एक बार फिर केंद्रीय बजट का समय आ गया है। महत्वपूर्ण बात यह है कि इस बार का बजट 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले का आखिरी पूर्ण बजट होगा। अगर नरेंद्र मोदी सरकार आम चुनाव से पहले रोजगार और सस्ते आवास को बढ़ावा देना चाहती है तो इसके लिए उसे अगले वित्त वर्ष में ग्रामीण क्षेत्र पर खर्च करीब 50% बढ़ाना पड़ेगा।
वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण 1 फरवरी को वित्त वर्ष 2120 का बजट पेश करने से पहले विभिन्न पक्षों के साथ बातचीत कर रही हैं। भारत का वित्त वर्ष 1 अप्रैल से शुरू होता है और अगले साल 31 मार्च को खत्म होता है।
सरकार ने मौजूदा वित्त वर्ष के लिए ग्रामीण विकास मंत्रालय को 1.36 लाख करोड़ रुपए का आवंटन किया था लेकिन वास्तविक खर्च 1.60 लाख करोड़ रुपए से अधिक हो सकता है। यह बढ़ा हुआ खर्च ग्रामीण क्षेत्र में महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) की अधिक मांग के चलते है। देश के ग्रामीण क्षेत्र पर बढ़ती कीमतों का दबाव था। इसके साथ गैर कृषि क्षेत्र में नौकरियों के अवसर भी कम थे। इससे लोग सरकार की इस रोजगार गारंटी योजना में जाने के लिए मजबूर हुए।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी ने 2019 में दूसरी बार राष्ट्रीय चुनाव जीते थे। मोदी आजादी के बाद सबसे लोकप्रिय नेताओं में एक बनकर उभरे हैं, लेकिन अर्थव्यवस्था को संभालने में उनका रिकॉर्ड मिश्रित रहा है। बढ़ती बेरोजगारी के चलते उनकी आलोचना भी होती रही है।
निजी थिंक टैंक सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) के अनुसार मौजूदा वित्त वर्ष के अधिकतर महीनों में ग्रामीण बेरोजगारी दर 7% से अधिक रही है। ऐसी संस्था का आकलन है कि अक्टूबर में ग्रामीण बेरोजगारी दर 8.04% थी।
मौजूदा वर्ष में सरकार ने पहले रोजगार गारंटी योजना के लिए 73,000 करोड़ रुपए का प्रावधान किया। आवास योजना के लिए 20,000 करोड़ रुपए का प्रावधान था। ग्रामीण विकास मंत्रालय की वेबसाइट के अनुसार सरकार रोजगार गारंटी योजना पर अभी तक 63,260 करोड़ रुपए खर्च कर चुकी है।
2022-23 में ग्रामीण विकास विभाग को 1,35,944 करोड़ रुपए आवंटित किए गए, जो 2021-22 के संशोधित अनुमानों की तुलना में 11% कम है। भूमि संसाधन विभाग को 2259 करोड़ रुपए का आवंटन किया गया जो 2021-22 के संशोधित अनुमानों से 52% ज्यादा है।
लेकिन ग्रामीण अर्थव्यवस्था आज भी संकट में है। महंगाई की मार बहुत ज्यादा है और वास्तविक मजदूरी कम हुई है। इन दोनों का नतीजा खर्च में गिरावट है। जब सरकार अगले केंद्रीय बजट की तैयारी कर रही है, अर्थशास्त्रियों का कहना है कि इस समस्या पर तत्काल फोकस करने की जरूरत है। कोविड-19 लॉकडाउन के दौरान ग्रामीण क्षेत्र ने काफी मदद की थी। तब भारत की जीडीपी को कृषि क्षेत्र ने काफी हद तक संभाल लिया था। जो मजदूर शहरों से अपने गांव में लौटे थे उन्हें रोजगार देने के लिए सरकार ने मनरेगा का खर्च भी बढ़ाया था।
एक तरफ समग्र अर्थव्यवस्था में सुधार दिख रहा था तो दूसरी तरफ से ग्रामीण भारत लगातार चुनौतियों का सामना कर रहा था। इस वर्ष से महंगाई राष्ट्रीय समस्या बनी रही लेकिन खाने पीने की चीजों के ज्यादा दाम ने ग्रामीण भारत को अधिक परेशान किया। ग्रामीण क्षेत्र में खुदरा महंगाई शहरों की तुलना में पूरे साल ज्यादा रही। बड़ी बात यह थी कि मजदूरी उस अनुपात में नहीं बढ़ी।
मनरेगा को सितंबर 2005 में यूपीए सरकार ने लागू किया था। उसका मकसद देश के सबसे गरीब वर्ग की मदद करना था। मनरेगा ग्रामीण क्षेत्र के गरीबों के लिए एक सुरक्षा जाल की तरह है। इसके तहत रजिस्टर्ड परिवारों को साल में 100 दिनों के रोजगार की गारंटी दी जाती है।
