जिस तरह हरित क्रांति के समय अनाज उत्पादन बढ़ाने को प्रोत्साहन दिया गया था, उसी तरह अब समय आ गया है कि देश में दलहन और तिलहन के उत्पादन को बढ़ावा दिया जाए। इंडिया पल्सेस एंड ग्रेंस एसोसिएशन (आईपीजीए) के उपाध्यक्ष बिमल कोठारी ने चौथे विश्व दाल दिवस पर गुरुवार को एक वर्चुअल कार्यक्रम में यह बात कही। उन्होंने कहा कि आज दालों को नीतिगत, शोध और निवेश के स्तर पर समर्थन की जरूरत है। अभी दालों का उत्पादन 2.3 से 2.5 करोड़ टन तक पहुंच गया है।
कोठारी ने कहा कि भारत में प्रोसेसिंग इंडस्ट्री का आकार काफी बड़ा है। देशभर में कई हजार दाल मिलें हैं। लेकिन समस्या यह है कि ज्यादातर मिलें छोटी हैं और उनके पास इतने पैसे नहीं होते कि वह अपनी क्षमता बढ़ा सकें। इसलिए इन मिलों को क्षमता विस्तार में मदद के लिए सरकार को एक दाल मिल मॉडर्नाइजेशन फंड का गठन करना चाहिए।
इस मौके पर नीति आयोग के सीईओ अमिताभ कांत ने कहा कि खाद्य उत्पादन, खाद्य सुरक्षा और जलवायु परिवर्तन तीनों एक दूसरे से जुड़े हैं। जलवायु में होने वाले बदलाव से खेती के इकोसिस्टम पर दबाव आगे भी बना रहेगा। सूखा, तूफान, बाढ़ जैसी आपदाएं खेती को नुकसान पहुंचाएंगी जिसका असर खाद्य सुरक्षा पर पड़ेगा। आने वाले दिनों में खाद्य का भविष्य निश्चित रूप से दालों में है और खाद्य सुरक्षा में यह बड़ी अहम भूमिका निभाएंगे। दालें बाढ़ प्रतिरोधी होती हैं। यह प्रोटीन का सस्ता स्रोत होने के साथ मिट्टी को भी उपजाऊ बनाती हैं।
इस मौके पर कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय के एग्रीकल्चर कमिश्नर एसके मल्होत्रा ने बताया कि 2015-16 में दालों का कुल उत्पादन 1.62 करोड़ टन था जबकि मांग 2.5 करोड़ टन की थी। तब उत्पादकता बढ़ाने वाली नीति के साथ रोडमैप बनाया गया। अभी जो दालों का उत्पादन बढ़ा है, वह नई वैरायटी के आने से संभव हो सका है जिनकी उत्पादकता अधिक है। बाढ़ तथा अन्य जलवायु परिवर्तन की हालत में भी उन्हें अधिक नुकसान भी नहीं होता है।
नाफेड के अतिरिक्त मैनेजिंग डायरेक्टर सुनील कुमार सिंह ने कहा कि अगर दालों का उत्पादन तीन करोड़ टन तक पहुंच जाता है तो लोगों को कम कीमत पर दालें उपलब्ध कराई जा सकेंगी। इस लक्ष्य को वैल्यू चैन के सिर्फ एक हिस्से से हासिल नहीं किया जा सकता है। इसके लिए खेती से लेकर रिटेल स्तर तक सबकी भूमिका महत्वपूर्ण है। यह गरीबों को सस्ता प्रोटीन उपलब्ध कराने का अच्छा साधन है। इससे कुपोषण में भी कमी आएगी।