प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के व्हाइट हाउस में राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप से मिलने से कुछ घंटे पहले, अमेरिकी राष्ट्रपति ने विदेश व्यापार पर ‘फेयर एंड रेसिप्रोकल प्लान’ (उचित और पारस्परिक प्लान) की घोषणा की। इसमें उन्होंने पहली बार स्पष्ट रूप से भारत को निशाना बनाया। इससे पहले भारत परोक्ष रूप से तब निशाना बना जब राष्ट्रपति ट्रंप ने सभी देशों से स्टील और एल्युमीनियम आयात पर 25% शुल्क लगाने की घोषणा की। ये दोनों ऐसे उत्पाद हैं जिनमें अमेरिका भारत का सबसे बड़ा निर्यात बाजार है। लेकिन यह पहली बार था जब रेसिप्रोकल प्लान में भारत की पहचान विशेष रूप से एक ऐसे देश के रूप में की गई जो अमेरिका के हितों को प्रतिकूल रूप से प्रभावित कर रहा है। इस प्लान का घोषित उद्देश्य ‘अमेरिका के व्यापारिक संबंधों में निष्पक्षता बहाल करना’ और ‘नॉन-रेसिप्रोकल व्यापार व्यवस्था’ का मुकाबला करना है।
इसे शुरू करने के पीछे का तर्क समझाते हुए राष्ट्रपति ज्ञापन (प्रेसिडेंशियल मेमोरेंडम) में कहा गया कि अमेरिका दुनिया की सबसे खुली अर्थव्यवस्थाओं में से एक है, जहां आयात शुल्क दुनिया में सबसे कम है। अमेरिका अन्य प्रमुख वैश्विक अर्थव्यवस्थाओं की तुलना में आयात पर कम बाधाएं लगाता है, लेकिन इसके साझीदार देश अमेरिका से होने वाले आयात पर अधिक शुल्क लगाते हैं। इसके अलावा अमेरिकी उत्पादों को अनुचित और भेदभावपूर्ण बाधाओं या वैट जैसे करों का सामना करना पड़ता है, जो व्यापारिक साझीदार देश वास्तव में अमेरिका की कंपनियों, श्रमिकों और उपभोक्ताओं पर लगाते हैं। दूसरे शब्दों में अमेरिका के व्यापारिक साझीदार अपने बाजारों को अमेरिकी निर्यात के लिए बंद रखते हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति के अनुसार उन देशों का ऐसा करना अनुचित है और इसके कारण अमेरिका का सालाना व्यापार घाटा लगातार बढ़ रहा है। इसे रेसिप्रोकल टैरिफ (पारस्परिक शुल्क) का उपयोग करके सुधारा जा सकता है।
भारत का जिक्र करते हुए फेयर एंड रिसिप्रोकल प्लान कहता है कि भारत में कृषि उत्पादों पर औसत टैरिफ 39% है, जबकि उन्हीं उत्पादों पर अमेरिका का औसत आयात टैरिफ केवल 5% है। इसमें यह भी कहा गया है कि भारत मोटरसाइकिलों पर 100% आयात शुल्क लगाता है, जबकि भारतीय मोटरसाइकिलों पर अमेरिका का आयात शुल्क केवल 2.4% है। इन उदाहरणों के जरिए ट्रंप प्रशासन ने भारत और अमेरिका के बीच रेसिप्रोकल टैरिफ के महत्व को स्थापित करने का प्रयास किया है। अमेरिकी राष्ट्रपति ने संकेत दिया है कि वे यह सुनिश्चित करेंगे कि रेसिप्रोकल टैरिफ लागू किए जाएं।
अमेरिकी कदम का असर
भारत को कृषि क्षेत्र में रेसिप्रोकल ट्रेड स्वीकार करने के लिए बाध्य करने का मतलब है कि या तो भारत को कृषि उत्पादों पर अपना टैरिफ अमेरिकी स्तर के बराबर लाना होगा, या फिर भारत से आयात करने वाले कृषि उत्पादों पर अमेरिका ऊंचे टैरिफ लगाएगा। दोनों में से कोई भी कदम अनुचित व्यापार व्यवहार कहलाएगा, क्योंकि ऐसा करके अमेरिका विश्व व्यापार संगठन (डब्लूटीओ) के बहुपक्षीय व्यापार नियमों का उल्लंघन करेगा। इस संगठन के सदस्य देश तीन दशक पहले की गई अपनी प्रतिबद्धताओं के अनुरूप टैरिफ लगाते हैं। वे देश न तो अपने टैरिफ को एकतरफा बदल सकते हैं और न ही अन्य डब्लूटीओ सदस्य देशों को ऐसा करने के लिए मजबूर कर सकते हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि डब्लूटीओ नियमों के तहत, विकासशील देशों को ‘विशेष और अलग व्यवहार’ का लाभ मिलता है। यह इन देशों को विकसित देशों की तुलना में आयात पर अधिक टैरिफ लगाने की अनुमति देता है। दूसरे शब्दों में, विकासशील देश डब्लूटीओ नियमों के तहत ही गैर-पारस्परिकता (नॉन-रेसिप्रोसिटी) के लाभ प्राप्त करते हैं।
