जनसंख्या के लिहाज से चीन को पीछे छोड़ते हुए भारत दुनिया की सबसे ज्यादा आबादी वाला देश बन गया है। भारतीय अर्थव्यवस्था को इसका फायदा मिलेगा या नुकसान होगा, इस बारे में डेवलपमेंट इकोनॉमिस्ट डॉ. संतोष मेहरोत्रा का मानना है कि जब तक भारत की बढ़ती आबादी को ठीक से खिलाया और शिक्षित नहीं किया जाता है तब तक वे अर्थव्यवस्था पर बोझ बने रहेंगे।
राष्ट्रीय श्रम अर्थशास्त्र अनुसंधान संस्थान (पहले इंस्टीट्यूट ऑफ एप्लाइड मैनपावर रिसर्च) के पूर्व डायरेक्टर जनरल और जेएनयू के पूर्व प्रोफेसर डॉ. संतोष मेहरोत्रा ने जनसंख्या के ताजा आंकड़ों पर टिप्पणी करते हुए रूरल वॉयस से कहा, “चीन ने एक अलग रास्ता अपनाया है। बीजिंग न केवल स्वास्थ्य और शिक्षा पर जोर देता है, बल्कि औद्योगीकरण को श्रम प्रधान बनाकर रोजगार सृजन पर भी जोर देता है। यदि भारत (चीन से) कोई सबक नहीं लेता है तो यह स्पष्ट है कि बेरोजगारी में वृद्धि आपदा को न्योता देने वाली होगी क्योंकि कामकाजी आयु वर्ग की संख्या आश्रितों की संख्या की तुलना में बहुत कम होगी।"
चीन के परिदृश्य से तुलना करते हुए डॉ. मेहरोत्रा कहते हैं कि बीजिंग ने दशकों पहले जनसंख्या में बढ़ोतरी की कल्पना कर ली थी। बढ़ती आबादी को रोकने के लिए उसने अच्छे नीतिगत फैसले लिए, जबकि भारत की सरकारों ने समय पर कार्रवाई नहीं की। चीन ने स्वास्थ्य और शिक्षा क्षेत्रों में निवेश पर ध्यान केंद्रित किया और यह सुनिश्चित किया कि इसका लाभ दूर-दराज के गांवों तक भी पहुंचे। वहीं भारत में तीन स्तरीय स्वास्थ्य प्रणाली को राष्ट्रीय स्तर पर पर्याप्त धन के बिना बनाया गया था।
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डॉ. मेहरोत्रा का कहना है कि जागरूकता और क्षमता वाले राज्यों, जैसे केरल, तमिलनाडु और दक्षिण के अन्य राज्यों की तस्वीर उत्तर भारत के राज्यों से अलग थी। उत्तर भारत में जमींदारों की सामंती मानसिकता ने गरीबों को गरीबी और अशिक्षा में बांधे रखा। बेहतर स्वास्थ्य की कल्पना तो यहां दूर की कौड़ी थी। जबकि चीन ने भूमि सुधारों पर ध्यान दिया। जमींदारी उन्मूलन के बावजूद भारत में स्थिति में सुधार नहीं हुआ क्योंकि राजनीतिक नेतृत्व निश्चित रूप से जमींदार वर्ग और उच्च जाति के हाथों में था जो हमेशा गरीबों और दलितों को तिरस्कारपूर्ण नजरिये से देखते रहे।
इस पृष्ठभूमि से इतर डॉ. मेहरोत्रा ने विस्तार से जानकारी देते हुए बताया कि हिंदी भाषी राज्यों, जैसे उत्तर प्रदेश और बिहार में प्रजनन दर में वृद्धि देखी गई जिससे अधिक बच्चे पैदा हुए। यह दक्षिण भारत के विपरीत था जहां का सामाजिक ताना-बाना अलग है। गरीबों में प्रजनन दर अधिक पाई जाती है क्योंकि वे बच्चों को पैसे कमाने और परिवार का पालन-पोषण करने के लिए एक अतिरिक्त हाथ मानते हैं। वे बच्चों को अपनी सामाजिक सुरक्षा के रूप में मानते हैं। यहीं पर चीन ने अलग रास्ता अपनाया है। उसने न केवल स्वास्थ्य और शिक्षा पर जोर दिया है, बल्कि औद्योगीकरण को श्रम प्रधान बनाकर रोजगार सृजन पर भी जोर दिया है।
संयुक्त राष्ट्र के ताजा आंकड़ों में कहा गया है कि भारत की आबादी 142.86 करोड़ हो गई है। भारत चीन को पछाड़ कर दुनिया का सबसे अधिक आबादी वाला देश बन गया है। यह चुनौती है या अवसर, यह सरकार पर निर्भर है। वहीं चीन की आबादी 142.57 करोड़ है। वह दूसरा सबसे अधिक आबादी वाला देश है। यूएनएफपीए (UNFPA) की स्टेट ऑफ द वर्ल्ड पॉपुलेशन रिपोर्ट (SWOP) 2023 के मुताबिक, भारत की लगभग 25 फीसदी जनसंख्या 0-14 वर्ष के आयु वर्ग की है, जबकि 18 फीसदी 10 से 19 आयु वर्ग की, 26 फीसदी 10 से 24 वर्ष के आयु वर्ग में है तो 15 से 64 वर्ष के आयु वर्ग में 68 फीसदी और 65 वर्ष से ऊपर 7 फीसदी है।