मनरेगा एक तरह से बेहतर अर्थशास्त्र भी है। इन दिनों यूपीआई के माध्यम से लोगों के खातों में किसी न किसी स्कीम के तहत पैसे दिए जा रहे हैं। लेकिन मनरेगा के तहत मिलने वाले रोजगार से ग्रामीण इन्फ्रास्ट्रक्चर मजबूत होता है। हालांकि राजनीतिक विरोधियों ने मनरेगा का काफी मजाक उड़ाया लेकिन विवेक देबराय की अध्यक्षता वाली प्रधानमंत्री मोदी की आर्थिक सलाहकार परिषद ने हाल ही सुझाव दिया कि सरकार को शहरी क्षेत्रों में भी बेरोजगारों के लिए रोजगार गारंटी योजना लानी चाहिए।
परिषद ने देश में असमानता कम करने के मकसद से यूनिवर्सल बेसिक इनकम और सामाजिक क्षेत्र के लिए अधिक फंड के आवंटन का सुझाव भी दिया है। वित्त वर्ष 2022 में सरकार ने मनरेगा के लिए 73000 करोड़ रुपए का बजटीय प्रावधान किया, लेकिन ज्यादा मांग के चलते अंततः उसे 98000 करोड़ रुपए खर्च करने पड़े।
हर साल औसतन तीन करोड़ परिवार मनरेगा के तहत काम की तलाश करते हैं। इसमें सक्रिय मजदूरों की संख्या 15 करोड़ से अधिक है। मई 2022 के 3.7 करोड़ की तुलना में जून 2022 में लगभग 3.16 करोड़ परिवारों ने मनरेगा के तहत काम की मांग की। यानी एक महीने में इसमें 2.9% की वृद्धि हुई। इससे पता चलता है कि श्रम बाजार में रिकवरी धीमी है।
हालांकि जून 2021 की तुलना में जून 2022 में मनरेगा के तहत मांग कुछ कम थी। 2021 में महामारी के चलते इसकी मांग और अधिक थी। मनरेगा के नवीनतम आंकड़े सीएमआई के बेरोजगारी के आंकड़ों से भी मेल खाते हैं। इसके मुताबिक मई में बेरोजगारी दर 7.12% थी जो जून 2022 में बढ़कर 7.8% हो गई।
जून 2022 में ग्रामीण क्षेत्रों में बेरोजगारी दर 8.03 प्रतिशत रही जो मई में 6.62% थी। इसके विपरीत शहरी क्षेत्रों में बेरोजगारी दर मई के 8.21% की तुलना में जून में घटकर 7.3% रह गई। मनरेगा में 15.51 करोड मजदूर पंजीकृत हैं। इस तरह 17 वर्षों के दौरान यह योजना एक महत्वपूर्ण सामाजिक सुरक्षा कवच बनकर उभरी है।
हालांकि इसका असर असमान रहा है। इस योजना का मकसद जरूरतमंद राज्यों में गरीबी दूर करने के साथ अपेक्षाकृत संपन्न राज्यों में संपत्ति निर्माण करना है। यहां इस बात का उल्लेख करना अनावश्यक नहीं होगा कि ग्रामीण विकास और पंचायती राज पर संसद की स्थाई समिति ने मनरेगा को अधिक महिला केंद्रित बनाने की सिफारिश की है। इसके लिए उसने ऐसे कार्यों को इसमें शामिल करने का सुझाव दिया है जिन्हें महिलाएं कर सकती हैं।
इस सुझाव का आधार यह है कि बीते 5 वर्षों के दौरान योजना के तहत 50% से अधिक भागीदारी महिलाओं की ही रही है। सुझाव पर अमल से महिलाओं का आर्थिक सशक्तीकरण भी होगा। समिति का सुझाव है कि महिलाओं के लिए खासकर कृषि से संबंधित रोजगार में आजीविका के अवसर तलाशे जाने चाहिए। महिलाओं को व्यक्तिगत रूप से ही नहीं बल्कि स्वयं सहायता समूह के रूप में भी नए अवसर मुहैया कराए जाने चाहिए ताकि उनकी आमदनी बढ़ सके।
मनरेगा एक मांग आधारित योजना है। इस योजना में पुरुषों की तुलना में महिलाएं अधिक भागीदारी बताती है कि उन्हें अतिरिक्त आय की आवश्यकता अधिक है। भारत में महिलाओं की श्रमबल भागीदारी (लेबर फोर्स पार्टिसिपेशन) बहुत कम है। यह योजना इस अनुपात को बढ़ाने का माध्यम भी बन सकती है। गांव में पुरुष जब काम की तलाश में शहर चले जाते हैं तब महिलाएं मनरेगा योजना में काम करती हैं।
कृषि वैल्यू चेन में सभी पक्षों को टैक्स इंसेंटिव, कृषि इनपुट पर वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) खत्म करना, पीएम किसान इंसेंटिव बढ़ाना और कृषि कमोडिटी का न्यूनतम समर्थन मूल्य फार्म गेट की दर के बराबर तय करना- यह सब कुछ ऐसी सिफारिशें हैं जो वित्त मंत्री को 2023-24 के बजट के लिए मिली हैं।