आईसीएआर की गेहूं की नई क्लाइमेट स्मार्ट किस्म पर नहीं होगा तापमान में असामान्य बढ़ोतरी का असर

आईएआरआई ने एचडी-3385 किस्म को प्रोटेक्शन ऑफ प्लांट वेराइटीज एंड फार्मर्स राइट्स ऑथरिटी (PPVFRA) के तहत रजिस्टर्ड करा लिया है। इसके साथ ही डीसीएम श्रीराम लिमिटेड की कंपनी बॉयोसी के साथ इस किस्म का लाइसेंस देने का समझौता किया गया है। चालू रबी सीजन में इस किस्म के मल्टी लोकेशन ट्रायल और सीड मल्टीप्लीकेशन को अंजाम दिया जा रहा है

IARI के ट्रायल फील्ड में गेहूं की नई किस्म एचडी-3385 के साथ (बांए से) ICAR के डीजी डॉ. हिमांशु पाठक, सीनियर साइंटिस्ट डॉ. राजबीर यादव और IARI के डायरेक्टर डॉ. ए .के. सिंह , फोटोः हरवीर सिंह

जलवायु परिवर्तन का असर भारतीय कृषि पर दिखने लगा है। यही वजह है कि पिछले साल मार्च में तापमान में अचानक बढ़ोतरी के चलते गेहूं के उत्पादन में भारी गिरावट हुई थी। नतीजतन गेहूं के निर्यात पर प्रतिबंध के बावजूद घरेलू बाजार में इसकी कीमतें न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) के मुकाबले 50 फीसदी तक बढ़ गई थीं। उत्पादन में गिरावट और बाजार में कीमतों के एमएसपी से अधिक रहने के चलते गेहूं की सरकारी खरीद 444 लाख टन के लक्ष्य के मुकाबले केवल 179 लाख पर अटक गई थी। 1 फरवरी को केंद्रीय पूल में गेहूं का स्टॉक 154.44 लाख टन रह गया जो इस तारीख के लिए छह साल का सबसे कम स्तर है।

चिंता यहीं खत्म नहीं हुई है, इस समय गेहूं उत्पादक क्षेत्रों में न्यूनतम और अधिकतम तापमान सामान्य से तीन से पांच फीसदी अधिक चल रहा है। इसके चलते इस साल की गेहूं फसल पर भी प्रतिकूल असर पड़ने की आशंका बढ़ती जा रही है। आने वाले दिनों में अनुमान इसी तरह के हैं और यह समय गेहूं के पौधों में बाली निकलने, दाने बनने और उसके सख्त होने की प्रक्रिया का है। ऐसे समय में असामान्य तापमान वृद्धि फसल को नुकसान पहुंचा सकती है।

फरवरी-मार्च में तापमान सामान्य से अधिक रहने की यह स्थिति संकेत दे रही है कि जलवायु परिवर्तन का संकट अब बना रह सकता है। ऐसे में गेहूं जैसी सर्दी की फसल को संकट से बचाने के लिए उपाय ढूंढकर उन पर अमल करना ही एक विकल्प है। इस मुश्किल को हल करने के लिए भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) की टीम फसल की बुआई के समय को मौजूदा समय से पहले करने के विकल्प पर काम कर रही है। पंजाब, हरियाणा और मध्य प्रदेश में गेहूं की बुआई नवंबर के पहले पखवाड़े में होती है। उत्तर प्रदेश में धान और गन्ने की कटाई के बाद गेहूं की बुआई मध्य नवंबर से दिसंबर तक होती है। इसी आधार पर इस समय गेहूं की अगैती और पछैती किस्मों का उपयोग किसान कर रहे हैं। करीब 140-145 दिनों की गेहूं की फसल की बुआई अगर 20 अक्तूबर के आसपास हो जाती है तो वह गरमी की मार से बच सकती है। इसके चलते गेहूं में बाली निकलने, दाना बनने और उसके पकने की सारी प्रक्रिया मार्च के तीसरे सप्ताह तक पूरी हो जाएगी और मार्च के अंत में कटाई की जा सकेगी। यानी फसल को असामान्य तापमान बढ़ोतरी के नुकसान से बचाया जा सकेगा।

आसान नहीं है इस मुश्किल का हल 

भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (IARI) के प्रिंसिपल साइंटिस्ट डॉ. राजबीर यादव इसे समझाते हुए रूरल वॉयस से कहते हैं कि अगर गेहूं की बुआई नवंबर के शुरू में की जाएगी तो सामान्यतया 80 से 95 दिन में उसके पौधों में बाली निकलने लगती है। अगर इसकी बुआई अक्तूबर में कर दी जाएगी तो बाली 70 से 75 दिन में निकल आएगी। इसके चलते फसल की उत्पादकता प्रभावित होगी क्योंकि पौधों को पूरी तरह से विकसित होने का समय नहीं मिलेगा। इसलिए केवल बुआई पहले कर देने से समस्या का हल नहीं निकलेगा।

