पांच साल और गन्ना मूल्य में बढ़ोतरी केवल 35 रुपये, छठे साल में दाम घोषित होने का इंतजार, ऊपर से कई मिलों द्वारा भुगतान में साल भर तक की देरी। इस तरह की फसल किसी भी किसान को आर्थिक संकट में डालने के लिए काफी है। यह हकीकत है उत्तर प्रदेश के उन करीब 45 लाख गन्ना किसानों की जिनके लिए राज्य सरकार गन्ने का राज्य परामर्श मूल्य (एसएपी) तय करती है। प्रदेश की भाजपा सरकार 2017 में सत्ता में आई थी। उसने पहले सीजन (2017-18) में गन्ने के एसएपी में 10 रुपये प्रति क्विंटल की बढ़ोतरी की थी। उसके बाद तीन साल एसएपी को फ्रीज रखा और सरकार के कार्यकाल के अंतिम साल में एसएपी में 25 रुपये प्रति क्विटंल की बढ़ोतरी कर इसे 350 रुपये प्रति क्विंटल कर दिया। चुनावी साल में सीजन शुरू होने के पहले ही 26 सितंबर, 2021 को एसएपी की घोषणा कर दी गई थी। चालू सीजन (2022-23) अक्तूबर 2022 को शुरू हो गया और 18 जनवरी, 2023 तक राज्य के गन्ना किसान इस सीजन के लिए एसएपी का इंतजार कर रहे हैं। सरकार चुप है, चीनी उद्योग को भी समझ नहीं आ रहा है कि सरकार एसएपी की घोषणा क्यों नहीं कर रही है।
जहां तक राज्य में चीनी उत्पादन की बात है तो यह दूसरा साल होगा जब उत्पादन कम रहेगा। इसका खामियाजा भी किसानों को भुगतना पड़ रहा है क्योंकि उत्पादन घटने की मुख्य वजह फसल में बीमारी के चलते उत्पादकता का घटना है। वहीं राज्य में गन्ने में चीनी की रिकवरी भी कम हो रही है।
ऐसा भी नहीं है कि चीनी मिलें अधिक दाम नहीं दे सकती हैं। उन मिलों को छोड़ दें जिनकी वित्तीय हालत दूसरे कारणों से खराब है, तो बाकी मिलें समय से भुगतान कर रही हैं। कुछ चीनी मिलें तो गन्ना आपूर्ति के एक सप्ताह बाद ही भुगतान कर रही हैं। निजी चीनी मिलों का मुनाफा बढ़ा है और स्टॉक मार्केट में इनके शेयरों के दाम पिछले दो साल में काफी बेहतर हुए हैं। देश से पिछले साल 110 लाख टन चीनी का निर्यात हुआ और उसके लिए मिलों को औसतन 40 रुपये प्रति किलो की कीमत मिली है। चालू सीजन के लिए भी सरकार ने 60 लाख टन चीनी के निर्यात की अनुमति दी है जिसमें से करीब 18 लाख टन चीनी का निर्यात हो चुका है और 50 लाख टन के सौदे हो चुके हैं। उद्योग सूत्रों के मुताबिक अभी भी चीनी मिलों को निर्यात पर करीब 40 रुपये प्रति किलो का दाम मिल रहा है।
जहां तक घरेलू कीमतों की बात है तो उत्तर प्रदेश की चीनी मिलों को 36 से 37 रुपये प्रति किलो की एक्स फैक्टरी कीमत मिल रही है। पिछले सीजन में औसत कीमत 34 रुपये किलो रही थी जो महाराष्ट्र की चीनी मिलों के लए 32.50 रुपये प्रति किलो रही थी। केंद्र सरकार ने चीनी का न्यूनतम बिक्री मूल्य 31 रुपये प्रति किलो तय कर रखा है और कीमतें उससे अधिक ही हैं।
इसके साथ ही चीनी मिलों के लिए एथेनॉल एक नये कमाई के स्रोत के रूप में बेहतर विकल्प बन रहा है। सरकार ने पिछले दिनों एथेनॉल के मूल्य में बढ़ोतरी की थी। इसके साथ ही चीनी मिलों द्वारा एथेनॉल आपूर्ति के 21 दिन के भीतर तेल विपणन कंपनियां (ओएमसी) भुगतान कर रही हैं।
ऐसे में चीनी मिलों को दो फायदे हो रहे हैं। पहला, निर्यात से बेहतर दाम मिल रहे हैं, रिकार्ड निर्यात होने से स्टोरेज में कम चीनी होने के चलते चीनी मिलों को भंडारण खर्च में बचत हो रही है क्योंकि इसका बड़ा हिस्सा निर्यात हो रहा है। दूसरे, एथेनॉल की बिक्री से भुगतान जल्दी मिलने से उनकी नकदी की स्थिति बेहतर हो रही है। यही वजह है कि चीनी मिलें गन्ने के रस से सीधे एथेनॉल बनाने की ओर बढ़ रही हैं और कुछ चीनी मिलें बी हैवी मोलेसेस से एथेनॉल बना रही हैं।
