सस्टेनेबल खेती को बढ़ावा देने के लिए ऐसी बाजार व्यवस्था विकसित करने की जरूरत है जहां किसानों के लिए आमदनी के एक से अधिक साधन हों। अभी सब्सिडी, किसान कर्ज, कर्जमाफी, बिजली जैसी योजनाओं पर जो खर्च किया जाता है उस राशि का इस्तेमाल इसमें कर सकते हैं। फसल अवशेष, मवेशियों का कचरा, खाद्य प्रसंस्करण का कचरा और बायप्रोडक्ट, पत्ते, भूसा सीवीड जैसे बायोमास के वैकल्पिक इस्तेमाल को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। इससे फसल उत्पादन से होने वाली आमदनी बढ़ेगी और नए अवसर पैदा होंगे। ईको नेटवर्क नाम की संस्था ने सस्टेनेबल खेती पर अपने एक श्वेत पत्र में ये सुझाव दिए हैं। इस श्वेत पत्र का शीर्षक है 'दक्षिणी गोलार्द्ध में सस्टेनेबल खेती और खाद्य प्रणाली- भारत के लिए नजरिया' (सस्टेनेबल एग्रीकल्चर एंड फूड सिस्टम्स इन द ग्लोबल साउथ- एन इंडियन पर्सपेक्टिव)
रिपोर्ट में कहा गया है संयुक्त राष्ट्र की 1987 की रिपोर्ट के अनुसार सस्टेनेबल खेती का मतलब है भावी पीढ़ी की जरूरतों से समझौता किए बगैर समाज की मौजूदा जरूरतों को पूरा करना। विश्व के दक्षिणी गोलार्द्ध में छोटे और गरीब किसान अधिक हैं। इनमें 80 फ़ीसदी के पास 2 हेक्टेयर से भी कम जमीन है। हालांकि ये 75 फ़ीसदी फूड सप्लाई करते हैं। भारत में फसल चक्र अपनाना सस्टेनेबल खेती का सबसे लोकप्रिय माध्यम है। करीब 1.5 करोड़ किसान 3 करोड़ हेक्टेयर क्षेत्र में इसे अपनाते हैं। देश में करीब 10 लाख किसान प्राकृतिक खेती करते हैं। इनमें अधिकांश आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र और हिमाचल प्रदेश में हैं। जहां तक जैविक खेती की बात है तो सरकार के नीतिगत समर्थन के बावजूद सिर्फ दो फ़ीसदी इलाके में जैविक खेती होती है।
श्वेत पत्र के अनुसार भारत के 86-87 फ़ीसदी किसान छोटी जोत वाले हैं। इनके पास सिर्फ 47 से 48 फ़ीसदी खेती लायक जमीन है। फिर भी भारत में कृषि अर्थव्यवस्था और खाद्य सुरक्षा छोटे किसानों पर निर्भर है। खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) के एक अध्ययन के अनुसार एक हेक्टेयर से कम जमीन वाले किसानों ने कुल अनाज उत्पादन में बड़ी जोत वाले किसानों से अधिक योगदान किया है। इस योगदान के बावजूद देश के गरीबों में 60 फ़ीसदी हिस्सा इन्हीं का है। होता है यह है कि छोटी जोत वाले किसान जो कुछ उगाते हैं उसमें से ज्यादातर की खपत खुद करते हैं। इसलिए इन किसानों को खेती का सस्टेनेबल तरीका अपनाने में मदद करने की जरूरत है।
उपज की मार्केटिंग, ऑर्गेनिक फार्म इनपुट के लिए पूंजी की जरूरत, फसल तैयार होने के बाद उन्हें नष्ट होने से बचाने के लिए किसानों और उपभोक्ताओं के बीच बेहतर लॉजिस्टिक और टेक्नोलॉजी की पहुंच ऐसी समस्याएं हैं जो सस्टेनेबल खेती अपनाने में बाधक हैं। सरकार और एजेंसियों की तरफ से इस दिशा में काफी निवेश किया गया है लेकिन नतीजे मनमाफिक नहीं रहे हैं।
