भारतीय कृषि को किसानों के लिए फायदे का सौदा बनाने और जलवायु परिवर्तन के संकट से निपटने के लिए पुराने तौर-तरीकों से अलग हटकर सोचने की जरूरत है। अभी तक की नीतियों और योजनाओं से मिश्रित सफलता मिली है, जिनमें सुधार की आवश्यकता है। साथ ही जलवायु परिवर्तन, घटते भूजल स्तर और एग्रीकल्चर रिसर्च के लिए फंडिंग की कमी जैसी चुनौतियों से निपटने की आवशयकता है।
“अमृतकाल में कृषि” विषय पर भारत कृषक समाज और रूरल वॉयस की ओर से शुक्रवार को नई दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में एक सम्मेलन का आयोजन किया गया। विशेषज्ञों का मानना है कि देश की खाद्य सुरक्षा को सुनिश्चित रखते हुए कृषि विविधिकरण, नई तकनीक और नीतिगत बदलाव अगले 25 वर्षों के लिए जरूरी हैं।
सम्मेलन को संबोधित करते हुए पूर्व खाद्य और कृषि सचिव टी. नंदकुमार ने कहा कि कृषि नीतियों को किसान केंद्रित बनाने की आवश्यकता है। यह मानसिकता बदलने की जरूरत है कि कृषि नीति और किसानों के लिए नीति अलग-अलग हैं। उन्होंने कहा कि कृषि नीतियों का लक्ष्य देश के किसानों की खुशहाली होना चाहिए। किसानों के विकल्प और निर्णयों को सीमित करने की बजाय नीतियों का जोर किसानों को स्वतंत्रता और लेने की छूट देने पर होना चाहिए। नंदकुमार ने कहा कि स्टॉक सीमा और निर्यात प्रतिबंध से जुड़े एडहॉक फैसलों से किसानों को नुकसान पहुंचता है। इसकी भरपाई कैसे होगी, इस बारे में भी सोचना चाहिए।
कार्यक्रम की शुरुआत में विषय को प्रतिभागियों के सामने रखते हुए भारत कृषक समाज के चेयरमैन अजय वीर जाखड़ ने कहा कि कृषि और किसानों से जुड़ी समस्याओं की लंबी फेहरिस्त है। इनमें नीति निर्माण, क्लाइमेट चेंज, किसानों की आय, पानी की बढ़ती समस्या, क्रेडिट, डब्लूटीओ की नीतियां और घरेलू बाजार व फसलों की वाजिब कीमत और टेक्नोलॉजी जैसे विषय शामिल हैं। कृषि के लिए नीतिगत मुद्दों पर गंभीर चिंतन के बाद नीतियां बनाने और उनको लागू करने की जरूरत है। ऐसे में अमृत काल में कृषि के लिए क्या जरूरी है, इन सब पर चिंतन करने के लिए यह कार्यक्रम आयोजित किया गया है।
सम्मेलन को संबोधित करते हुए आईटीसी के कृषि और आईटी बिजनेस के प्रमुख एस. शिवा कुमार ने कहा कि यदि हम भारतीय किसानों को समृद्ध बनाना चाहते हैं तो हमें उन्हें विश्व स्तर पर प्रतिस्पर्धी बनाना होगा। उन्होंने कहा कि भारत में कृषि से जुड़े 1500 से अधिक स्टार्टअप काम कर रहे हैं, उन्हें अपने इनोवेशन के जरिए किसानों की आय में बढ़ोतरी के उपाय निकालने होंगे।
प्रसिद्ध कृषि वैज्ञानिक और भारतीय कृषि वैज्ञानिक भर्ती बोर्ड के पूर्व अध्यक्ष डॉ. सीडी मायी ने कहा कि देश को राष्ट्रीय कृषि अनुसंधान प्रणाली (एनएआरएस) के तहत विभिन्न क्षेत्रों के अनुसंधान संस्थानों जैसे आईआईटी, आईआईएम और समाजशास्त्रियों को एकीकृत करने की आवश्यकता है। उन्होंने एग्रीकल्चर रिसर्च के लिए फंडिंग की कमी पर चिंता जताते हुए कहा कि भारत में कृषि जीडीपी का लगभग 0.4-0.6 प्रतिशत अनुसंधान पर खर्च होता है जबकि इसका विश्व औसत 0.94 प्रतिशत है। डॉ. मायी के अनुसार, "हमें अगले 25 वर्षों में इस खर्च को कम से कम कृषि जीडीपी के 1 प्रतिशत तक बढ़ाने की जरूरत है।" उन्होंने कृषि विज्ञान केंद्रों (केवीके) की भूमिका और फंडिंग में उनकी हिस्सेदारी पर फिर से विचार करने की जरूरत बताई।
पंजाब के पूर्व कृषि आयुक्त बलविंदर सिद्धू ने अपने संबोधन में कहा कि गिरते भूजल स्तर की समस्या और इससे निपटने के लिए नीतिगत उपायों पर जोर दिया। उन्होंने देश की खाद्य सुरक्षा और फसल विविधिकरण की चुनौतियों के बारे में भी अपने अनुभव साझा किए।
सम्मेलन में द्वारा होल्डिंग्स के सह-संस्थापक और प्रबंध ट्रस्टी समीर शाह ने एग्रीकल्चर क्रेडिट की मौजूदा स्थिति, फिनटेक की भूमिका और इस क्षेत्र की संभावनाओं के बारे में अपने विचार रखे।
सम्मेलन में वर्ल्ड इकनॉमिक सेंटर के सेंटर फॉर फोर्थ इंडस्ट्रियल रेवलूशन के प्रमुख पुरूषोत्तम कौशिक ने डिजिटल एग्रीकल्चर के क्षेत्र में हो रहे नए प्रयासों और नवाचारों के बारे में बताते हुए किसानों की आमदनी बढ़ाने में डिजिटल तकनीक की संभावनाओं के बारे में बताया। सम्मेलन में ओलम इंडिया के वरिष्ठ उपाध्यक्ष अनुपम कौशिक सहित कृषि क्षेत्र के कई विशेषज्ञ और किसान प्रतिनिधि शामिल हुए।