ट्रंप प्रशासन की साझीदार देशों पर अपनी शर्तें एकतरफा थोपने की प्रवृत्ति निश्चित रूप से प्रस्तावित द्विपक्षीय समझौता वार्ताओं के दौरान भारत को नुकसान में डाल देगी। अब तक हुई सभी द्विपक्षीय मुक्त व्यापार वार्ताओं में भारत अपने साझीदार देशों से प्रमुख कृषि उत्पादों को बाहर रखने में सफल रहा ताकि छोटे किसानों को उचित सुरक्षा मिल सके और उन्हें पश्चिमी जगत की विशाल एग्री-बिजनेस कंपनियों से अनुचित प्रतिस्पर्धा का सामना न करना पड़े। हालांकि अतीत के विपरीत इस बार भारत के लिए अनाज जैसे प्रमुख कृषि उत्पादों को द्विपक्षीय ट्रेड वार्ताओं के दायरे से बाहर रखना मुश्किल होगा। क्योंकि दोनों देशों के नेताओं के संयुक्त बयान में यह उल्लेख किया गया है कि दोनों देश कृषि वस्तुओं का व्यापार बढ़ाने के लिए मिलकर काम करेंगे।
रेसिप्रोकल टैरिफ लगाया जाना भारत के लिए चिंता की बात है, क्योंकि इसका कृषि क्षेत्र निशाने पर है। इस नीति के जरिए राष्ट्रपति ट्रंप भारत के कृषि बाजारों को अमेरिकी एग्री-बिजनेस कंपनियों के लिए खोलने का इरादा रखते हैं। ये कंपनियां खासकर अमेरिकी सरकार द्वारा दी जाने वाली लगातार बढ़ती सब्सिडी के कारण वैश्विक कृषि बाजार पर हावी रही हैं। यह बात सब जानते हैं कि कृषि क्षेत्र में अमेरिकी सरकार की भारी सब्सिडी से बाजार विकृत होते हैं, जिससे विकासशील देशों के लिए वैश्विक बाजार में प्रवेश करना या अपने घरेलू बाजारों की रक्षा करना असंभव हो जाता है। खासकर आईएमएफ और विश्व बैंक के 1990 के दशक में अधिकांश देशों को अपनी अर्थव्यवस्थाओं को उदार बनाने के लिए मजबूर करने के बाद। डब्लूटीओ के गठन से पहले हुई बहुपक्षीय व्यापार वार्ताओं में यह अपेक्षा की गई थी कि कृषि सब्सिडी को नियंत्रित किया जाएगा। हालांकि इसके विपरीत अमेरिका की कृषि सब्सिडी 1995 के 61 अरब डॉलर से बढ़कर 2022 में 217 अरब डॉलर हो गई। इसके अलावा, जहां भारत में कृषि सब्सिडी का उद्देश्य घरेलू खाद्य सुरक्षा और ग्रामीण आजीविका को सुनिश्चित करना है, वहीं अमेरिका में कृषि सब्सिडी का लाभ वैश्विक स्तर पर बिजनेस करने वाली कंपनियों को मिलता है।
ट्रंप प्रशासन की तरफ से रेसिप्रोकल टैरिफ का उपयोग करके भारत के घरेलू कृषि बाजार को खोलने का दबाव यहां के छोटे किसानों और बड़ी अमेरिकी एग्री-बिजनेस कंपनियों के बीच अनुचित प्रतिस्पर्धा को जन्म देगा। यह पहले से ही संकटग्रस्त भारतीय कृषि के लिए विनाशकारी सिद्ध होगा और इसके परिणामस्वरूप ग्रामीण भारत में बड़े पैमाने पर आजीविका के नुकसान के कारण आर्थिक अस्थिरता उत्पन्न होगी।
भारत जैसे बड़े देश के लिए यह कतई उचित नहीं होगा कि वह खाद्यान्न उत्पादन में कड़ी मेहनत से अर्जित आत्मनिर्भरता को छोड़ दे। इसने न केवल अमेरिका से गेहूं के आयात पर निर्भरता समाप्त करने में सहायता की, बल्कि भारत की घरेलू नीतियों में अमेरिका के अनुचित हस्तक्षेप से भी बचाया। 1960 के दशक के मध्य से भारत में प्रत्येक सरकार ने देश की कृषि और कृषि पर निर्भर विशाल कार्यबल की दृढ़ता से रक्षा की है, और मोदी सरकार को इस स्थिति को बनाए रखना सुनिश्चित करना चाहिए। यदि ऐसा नहीं किया गया तो इसके आर्थिक और राजनीतिक परिणाम अत्यधिक गंभीर हो सकते हैं।
(लेखक जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के रिटायर्ड प्रोफेसर और काउंसिल फॉर सोशल डेवलपमेंट में प्रतिष्ठित प्रोफेसर हैं)