केंद्र सरकार के धान की सरकारी खऱीद 1 अक्तूबर की बजाय 11 अक्तबूर से शुरू करने के फैसले के खिलाफ शनिवार 2 अक्तूबर को हरियाणा और पंजाब में किसानों ने आंदोलन किया तो सरकार ने फैसला बदलकर रविवार यानी 3 अक्तबूर से धान की सरकारी खऱीद शुरू करने की घोषणा कर दी। केंद्र सरकार के खाद्य मंत्रालय ने इस साल इसे दस दिन देर से शुरू करने का फैसला लेने की वजह देर तक मानसून की सक्रियता के चलते सरकारी खरीद में आने वाले धान में नमी अधिक रहने की संभावना को बताया गया था। खाद्य मंत्रालय के इस कदम से यह सवाल खड़ा होता है कि किसानों के हित में हर समय खड़ी रहने का दावा करने वाली सरकार में इस तरह के फैसले कैसे हो जाते हैं जो किसानों को सड़क पर आने के लिए मजबूर करते हैं। यहां एक दिलचस्प पहलू यह है कि अधिक खपत वाली धान की किस्मों के विकल्प के रूप में देश के कृषि वैज्ञानिकों ने कम अवधि वाली किस्में विकसित की हैं जो पुरानी किस्मों के मुकाबले 20 से 25 दिन तक कम समय में तैयार हो जाती हैं। यही वजह है कि पंजाब में धान की फसल का अधिकांश क्षेत्रफल इन प्रजातियों के तहत आ गया है। लेकिन खाद्य मंत्रालय के अधिकारियों का हाल का फरमान इस उपलब्धि पर पानी फेरने का काम करने वाला ही था।
असल में खाद्य मंत्रालय के अधिकारियों को इस बात की ही चिंता रही कि सरकारी खऱीद में अधिक नमी का धान न आए जिसके सरकार को वित्तीय नुकसान होता है लेकिन वह फसल चक्र की प्रक्रिया से अनभिज्ञ लगते हैं। पंजाब और हरियाणा की सरकारों द्वारा किसानों को मई के अंत तक धान नहीं लगाने के लिए हतोत्साहित किया जाता रहा है क्योंकि इसके चलते पानी की अधिक खपत होती है। इसकी वजह से ही पूसा-44 किस्म की जगह दूसरी किस्मों ने ले ली है जो उत्पादकता के हिसाब से इसके लगभग बराबर हैं लेकिन उनकी अवधि (नर्सरी से फसल पकने तक) इससे 20 से 25 दिन कम है। इनमे से कई किस्में 15 सितंबर तक कटाई के लिए तैयार हो जाती हैं।
धान की फसल में पानी खपत को कम करने के सबसे बेहतर उपाय के रूप में वैज्ञानिकों का फोकस कम समयावधि वाली प्रजातियों को विकसित करने पर रहा। उन्होंने नतीजे भी दिये। 1993 में 32 क्विटंल प्रति एकड़ की औसत उत्पादकता वाली पूसा-44 किस्म ने लंबे समय तक अधिकांश क्षेत्रफल पर कब्जा बनाये रखा। लेकिन यह किस्म ट्रांसप्लांटिंग से पकने तक 125 दिन लेती है। इसमें अगर नर्सरी की अवधि को भी जोड़ दिया जाए तो उसके 25 से 30 दिन के साथ इसकी अवधि 150 से 155 दिन तक जाती है। यही वजह है कि किसान मई के मध्य से ही इसे ट्रांसप्लांट करना शुरू कर देते थे और यही वह समय होता है जब खेत में पानी की सबसे अधिक खपत होती है। लेकिन 2013 से स्थिति बदली जब पंजाब एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी (पीएयू) की पीआर-121 किस्म खेतों में आ गई। यह किस्म 110 दिन में तैयार होती है और इसकी उत्पादकता 30.5 क्विटंल प्रति एकड़ होती है। साल 2013 से साल 2020 तक धान की नौ नई किस्में जारी गई जिनकी फसल समयावधि 93 दिन से लेकर 117 दिन के बीच है। जबकि उत्पादकता 29.5 से 31.5 क्विटंल प्रति एकड़ के बीच है। यही वजह है कि इन किस्मों के चलते पूसा-44 का क्षेत्रफल पंजाब में न के बराबर ही रह गया है। यानि कृषि वैज्ञानिकों का यह काम किसानों के लिए जहां लागत को कम करने वाला रहा है वहीं हरियाणा और पंजाब में धान के लिए पानी की खपत के मोर्चे पर भी फायदेमंद रहा है।