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भारत की जनसांख्यिकी (डेमोग्राफी) अलग-अलग राज्यों में अलग है। केरल और पंजाब में वृद्धों की आबादी ज्यादा है, तो बिहार और उत्तर प्रदेश में युवा आबादी है। 1950 में जनसंख्या का आंकड़ा इकट्ठा करना शुरू करने के बाद यह पहली बार है कि भारत ने सबसे अधिक आबादी वाले देशों की संयुक्त राष्ट्र की सूची में शीर्ष स्थान हासिल किया है। संयुक्त राष्ट्र की विश्व जनसंख्या संभावना-2022 के अनुसार, 1950 में भारत की जनसंख्या 86.1 करोड़ थी, जबकि चीन की जनसंख्या 114.4 करोड़ थी। रिपोर्ट में अनुमान जताया गया है कि 2050 तक भारत की जनसंख्या बढ़कर 166.8 करोड़ हो जाएगी, जबकि चीन की जनसंख्या घटकर 131.7 करोड़ रह जाएगी। यूएनएफपीए के अनुसार, भारत में पुरुषों की आयु संभाविता 71 वर्ष है जबकि महिलाओं के लिए यह 74 वर्ष है।
रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में 2023 तक तक किसी भी तरीके से 15-49 वर्ष की महिलाओं की गर्भनिरोधक प्रसार दर 51 फीसदी है। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि वैश्विक जनसंख्या 1950 के बाद से सबसे धीमी गति से बढ़ रही है। 2020 में वृद्धि दर एक फीसदी से कम रह गई है। रिपोर्ट में कहा गया है कि इस साल 15 नवंबर को वैश्विक जनसंख्या आठ अरब तक पहुंचने का अनुमान लगाया गया था।
हालांकि, कुछ लोग भारत की 1.4 अरब आबादी को 1.4 अरब अवसरों के रूप में देखते हैं। वे कहते हैं कि सबसे बड़े युवा समूह वाला देश, जहां की 25.4 करोड़ आबादी 15-24 वर्ष की है, नवाचार, नई सोच और स्थायी समाधान का स्रोत हो सकते हैं। अगर महिलाएं और लड़कियां, विशेष रूप से समान शैक्षिक और कौशल निर्माण के अवसरों, प्रौद्योगिकी और डिजिटल नवाचारों तक पहुंच और सबसे महत्वपूर्ण यह कि अपने प्रजनन अधिकारों और विकल्पों का पूरी तरह से उपयोग करने के लिए सूचना और शक्ति से लैस हैं, तो बदलाव आगे बढ़ सकता है।
महिलाओं और लड़कियों के लिए लैंगिक समानता सुनिश्चित करना, सशक्तिकरण और शारीरिक स्वायत्तता को आगे बढ़ाना स्थायी भविष्य के लिए एक प्रमुख निर्धारक हैं। व्यक्तिगत अधिकारों और विकल्पों का सम्मान किया जाना चाहिए और सभी को यह तय करने में सक्षम होना चाहिए कि बच्चे कब हों और कितने हों।
चूंकि भारत की दो-तिहाई आबादी 15-64 आयु वर्ग में है, इसलिए शिक्षा, कौशल विकास और अवसर पैदा करना, खासकर वंचित वर्गों के युवाओं और महिलाओं के लिए जरूरी होगा। अगले 20 साल में डेमोग्राफिक लाभ का इस्तेमाल करना देश के लिए महत्वपूर्ण होगा। लेकिन चिंता का विषय श्रम बल में महिलाओं की कम भागीदारी है। विश्व बैंक के आंकड़ों से पता चलता है कि भारत में महिला श्रम की भागीदारी 2005 में 32 फीसदी थी जो 2021 में घटकर 19 फीसदी रह गई। यह एक बहुत बड़ा कारण है कि दक्षिण कोरिया जैसे देशों की तुलना में अपनी बड़ी कार्य-उम्र वाली आबादी का लाभ उठाने में भारत धीमा है।
सीएमआईई के सर्वे के मुताबिक, दक्षिण कोरिया की लगभग 40 फीसदी श्रम बल भागीदारी दर में महिलाओं की भागीदारी लगभग 10 फीसदी है। यह एक सामाजिक बम है। विशेषज्ञों का कहना है कि बढ़ती आबादी की बेहतर तरीके से इस्तेमाल करने के लिए शिक्षा और स्वास्थ्य क्षेत्रों पर अधिक ध्यान देने के साथ स्मार्ट नीति बनाने की जरूरत है।