हालांकि इसके लिए वैक्सीन इजाद कर ली गई है और अभी गोट और एंड शीप पॉक्स वैक्सीन पशुओं को लगाई जा रही है। यह वैक्सीन बीमारी से बचाव तो करती है लेकिन पूरी तरह से बचाव नहीं करती है।
केंद्रीय पशुपालन और डेयरी मंत्रालय के एक अधिकारी ने रूरल वॉयस को बताया कि अभी तक देश के 12 राज्यों में लंपी स्किन बीमारी फैल चुकी है। मंत्रालय ने एक कंट्रोल रूम भी बनाया है। राज्यों से उसे मिले आंकड़ों के मुताबिक 31 अगस्त, 2022 तक 49,628 गायों व गौवंश की मौत इस बीमारी से हुई है। बीमारी से 11.21 लाख पशु प्रभावित हैं और दो करोड़ 55 लाख से अधिक पशु ऐसे हैं जो बीमारी से प्रभावित हो सकने की आशंका की श्रेणी में है। वहीं अभी देश भर में इस बीमारी के 20,870 एपिसेंटर या हॉट स्पॉट हैं।
लंबी स्किन बीमारी से प्रभावित 12 राज्यों के 165 जिलों में सबसे अधिक 31 जिले राजस्थान में हैं। इसके बाद गुजरात के 26 जिले, पंजाब के 24 जिले, हरियाणा के 22 जिले, उत्तर प्रदेश के 21 जिले, जम्मू एवं कश्मीर के 18 जिले, हिमाचल प्रदेश के नौ जिले, मध्य प्रदेश के पांच जिले, उत्तराखंड के चार जिले, महाराष्ट्र के तीन जिले, गोवा का एक जिला और अंडमान एंड निकोबार का एक जिला लंपी स्किन रोग से प्रभावित है। वहीं भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) एक पदाधिकारी ने रूरल वॉयस को बताया कि देश के 24 राज्य इस बीमारी से प्रभावित हो चुके हैं। इसलिए पशुपालन मंत्रालय द्वारा जो आंकड़े दिये गये हैं बीमार पशुओं और मरने वाले पशुओं की संख्या उससे कहीं अधिक हो सकती है।
देश में लंपी स्किन रोग 2019 में सबसे पहले उड़ीसा में आया था। दुनिया में यह बीमारी सबसे पहले 1929 में अफ्रीका में आई थी। लेकिन 2000 में यह खाड़ी के देशों, इजराइल, यूरोप के देशों, रूस, बाल्कन देशों, बाग्लादेश, नेपाल समेत अधिकांश देशों में आ गई थी। जहां तक भारत का सवाल है तो 2019 में उड़ीसा में यह बीमारी आई लेकिन जिस तरह से महामारी का रूप इसने पिछले दो माह में लिया है वह पहले नहीं दिखा। यह इंसेक्ट के जरिये पशुओं में फैलती है। बीमार पशु के रक्त को लेकर मच्छर या मक्खी दूसरे पशु पर बैठता है और उसे संक्रमित कर देता है। जहां तक संक्रमित पशु के दूध का सवाल है तो संक्रमित पशु का दूध उत्पादन तेजी से गिरता है और अधिक बीमार होने पर वह दूध देना बंद कर देता है। बीमार पशु के दूध के सेवन पर वैज्ञानिकों का कहना है कि इसे उबाल कर ही उपयोग करना चाहिए।
यह अपने आप में एक दिलचस्प पहलू है कि सबसे पहले पूर्वी राज्य उड़ीसा में आने वाली यह बीमारी अभी देश के पूर्वी और दक्षिणी राज्यों में नहीं है लेकिन देश के पश्चिमी और उत्तर पश्चिमी और उत्तरी राज्यों में ज्यादा फैली गई है।
आईसीएआर के एनीमल साइंस विभाग के एक वरिष्ठ पदाधिकारी ने रूरल वॉयस के साथ एक बातचीत में कहा कि अभी लंपी स्किन रोग के इलाज का कोई प्रोटोकॉल नहीं है और स्थानीय स्तर पर अपनी समझ से ही चिकित्सक इलाज कर रहे हैं। पशुओं का टीकाकरण की इसका सही बचाव है। अभी पशुओं को जो टीका लगाया जा रहा है वह गोट एंड शीप पॉक्स वैक्सीन है। जो 60 फीसदी तक पशु को सुरक्षा देता है। पशुपालन मंत्रालय के मुताबिक अभी तक 65.16 लाख पशुओं को गोट पॉक्स वैक्सीन लग चुका है और अभी 24.84 लाख वैक्सीन उपलब्ध हैं। जबकि जरूरत 1.05 करोड़ से अधिक वैक्सीन की है। वहीं आईसीएआर के एक वरिष्ठ पदाधिकारी ने रूरल वॉयस को बताया कि करीब 80 फीसदी पशुओं का टीकाकरण ही इस बीमारी को समाप्त करने का उपाय है। इसके लिए 20 करोड़ टीकों की जरूरत पड़ेगी।
किसानों के लिए देश के बड़े हिस्से में संकट के रूप में आई यह बीमारी महामारी के स्तर पर है लेकिन अभी भी राज्य सरकारें इसे महामारी घोषित करने से बच रही हैं। ऐसा करने पर उन्हें वित्तीय संसाधानों पर बोझ बढ़ने की आशंका है। टीकाकरण के खर्च के बारे में पशुपालन विभाग के अधिकारी ने रूरल वॉयस को बताया कि इस खर्च में 60 फीसदी खर्च केंद्र वहन कर रहा है और 40 फीसदी खर्च राज्य दे रहे हैं। उक्त अधिकारी का कहना है कि जिस तरह से पहले एफएंडएम बीमारी के टीकाकरण समेत दो दूसरी बीमारियों के टीकाकरण का पूरा बोझ केंद्र ने उठाया है वही स्थिति लंपी स्किन रोग के टीकाकरण में बन रही है क्योंकि जिस स्तर पर यह बीमारी फैल रही है उसके नियंत्रण के लिए टीकाकरण की जरूरत है। वहीं एक्सपर्ट्स का कहना है कि मानसून सीजन के बीतने के बाद बीमारी का प्रकोप कम हो सकता है।