इन दोनों श्रेणियों के एथेनॉल के दाम सी हैवी मोलेसेस से बनने वाले एथेनॉल से अधिक हैं। सीधे गन्ने के रस से बनने वाले एथेनॉल के दाम सबसे अधिक हैं। पिछले सीजन में देश मे्ं कुल 45 लाख टन चीनी को एथेनॉल बनाने के लिए डायवर्ट किया गया। इस साल करीब 60 लाख टन चीनी को सीधे एथेनॉल बनाने के काम में लाया जाएगा। डायवर्टिड चीनी समेत चालू सीजन में देश भर में 400 लाख टन चीनी उत्पादन का अनुमान है। हालांकि एथेनॉल के लिए डायवर्ट होने वाली चीनी के बाद चीनी के रूप में उत्पादन 360 लाख टन के आसपास ही रहेगा। घरेलू बाजार में करीब 280 लाख टन चीनी की खपत होती है।
अब सवाल उठता है कि उत्तर प्रदेश सरकार गन्ना किसानों के लिए एसएपी घोषित क्यों नहीं कर रही है और उसमें बढ़ोतरी क्यों नहीं कर रही है। इसका शायद एक जवाब यह हो सकता है कि गन्ना किसान राजनीतिक रूप से अपनी हैसियत खो चुके हैं और वह सरकार पर किसी भी तरह का दबाव बनाने की स्थिति में नहीं हैं। वैसे 45 लाख गन्ना किसान किसी भी राजनीतिक दल के लिए काफी अहमियत रखने वाला ग्रुप होना चाहिए। लेकिन पांच साल में केवल 35 रुपये की वृद्धि के बावजूद राज्य में भाजपा की सरकार का दोबारा सत्ता में आना गन्ना किसानों की राजनीति में लाबिंग खत्म होने का संकेत है।
दिलचस्प बात यह है कि एक समय केंद्र सरकार द्वारा तय किये जाने वाले न्यूनतम वैधानिक मूल्य (एसएमपी) और उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा तय किये जाने वाले एसएपी के बीच 15 से 20 फीसदी तक का अंतर होता था। अब एसएमपी की जगह फेयर एंड रिम्यूनेरेटिव प्राइस (एफआरपी) ने ले ली है। लेकिन अब एसएपी और एफआरपी का अंतर बहुत अधिक नहीं रह गया है। वहीं एफआरपी पर न्यूनतम 10.25 फीसदी चीनी रिकवरी के बाद मिलने वाले बोनस को जोड़ दें तो अब एफआरपी और एसएपी का अंतर बहुत कम रह गया है।
चालू सीजन के लिए केंद्र सरकार ने गन्ने का एफआरपी 305 रुपये प्रति क्विटंल तय किया है। चीनी की रिकवरी का स्तर भी बढ़ाकर 10.25 फीसदी से अधिक होने पर किसानों को अतिरिक्त भुगतान होता है। गन्ने में चीनी की 0.10 फीसदी रिकवरी बढ़ने पर 3.05 रुपये प्रति क्विटंल का अतिरिक्त भुगतान किसानों को मिलेगा। इसका फायदा उन राज्यों में है जहां एफआरपी के आधार पर गन्ने का मूल्य मिलता है। उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब और हरियाणा में एसएपी के आधार पर भुगतान होता है।
एक ओर जहां उत्तर प्रदेश में पांच साल में एसएपी में केवल 35 रुपये प्रति क्विटंल की बढ़ोतरी हुई है वहीं गन्ना किसानों के लिए उत्पादन लागत में भारी इजाफा हुआ है। डीजल की कीमतें करीब 20 रुपये प्रति लीटर बढ़ी हैं। बिजली महंगी हुई है। कीटनाशकों के दाम काफी बढ़े हैं, उर्वरकों के दाम बढ़े हैं और मजदूरी की लागत बढ़ी है। ऐसे में उत्तर प्रदेश के गन्ना किसानों की आर्थिक स्थिति बदतर हुई है। वहीं करीब दो दर्जन चीनी मिलें ऐसी हैं जिनका पिछले सीजन का भी गन्ना मूल्य भुगतान पूरा नहीं हुआ है।
