दुबई में हुए संयुक्त राष्ट्र जलवायु सम्मेलन (कॉप28) में आखिरकार दुनिया के लगभग 200 देश एक नए समझौते पर सहमत हो गये। ऐतिहासिक बताए जा रहे इस समझौते में “जीवाश्म ईंधन से दूर हटने” यानी फॉसिल फ्यूल (कोयला, तेल और गैस) पर निर्भरता घटाने का आह्वान किया गया है। जलवायु वार्ताओं के तीन दशक के इतिहास में पहली बार “जीवाश्म ईंधन” शब्द को किसी समझौते के अंतिम दस्तावेज में शामिल किया गया है। लेकिन यह लागू कैसे होगा, इसमें स्पष्टता का अभाव है। समझौते के कमजोर और अस्पष्ट प्रावधानों को लेकर काफी आलोचना हो रही है।
संयुक्त अरब अमीरात की मेजबानी में हुए कॉप28 के पहले दिन “लॉस एंड डैमेज फंड” के क्रियान्वयन को बड़ी सफलता के तौर पर देखा गया था। लेकिन उसके बाद वार्ता खटाई में पड़ती दिख रही थी। आखिरी मौके पर जलवायु समझौते पर सहमति बन गई। दरअसल, तेल उत्पादन देश जीवाश्म ईंधन का इस्तेमाल खत्म करने के पक्ष में नहीं थे। अंत में ऐसे समझौते पर सहमति बनी जिसमें जीवाश्म ईंधन का जिक्र तो है मगर इसका उपयोग पूरी तरह खत्म करने की बात नहीं है।
ऐतिहासिक समझौता, मगर कमजोर शर्तें
जलवायु संकट से निपटने का रोडमैप और शब्दावली क्या होगी, इसे लेकर सम्मेलन में काफी मंथन हुआ। दुबई समझौते में जलवायु परिवर्तन के खतरे से निपटने के लिए 8 सूत्री योजना सुझायी गई है। साल 2050 तक नेट जीरो का लक्ष्य हासिल करने के लिए उचित, व्यवस्थित और न्यायसंगत तरीके से "जीवाश्म ईंधन से दूर हटने" पर जोर दिया है। साथ ही देशों से बेरोकटोक कोयले के उपयोग को चरणबद्ध तरीके से कम करने के प्रयास तेज करने का आग्रह किया है। लेकिन 21 पेज के दस्तावेज में तेल और गैस का कोई उल्लेख नहीं है।
अपने समापन भाषण में सम्मेलन के अध्यक्ष सुल्तान अल-जबेर ने कहा कि ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री तक सीमित रखने की दिशा में यह ऐतिहासिक समझौता है। साल 2030 तक विश्व की स्वच्छ ऊर्जा क्षमता को तिगुना करने और औसत ऊर्जा दक्षता को दोगुना करने के प्रयास किए जाएंगे। समापन सत्र को संबोधित करते हुए भारत के पर्यावरण मंत्री भूपेन्द्र यादव ने कहा कि यहां के सामूहिक प्रयासों ने पेरिस में निर्धारित तापमान लक्ष्यों को हासिल करने की प्रतिबद्धता पर बल देने का संदेश दिया है। आगे का रास्ता समानता और जलवायु न्याय पर आधारित होना चाहिए।
समझौते में कई खामियां
दिल्ली स्थित क्लाइमेट ट्रेंड्स की निदेशक आरती खोसला का कहना है कि दुबई समझौता सकारात्मक है, हालांकि इसमें कई कमियां हैं। पहली बार जलवायु समझौते में जीवाश्म ईंधन से दूर हटने की आवश्यकता को स्वीकार किया गया है। इसका अर्थ न केवल कोयला बल्कि तेल और गैस से भी है। लेकिन समझौते में तेल और गैस को लेकर काफी ढील बरती गई है। यह स्पष्ट नहीं है कि क्या उत्पादन और खपत में वास्तविक कटौती होगी, या फिर बढ़ती मांग के साथ देश अपने ऊर्जा मिश्रण में केवल 'बदलाव' करेंगे। बड़े कार्बन उत्सर्जकों को खुश करने के लिये ‘ट्रांजिशन फ्यूल’ के नाम पर गैस को खुली छूट दी है। वित्त के मामले में भी कोई बड़ा नतीजा नहीं निकला।
COP28 में पहुंचे 85 हजार प्रतिनिधि
कॉप28 की शुरुआत दुबई में 30 नवंबर को शुरू हुई थी और यह एक दिन आगे बढ़कर 13 दिसंबर को समाप्त हुआ। इसमें 198 देशों के लगभग 85,000 प्रतिनिधियों ने भाग लिया। जलवायु सम्मेलन में यह अब तक का सबसे बड़ा जमावड़ा था। सम्मेलन के उद्घाटन के दिन लॉस एंड डैमेज फंड का ऐलान उन विकासशील और गरीब देशों के लिए अच्छी खबर है जो जलवायु संकट में बहुत कम योगदान देने के बावजूद इसका खामियाजा भुगत रहे हैं। लेकिन जलवायु समझौते में अस्पष्टता और क्लीन एनर्जी अपनाने के लिए गरीब व विकासशील देशों के लिए वित्त का प्रावधान ना होने से समझौते की सफलता को लेकर सवाल उठ रहे हैं।