केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने बजट से पहले मंगलवार को संसद में आर्थिक सर्वे 2022-23 पेश किया। सर्वे में वित्त वर्ष 2023-24 में भारत की विकास दर 6-6.8 फीसदी रहने का अनुमान जताया गया है जो ग्लोबल आर्थिक और राजनीतिक स्थिति पर निर्भर करेगा। जबकि वास्तविक रूप से 6.5 फीसदी विकास दर का अनुमान सर्वे में लगाया गया है। यह अनुमान विश्व बैंक, आईएमएफ, एडीबी और आरबीआई द्वारा लगाए गए अनुमानों के बराबर ही है। वहीं मार्च 2023 में समाप्त होने वाले चालू वित्त वर्ष 2022-23 के लिए 7 फीसदी विकास दर की उम्मीद जताई गई है जो इससे पिछले वित्त वर्ष 2021-22 के 8.7 फीसदी वृद्धि दर से करीब दो फीसदी कम है।
वित्त मंत्री द्वारा संसद में आर्थिक सर्वे पेश किए जाने के बाद मुख्य आर्थिक सलाहकार वी अनंत नागेश्वरन ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में विस्तार से इसकी जानकारी दी। उन्होंने कहा कि कोविड-19, रूस-यूक्रेन युद्ध और महंगाई घटाने के लिए फेडरल रिजर्व के नेतृत्व में दुनियाभर के केंद्रीय बैंकों द्वारा ब्याज दरें बढ़ाने जैसे झटकों के बावजूद भारतीय अर्थव्यवस्था तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में शुमार है। अमेरिकी डॉलर की मजबूती और चालू खाते के बढ़ते घाटे के बावजूद दुनिया भर की एजेंसियां ने वित्त वर्ष 2022-23 में 6.5-7 फीसदी की दर से सबसे तेजी से बढ़ती प्रमुख अर्थव्यवस्था के रूप में भारत को प्रोजेक्ट करना जारी रखा है। उन्होंने कहा कि महामारी की वजह से देश की अर्थव्यवस्था में जो सुस्ती आई थी और जो कुछ खोया था उसकी लगभग भरपाई हो गई है। आर्थिक सर्वे मुख्य रूप से इस बात की समीक्षा करता है कि अगले वित्त वर्ष की निश्चित परियोजनाओं के साथ पिछले वर्ष में अर्थव्यवस्था कैसी रही।
सर्वे के मुताबकि, भारत दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया है। इस साल मार्च में भारत की नॉमिनल जीडीपी लगभग 3.5 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर रहेगी। इसमें कहा गया है कि उपभोक्ता कीमतों में बढ़ोतरी की रफ्तार काफी धीमी हो गई है। सालाना महंगाई दर 6 फीसदी से नीचे है और थोक कीमतें 5 फीसदी से कम की दर से बढ़ रहे हैं। जबकि चालू वित्त वर्ष के पहले नौ महीनों में वस्तुओं और सेवाओं का निर्यात 2021-22 की इसी अवधि की तुलना में 16 फीसदी बढ़ा है। आर्थिक सर्वे में भारत की विकास दर का जो अनुमान लगाया गया है वह आईएमएफ के 6.1 फीसदी के अनुमान से कहीं ज्यादा है। आईएमएफ ने सोमवार को ही यह अनुमान जारी किया है। इसकी वजह यह है कि सरकार को पूरी उम्मीद है कि ग्लोबल कमजोरी के बावजूद घरेलू मांग अगले वित्त वर्ष में काफी मजबूत रहेगी।
सर्वे रिपोर्ट में कहा गया है कि वैश्विक स्तर पर आर्थिक और राजनीतिक हालात के आधार पर वास्तविक जीडीपी ग्रोथ संभवतः 6-6.8 फीसदी रहेगी। जबकि वित्त वर्ष 2022-23 में जीडीपी ग्रोथ 7 फीसदी से ज्यादा रहने का अनुमान लगाया गया है। 2021-22 में जीडीपी की वृद्धि दर 8.7 फीसदी रही थी। सर्वे में कहा गया है कि निजी खपत को रोकने के लिए महंगाई बहुत ज्यादा नहीं थी और न ही निवेश को कमजोर करने के लिहाज से बहुत कम थी। हालांकि, यह 2022-23 में रिजर्व बैंक की 2-6 फीसदी की लक्ष्य सीमा से ऊपर रही है। दिसंबर 2022 में उपभोक्ता कीमतें एक साल पहले की तुलना में 5.72 फीसदी अधिक थीं।
बढ़ेगा चालू खाते का घाटा
आर्थिक सर्वे में चालू खाते का घाटा अधिक रहने का अनुमान लगाया गया है जो चिंता की बात है। किसी भी अर्थव्यवस्था के लिए यह ठीक नहीं समझा जाता है। हालांकि इसके पीछे वजह यह बताई गई है कि एक मजबूत स्थानीय अर्थव्यवस्था आयात का समर्थन करेगी जबकि वैश्विक अर्थव्यवस्था में कमजोरी के कारण निर्यात में कमी आएगी। ग्लोबल स्तर पर कमोडिटी की कीमतें बढ़ने और रुपया कमजोर होने के चलते चालू खाते का घाटा लगातार बढ़ता जा रहा है। सर्वे के मुताबकि, चालू खाते का घाटा (सीएडी) बढ़ना जारी रह सकता है क्योंकि ग्लोबल स्तर पर कमोडिटी की कीमतें ऊंची बनी हुई हैं लेकिन देश की आर्थिक विकास की गति मजबूत बनी हुई है। यदि घाटा और बढ़ता है तो रुपया दबाव में आ सकता है। हालांकि, भारत के पास चालू खाते के घाटे को वित्त पोषित करने और रुपये की अस्थिरता को प्रबंधित करने के लिए पर्याप्त विदेशी मुद्रा भंडार है। चालू वित्त वर्ष की जुलाई-सितंबर तिमाही में चालू खाते का घाटा जीडीपी के 4.4 फीसदी पर पहुंच गया है। यह अप्रैल-जून तिमाही के 2.2 फीसदी के मुकाबल दोगुनी है। जबकि वित्त वर्ष 2021-22 की इसी तिमाही में चालू खाते का घाटा जीडीपी का 1.3 फीसदी था।
आर्थिक समीक्षा में यह भी कहा गया है कि विकसित देशों में ज्यादा महंगाई रहने और वहां के केंद्रीय बैंकों द्वारा ब्याज दरों में वृद्धि जारी रखने की उम्मीद के कारण वैश्विक आर्थिक दृष्टिकोण के लिए जोखिम ऊंचा बना हुआ है। अमेरिकी केंद्रीय बैंक फेडरल रिजर्व द्वारा ब्याज दरों में और बढ़ोतरी किए जाने की संभावना के साथ रुपये में गिरावट की चुनौती बनी हुई है। इससे लंबी अवधि के लिए कर्ज की लागत ज्यादा रह सकती है और महंगाई रोकने के उपायों को लंबा खींच सकती है।