एसएपी में बढ़ोतरी को लेकर विपक्ष सरकार पर दबाव के लिए बयानबाजी ले लेकर आंदोलन तक कर रहा है और उसमें राष्ट्रीय लोक दल अधिक सक्रिय है। उद्योग का कहना है कि किसानों को अधिक दाम मिलना चाहिए लेकिन हमारी स्थिति अधिक दाम देने की नहीं है। ऐसे में सरकार अपने स्तर पर कुछ मदद कर सकती है तो बेहतर है। वैसे अखिलेश यादव के नेतृत्व वाली समाजवादी पार्टी की सरकार ने एक साल सीधे किसानों को ढाई हजार करोड़ रुपये से अधिक का गन्ना मूल्य का भुगतान किया था, जो एसएपी का हिस्सा था।
वहीं राज्य के किसानों के पास बहुत अधिक विकल्प भी नहीं है। अगर किसान गेहूं व धान के फसल चक्र को अपनाते हैं तो यहां खाद्यान्नों की सरकारी खरीद की लचर स्थिति के चलते उनको न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) मिलना मुश्किल होता है। ऐसे में बड़ी संख्या में किसान गन्ने को प्राथमिकता देते हैं।
पिछले कुछ बरसों में राज्य में एसएपी में बढ़ोतरी कैसे हुई उसकी बानगी यहां देखी जा सकती है। एसएपी में बढ़ोतरी के मामले में 2007 में सत्ता में आई मायावती के मुख्यमंत्रित्व वाली बसपा सरकार सबसे अधिक प्रभावी रही थी। बसपा सरकार के कार्यकाल में गन्ने का एसएपी 120 रुपये प्रति क्विटंल बढ़ा था।
सत्ता में आने के पहले साल में 2017-18 सीजन के लिए 10 रुपये प्रति क्विंटल और 2021-22 के लिए चुनावी साल में 25 रुपये की वृद्धि एसएपी से पांच साल के दौरान भाजपा की उत्तर प्रदेश सरकार ने गन्ने का एसएपी केवल 35 रुपये प्रति क्विटंल बढ़ाया। वहीं इसकी पूर्ववर्ती अखिलेश यादव के नेतृत्व वाली समाजवादी पार्टी की सरकार ने अपने कार्यकाल में गन्ने का एसएपी 65 रुपये प्रति क्विंटल बढ़ाया था। अखिलेश सरकार के दौरान भी तीन साल गन्ने का एसएपी फ्रीज रहा था।
मायावती की सरकार के आने के समय 2006-07 में गन्ने का एसएपी सामान्य प्रजाति के लिए 125 रुपये प्रति क्विटंल और अगेती प्रजाति के लिए 130 रुपये प्रति क्विंटल था जो 2011-12 के पेराई सीजन में सामान्य प्रजाति के लिए 240 रुपये और अगेती प्रजाति के लिए 250 रुपये प्रति क्विटंल हो गया था। वहीं अखिलेश यादव की सरकार के समय में गन्ने की इन दो प्रजातियों का एसएपी 2011-12 के 240 और 250 रुपये प्रति क्विंटल से बढ़कर 2016-17 में 305 और 315 रुपये प्रति क्विटंल पर पहुंच गया था। वहीं योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व वाली भाजपा की पिछली सरकार ने पहले साल 2017-18 में एसएपी में दस रुपये प्रति क्विंटल की बढ़ोतरी कर इसे सामान्य प्रजाति के लिए 315 रुपये और अगेती प्रजाति के लिए 325 रुपये प्रति क्विंटल किया था। इसके बाद 2018-19, 2019-20 और 2020-21 पेराई सीजन के लिए गन्ने के एसएपी में कोई बढ़ोतरी नहीं की गई।
पड़ोसी राज्य हरियाणा की मनोहर लाल खट्टर के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार ने पिछले सीजन के लिए गन्ने का एसएपी 362 रुपये प्रति क्विटंल घोषित किया था। जिसमें चालू सीजन के लिए कोई बदलाव नहीं किया है। वहां गन्ना किसान एसएपी बढ़ाने की मांग को लेकर आंदोलनरत हैं। वहीं पंजाब में पिछले सीजन में तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने गन्ने का एसएपी 360 रुपये प्रति क्विंटल घोषित किया था। वहां सत्ता में आई आम आदमी पार्टी की भगवंत मान सरकार ने चालू सीजन के लिए पंजाब में एसएपी को बढ़ाकर 380 रुपये प्रति क्विंटल कर दिया है। दिलचस्प बात यह है कि उत्तर प्रदेश में एसएपी में बढ़ोतरी की मांग को लेकर कोई बड़ा किसान आंदोलन भी नहीं हो रहा है। अलबत्ता चीनी मिलों द्वारा पिछले साल का भुगतान नहीं करने पर कुछ चीनी मिलों के खिलाफ किसानों ने धरने जरूर दिये हैं।