अब सवाल उठता है कि जो फसल तैयार है उसे कितने दिन खेत में रखा जा सकता है। एक समय के बाद इसका अनाज खेत में गिरना शुरू हो जाता है। अब इस स्थिति में अगर फसल की खरीद दस दिन देर से शुरू होती तो किसानों के पास क्या विकल्प बचता है। या तो वह फसल को खेत में रखे या फिर कटाई के बाद उसे स्टोर करे। जबकि जमीनी हकीकत यह है कि पंजाब और हरियाणा में अधिकांश किसान कंबाइन से धान की हार्वेस्टिंग करते हैं। कंबाइन हार्वेस्टिंग के साथ ही धान को साफ कर ट्राली में डाल देती है। जिसे किसान सीधे मंडी ले जाते हैं और सरकारी खरीद में बेच देते हैं। अब अगर ऐसा नहीं होता तो किसानों को कटाई में देरी करने की स्थिति में फसल नुकसान का खामियाजा भुगतना पड़ता। वहीं समय से कटाई करने पर धान को या तो खेत में या फिर अपने घर पर स्टोर करना पड़ता और उसके बाद इसे लोड कर मंडी ले जाना होता। किसान का जो काम कटाई के दिन ही समाप्त हो जाता है उसे दस दिन या हफ्ता भर लटकाने से उसका खर्च और काम दोनों का बढ़ना तय था।
बात यहीं नहीं रुकती है। अगर किसान देर से धान की कटाई करता है तो उसे गेहूं के लिए खेत तैयार करने के लिए कम समय मिलेगा और उसके चलते किसानों द्वारा धान के फसल अवशेष को जलाने की घटनाओं में बढ़ोतरी होने की संभावना बढ़ जाती है। जो समय से फसल की कटाई होने पर कम रहती है क्योंकि किसानों के पास खेत तैयार करने के लिए 20 से 25 दिन का समय रहता है। अब पूरे मसले की कड़ियों को जोड़ें तो खाद्य मंत्रालय का देरी से धान की खऱीद करने का फैसला दिल्ली के प्रदूषण में बढ़ोतरी से भी जुड़ जाता है क्योंकि हरियाणा और पंजाब में देरी से धान की कटाई का मतलब वहां खेतों में अवशेष को जलाने की घटनाओँ का बढ़ना और उसके बाद दिल्ली में प्रदूषण बढ़ने की आशंका पैदा होना स्वाभाविक है।
इस पूरे प्रकरण में जहां खाद्य मंत्रालय द्वारा लिया गया धान की खऱीद में देरी का फैसला कृषि वैज्ञानिकों की कम समयावधि की फसलों को विकसित करने की मेहतन पर पानी फेरने की तरह है। वहीं पंजाब और हरियाणा की सरकारों द्वारा पानी बचाने के लिए कम अवधि की धान की प्रजातियों को अपनाने लिए की जा रही मेहनत पर पानी फिरने जैसा था। साथ ही किसानों को इस पूरी प्रक्रिया के चलते होने वाले आर्थिक नुकसान और बढ़ने वाली दिक्कतें अलग से झेलनी पड़तीं । यही वजह है कि अधिकारी जब जमीनी हकीकत को समझने में भूल करते हैं तो इस तरह के फैसले सामने आते हैं। यह बात अलग है कि किसानों के भारी विरोध और आंदोलन के चलते केंद्र सरकार को 3 अक्तबूर से पंजाब और हरियाणा में धान की सरकारी खऱीद शुरू करने का फैसला लेना पड़ा। असल में किसान तीन नये केंद्रीय कृषि कानूनों के खिलाफ साल भर से आंदोलित हैं और उसके चलते उनकी एकजुटता के तहत संयुक्त किसान मोर्चा ने आज के आंदोलन का कदम उठाया था जिसके चलते सरकार को कल से धान कि खऱीद शुरू करने का फैसला लेना पड़ा।