रिपोर्ट की खास बातें
# किसानों को समाजवादी और कम्युनिस्ट नेताओं ने बरगलाया और उनसे झूठ कहा कि एमएसपी खत्म किया जा रहा है
# सुप्रीम कोर्ट ने रिपोर्ट मिलने को सार्वजनिक कर दिया होता तो किसानों को कृषि कानूनों के बारे में बेहतर जानकारी मिल पाती और संभव है कानूनों को रद्द करने की जरूरत नहीं पड़ती
# मोदी सरकार ने किसानों के साथ सलाह मशविरा नहीं किया था इसलिए कानून में कुछ खामियां रह गई थीं। रिपोर्ट में इन खामियों को दूर करने के विकल्प सुझाए गए हैं
कृषि कानूनों की समीक्षा के लिए सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित समिति के सदस्य और शेतकरी संगठन के पूर्व अध्यक्ष अनिल घनवत ने समिति की रिपोर्ट जारी की है। घनवत के अनुसार समिति के सामने 73 कृषि संगठनों ने अपनी बात रखी। इनमें से 61 ने कृषि कानूनों का समर्थन किया। समर्थन करने वाले संगठन 3.3 करोड़ किसानों के प्रतिनिधि संगठन हैं। ज्यादातर आंदोलनकारी किसान पंजाब और उत्तर भारत के थे जहां न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) का बड़ा महत्व है। इन किसानों को समाजवादी और कम्युनिस्ट नेताओं ने बरगलाया और उनसे झूठ कहा कि एमएसपी खत्म किया जा रहा है। इन कानूनों में एमएसपी के बारे में कुछ नहीं कहा गया था।
घनवत के अलावा इस समिति में कृषि अर्थशास्त्री और इंटरनेशनल फूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट दक्षिण एशिया के पूर्व डायरेक्टर प्रमोद कुमार जोशी, कृषि अर्थशास्त्री और कृषि लागत एवं मूल्य आयोग के पूर्व चेयरमैन अशोक गुलाटी भी सदस्य थे। भारतीय किसान यूनियन के राष्ट्रीय अध्यक्ष भूपिंदर सिंह मान को भी सुप्रीम कोर्ट ने समिति का सदस्य बनाया था, लेकिन उन्होंने खुद को समिति से अलग कर लिया था। खास बात यह है कि आंदोलनकारी किसान संगठनों ने यह कहते हुए समिति के सामने जाने से मना कर दिया था कि वह इस समिति को स्वीकार नहीं करते।
इस रिपोर्ट के साथ घनवत ने सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को लिखा पत्र भी जारी किया। समिति ने सुप्रीम कोर्ट में जो रिपोर्ट सौंपी थी 19 मार्च को उसके एक साल पूरे हो गए। घनवत ने कहा कि इस दौरान उन्होंने रिपोर्ट सार्वजनिक करने के लिए सुप्रीम कोर्ट को तीन बार पत्र लिखा। यह पत्र 1 सितंबर 2021, 23 नवंबर 2021 और 17 जनवरी 2022 को लिखे गए थे।
घनवत का कहना है कि अगर सुप्रीम कोर्ट ने रिपोर्ट मिलने के बाद ही उसे सार्वजनिक कर दिया होता तो किसानों को कृषि कानूनों के बारे में बेहतर जानकारी मिल पाती और संभव है कि इन कानूनों को रद्द करने की भी जरूरत नहीं पड़ती। समिति ने सिफारिश की थी कि कृषि कानूनों को रद्द करने या लंबे समय तक उससे टालना उन लोगों के लिहाज से ठीक नहीं होगा जो इन कानूनों के पक्ष में हैं।
आंदोलन नहीं करने वाले किसानों को ज्यादा चिंता नहीं थी क्योंकि उनके जीवन में एमएसपी की भूमिका बहुत कम थी। घनवत ने कहा कि वे भी किसान रहे हैं और कभी कोई भी उपज एमएसपी पर नहीं बेची। हालांकि एमएसपी विषय समिति के विचार के दायरे में नहीं था फिर भी उसने उस पर विचार किया।
घनवत के अनुसार किसानों को 7 दशक से नेगेटिव मार्केटिंग सब्सिडी मिल रही थी। सरकार और स्वतंत्र अर्थशास्त्रियों का आकलन है कि अगर मार्केटिंग की पाबंदियां हटा दी जाएं तो किसानों की आमदनी प्रतिवर्ष 5 से 25 फ़ीसदी तक बढ़ सकती है। द इकोनॉमिस्ट पत्रिका ने 2018 में लिखा था कि सरकार एमएसपी जैसी सब्सिडी के जरिए किसानों को प्रति वर्ष 30 अरब डॉलर देती है जबकि किसानों के अपने उत्पाद बाजार में बेचने पर लगी पाबंदियों से उन्हें हर साल 40 अरब डॉलर का नुकसान होता है। यह पाबंदियां आवश्यक वस्तु अधिनियम और विदेश व्यापार की बाधाओं के तहत लगती हैं।
इसके अलावा संपत्ति के मौलिक अधिकार खत्म किए जाने और भूमि रिकॉर्ड के कुप्रबंधन के चलते जमीन की कीमतों में गिरावट और उत्पादकता में कमी से किसानों को हर साल करीब 20 अरब डॉलर का नुकसान होता है। बिना मुआवजा दिए उनसे जमीन ले ली जाती है। किसानों की आमदनी और संपत्ति से जुड़े कानून संविधान की नौवीं सूची में हैं जिसकी न्यायपालिका समीक्षा जांच नहीं कर सकती है।
घनवत ने कहा कि कृषि कानूनों से किसानों को बाजार में जाने के बेहतर विकल्प मिलते और उनका नुकसान कम होता। उन्होंने कहा कि मोदी सरकार ने किसानों के साथ सलाह मशविरा नहीं किया था इसलिए कानून में कुछ खामियां रह गई थीं। समिति की रिपोर्ट में इन खामियों को दूर करने के विकल्प सुझाए गए हैं। उन्होंने कहा कि वह किसानों और नीति निर्माताओं के शैक्षिक वैल्यू के लिए रिपोर्ट को जारी कर रहे हैं। खासकर उत्तर भारत के किसान, जिन्होंने धरना प्रदर्शन किया और कृषि कानूनों को रद्द करवाया, अब उन्हें समझ में आएगा कि अपनी आमदनी बढ़ाने का एक अवसर उन्होंने खो दिया है। घनवत के अनुसार मोदी सरकार के लिए भी कानूनों को खत्म करना एक बड़ी राजनीतिक गलती थी। पंजाब में भारतीय जनता पार्टी का खराब प्रदर्शन बताता है कि कानून रद्द करने का कोई राजनीतिक असर नहीं पड़ा है।
घनवत का कहना है कि कृषि अब भी समाजवादियों के नियंत्रण में है जबकि उद्योगों को 1991 में आंशिक मुक्ति मिल गई थी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को कृषि सुधार लागू करने का साहस दिखाना चाहिए। लेकिन इस बार उन्हें यह सुनिश्चित करना चाहिए कि किसान वास्तव में सुधारों से लाभान्वित हो। घनवत ने कहा कि वे कृषि नीति पर चर्चा पत्र का 200 पन्नों का एक शुरुआती ड्राफ्ट जारी कर रहे हैं, देश के किसानों को इस तरह की चर्चा में हिस्सा लेना चाहिए।