गेहूं की नई किस्म में है इस मुश्किल का हल

आईएआरआई के वैज्ञानिकों ने माइल्ड वर्नेलाइजेशन रिक्वायरमेंट का उपयोग कर गेहूं की एक नई किस्म तैयार की है। इस किस्म को फ्लावरिंग के पहले एक निश्चित समय तक कम तापमान अवधि (चिलिंग पीरियड) की जरूरत है। इस किस्म की 20-25 अक्तूबर को बुआई करने के बाद इसमें बाली निकलने की प्रक्रिया 100 से 110 दिन बाद होती है। उसके बाद परागण (पॉलिनेशन) में चार-पांच दिन लगते हैं। जिसके चलते बाली निकलने से दाना बनने और उसके सख्त होने की प्रक्रिया के लिए पौधे को फरवरी में पूरा समय मिलता है। इस प्रक्रिया के दौरान 30 से 40 दिन की अवधि में तापमान 30 डिग्री के आसपास ही रहना चाहिए। इस दौरान पौधे के तने और पत्तियों के जरिये मिलने वाले न्यूट्रिएंट का उपयोग बाली में दाना भरने और उसके सख्त होने में होता है। आईएआरआई की गेहूं की जल्दी बोई जाने वाली इस किस्म में पौधे को विकसित होने का पूरा समय मिलता है। इसका तना अधिक मजबूत होता है। डॉ. राजबीर यादव कहते हैं कि पहले बुआई के बावजूद इस नई किस्म में बाली जल्दी नहीं निकलती है जो इसके पौधों को मजबूत बनाती है और इसके चलते इसके दाने भी अधिक वजन रखते हैं। साथ ही यह यह गरमी को भी बर्दाश्त करने में सक्षम है।

नई किस्मों में क्या है खास

आईएआरआई के वैज्ञानिकों की टीम ने माइल्ड वर्नेलाइजेशन रिक्वायरमेंट के लिए तीन किस्मों में खास जीन्स का उपयोग किया है जो समय से पहले बाली निकलने और फ्लावरिंग को रोकते हैं। पहली किस्म है एचडीसीएसडब्ल्यू-18 जिसे 2016 में आधिकारिक रूप से रिलीज और नोटिफाइड किया गया था। इसकी उत्पादकता सात टन प्रति हैक्टेयर से अधिक है। इस समय की लोकप्रिय किस्मों एचडी-2967 और एचडी-3086 की उत्पादकता छह से साढ़े छह टन प्रति हैक्टेयर है। इनके पौधों की लंबाई 105 से 110 सेंटीमीटर होती है जबकि सामान्य किस्मों की लंबाई 90 से 95 सेंटीमीटर है। अधिक लंबाई के चलते उनके फसल गिरने या झुकने की संभावना अधिक है जिसका नतीजा उत्पादन में भारी गिरावट के रूप में सामने आ सकता है।

दूसरी किस्म है एचडी-3410 जिसे 2022 में रिलीज किया गया और इसकी उत्पादकता 7.5 टन प्रति हैक्टेयर तक है। वहीं इसके इसके पौधे की ऊंचाई 100 से 105 सेंटीमीटर है।

लेकिन तीसरी किस्म है एचडी-3385 जो सबसे अधिक कामयाब दिखती है। साढ़े सात टन की उत्पादकता के साथ इसके पौधे की ऊंचाई 95 सेंटीमीटर है जो फसल के गिरने और झुकने की आशंका को काफी कम कर देती है। इस किस्म के पौधे के तने की मोटाई भी अधिक होती है। आईएआरआई के ट्रायल में इस साल इस किस्म की बुआई 22 अक्तबूर को की गई है। अभी यह पॉलीनेशन स्टेज में है, जबकि समय पर बोई गई किस्मों के पौधों में अभी बाली निकलने की प्रक्रिया शुरू भी नहीं हुई है।

किसानों तक इस किस्म को पहुंचाने के कदम

आईएआरआई ने एचडी-3385 किस्म को प्रोटेक्शन ऑफ प्लांट वेराइटीज एंड फार्मर्स राइट्स ऑथरिटी (PPVFRA) के तहत रजिस्टर्ड करा लिया है। इसके साथ ही डीसीएम श्रीराम लिमिटेड की कंपनी बॉयोसी के साथ इस किस्म का लाइसेंस देने का समझौता किया गया है। चालू रबी सीजन में इस किस्म के मल्टी लोकेशन ट्रायल और सीड मल्टीप्लीकेशन को अंजाम दिया जा रहा है। आईएआरआई के डायरेक्टर डॉ. ए.के. सिंह ने रूरल वॉयस को बताया कि इस तरह का यह हमारा पहला प्रयास है, जिसमें पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप की गई है। साथ ही पीपीवीएफआरए के तहत इस किस्म का रजिस्ट्रेशन करने के चलते हमारे बौधिक संपदा अधिकार भी सुरक्षित हैं।

भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (ICAR) के महानिदेशक डॉ. हिमांशु पाठक ने रूरल वॉयस को बताया कि निजी क्षेत्र के जरिये सार्वजनिक क्षेत्र में विकसित की गई किस्म का व्यवसायीकरण करने का यह पहला उदाहरण है। इसके जरिये नई विकसित किस्म को किसानों तक तेजी से पहुंचाने के काम होगा और सार्वजनिक क्षेत्र की तकनीक से किसानों को फायदा होगा। इसके साथ ही उन्होंने कहा कि लाइसेंस की शर्त के तहत निजी कंपनी प्रति किलोग्राम बीज की बिक्री पर आईसीएआर को एक निश्चित रकम रॉयल्टी के रूप में देगी। इसका उपयोग नये शोध के लिए किया जाएगा। इसके चलते जलवायु परिवर्तन से बेअसर (क्लाइमेट स्मार्ट) किस्मों के जरिये देश को गेहूं के अधिक उत्पादन का फायदा होगा। उन्होंने कहा कि भविष्य में अगर कोई दूसरा संस्थान या कंपनी भी इस किस्म के बीज उत्पादन और बिक्री का लाइसेंस लेना चाहती है तो मौजूदा शर्तों पर वह हासिल कर सकती है।