सस्टेनेबल खेती अपनाने की दिशा में उपभोक्ता अहम भूमिका निभा सकते हैं। कोविड-19 महामारी के बाद खाद्य, स्वास्थ्य और पर्यावरण के बीच संबंधों को लेकर लोगों में जागरूकता बढ़ी है। सस्टेनेबल खेती को सफलतापूर्वक अपनाने के लिए जरूरी है कि नीति निर्माता, निवेशक, किसान, डिस्ट्रीब्यूटर, रिटेलर और उपभोक्ता सब एक दिशा में सोचें। इस बदलाव के लिए रणनीति और व्यवहार दोनों में आमूलचूल परिवर्तन की जरूरत होगी। भारत में इस परिवर्तन के लिए कुछ सुझाव दिए गए हैं।
डेनमार्क में इंडस्ट्री, विश्वविद्यालय तथा अन्य संगठन साथ काम करते हैं और विचारों का आदान-प्रदान करते हैं। यह आदान-प्रदान सिर्फ फसल सुरक्षा को लेकर नहीं बल्कि बायो फर्टिलाइजर और बायोस्टीमुलांट्स को लेकर भी होता है। भारत में भी संसाधन सघन खाद्य प्रणाली की जगह ज्ञान सघन खाद्य प्रणाली को बढ़ावा देने की जरूरत है।
श्वेत पत्र के अनुसार ऐसे किसान समूह गठित किए जाने चाहिए जहां किसान पेशेवर सलाहकारों के साथ अपनी समस्याओं पर चर्चा कर सकें। नीति निर्माताओं, बैंकरों, छोटे कर्ज देने वाले संस्थानों, कोऑपरेटिव और आम लोगों को भी खाद्य प्रणाली के बारे में जागरूक करने की जरूरत है। ऐसे उपाय भी किए जाने चाहिए जिससे उपभोक्ताओं में सस्टेनेबल खेती के तौर तरीकों को अपनाने के प्रति जागरूकता बढ़े और किसानों को उसका लाभ मिले। वर्कशॉप आयोजित कर और आसान टूल किट तैयार करके युवा किसानों को तैयार किया जा सकता है। ऐसे केंद्र विकसित किए जाने चाहिए जिनसे किसान नई टेक्नोलॉजी पॉलिसी और योजनाओं का अधिक से अधिक फायदा उठा सकें। स्वयं सहायता समूह और किसान कोऑपरेटिव इसमें मदद कर सकते हैं।
ऐसे सक्षम थिंक टैंक स्थापित करने की जरूरत है जो नीति निर्माताओं के फैसलों को प्रभावित कर सके। भारत में नीति आयोग ऐसा थिंक टैंक है जो सरकार को नीतियों के मामले में इनपुट प्रदान करता है। ऐसी नीतियों से बचना चाहिए जिनसे प्राकृतिक संसाधनों के अत्यधिक दोहन को बढ़ावा मिलता हो। पानी बचाने, जैव विविधता को बढ़ावा देने और मिट्टी की सेहत सुधारने वाली नीतियां बनाई जानी चाहिए।
सस्टेनेबल खेती की जरूरत बताते हुए श्वेत पत्र में कहा गया है कि भारत में आबादी के दबाव, ग्रामीण गरीबी, प्राकृतिक संसाधनों का खत्म होना, नीतिगत खामियों और लैंगिक असमानता के चलते कृषि का मुद्दा दिनोंदिन गंभीर होता जा रहा है। अगले 50 वर्षों में खाद्य पदार्थों की मांग दोगुनी हो जाने की उम्मीद है जिसका दबाव कृषि व्यवस्था पर पड़ेगा। इन चिंताओं के साथ जलवायु परिवर्तन के विपरीत प्रभाव ने हमारी खाद्य सुरक्षा को खतरे में डाल दिया है। इस समय दुनिया में 5 साल से कम उम्र के 13 फ़ीसदी बच्चे कुपोषण की वजह से मौत के शिकार हो जाते हैं। भारत में यह अनुपात 20 फीसदी है।
दक्षिणी गोलार्द्ध के देश हरित क्रांति के दौरान बृहद पैमाने पर हुई खेती के विपरीत प्रभावों से अभी तक उबर नहीं पाए हैं। टेक्नोलॉजी में तरक्की के साथ कृषि रसायनों और खासकर कीटनाशकों का इस्तेमाल बहुत बढ़ा है लेकिन इससे अनेक लाभदायक कीट खत्म होने के कगार पर पहुंच गए हैं।