पांच राज्यों के विधान सभा चुनाव तय करेंगे किसानों और उनके मुद्दे का राजनीतिक असर

पांच राज्यों के विधान सभा चुनाव जो भी नतीजे लेकर आएंगे उसका दूरगामी असर देश की राजनीति, अर्थव्यवस्था और किसानों व कृषि से जुड़ी नीतियों पर पड़ना तय है। यह इसलिए भी अहम है क्योंकि जहां यह चुनाव खेती किसानी के मामले में सबसे कामयाब रहे सूबे पंजाब में हो रहे हैं वहीं देश की सबसे बड़ी आबादी वाले राज्य उत्तर प्रदेश और इसका पुराना हिस्सा रहे उत्तराखंड में भी हो रहे हैं और यहां की अधिकांश आबादी खेती पर निर्भर है

पांच राज्यों के विधान सभा चुनावों का कार्यक्रम घोषित करते मुख्य चुनाव आयुक्त

चुनाव आयोग ने पांच राज्यों की विधान सभा के लिए चुनाव कार्यक्रम घोषित कर दिया है। ये चुनाव नये माहौल और नई परिस्थतियों के बीच हो रहे हैं। एक ओर जहां पिछले दो साल से कोरोना महामारी के चलते अर्थव्यवस्था को भारी नुकसान पहुंचा है और वह अभी तक पटरी पर नहीं आई है तो दूसरी ओर 2020 के जून माह से दिसंबर 2021 तक देश ने कई दशकों के बाद अभी तक के सबसे बड़े किसान आंदोलन को देखा। इस आंदोलन की उपलब्धि भी बड़ी रही है क्योंकि आंदोलनरत किसानों की सबसे बड़ी मांग को सरकार ने स्वीकार कर तीन नये केंद्रीय कृषि कानूनों को रद्द कर दिया है। इस दोहरी पृष्ठभूमि के बीच पांच राज्यों के चुनाव जो भी नतीजे लेकर आएंगे उसका दूरगामी असर देश की राजनीति, अर्थव्यवस्था और किसानों व कृषि से जुड़ी नीतियों पर पड़ना तय है। यह इसलिए भी अहम है क्योंकि जहां यह चुनाव खेती-किसानी के मामले में सबसे कामयाब रहे सूबे पंजाब में हो रहे हैं, वहीं देश की सबसे बड़ी आबादी वाले राज्य उत्तर प्रदेश और कभी इसका हिस्सा रहे उत्तराखंड में भी हो रहे हैं। गोवा और मणिपुर में विधान सभा चुनावों पर किसानों से जुड़े मुद्दों का सीधे कोई असर होगा यह कहना मुश्किल है क्योंकि वहां के स्थानीय मुद्दे कुछ अलग हैं।

जहां तक कोरोना महामारी से आर्थिक स्थिति पर असर की बात है, उसमें कृषि क्षेत्र अकेला अर्थव्यवस्था का वह हिस्सा है जो लगभग अछूता रहा है। पिछले दो साल में कृषि क्षेत्र तीन फीसदी से अधिक की वृद्धि दर से बढ़ा है। दो दिन पहले आये सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के पहले आरंभिक अनुमानों के मुताबिक चालू साल में कृषि और सहयोगी क्षेत्र की वृद्धि दर 3.9 फीसदी रहेगी। हालांकि अर्थव्यवस्था 9.2 फीसदी की दर से बढ़ेगी, लेकिन यह 7.7 फीसदी की गिरावट के बाद की वृद्धि दर है जो कृषि को बाकी क्षेत्रों से अलग करती है। यानी कृषि और सहयोगी क्षेत्र की वृद्धि दर का आधार ऊंचा है और इस पर 3.9 फीसदी की वृद्धि दर इसके आकार को अधिक बढ़ाती है। जबकि बाकी अर्थव्यवस्था अब भी 2019-20 के स्तर पर नहीं पहुंची है। लेकिन इसका यह मतलब भी नहीं है कि कृषि और ग्रामीण अर्थव्यवस्था बेहतर स्थिति में है। पिछले दिनों किसानों पर आये सीएसओ के सिस्टेमेटिक असेसमेंट सर्वे में साफ हो गया कि किसानों की कृषि से होने वाली आय के मुकाबले गैर कृषि कार्यों से होने वाली आय में अधिक बढ़ोतरी हुई है। यानी ग्रामीण अर्थव्यवस्था का स्वरूप बदल रहा है। इसके साथ ही किसानों में कर्ज का स्तर बढ़ा है। यानी किसानों की फसलों से होने वाली आय बेहतर स्थिति में नहीं है, इसीलिए उनका गुस्सा बढ़ रहा है। यही वजह है कि केंद्र सरकार द्वारा लाये गये तीन कानूनों के खिलाफ किसानों ने बड़ा आंदोलन किया और यह आंदोलन  तमाम प्रतिकूल परिस्थितियों में एक साल तक चला जिसके चलते सरकार को ये कानून रद्द करने पड़े।


कानून वापस हो गये लेकिन किसानों और कृषि क्षेत्र का मसला अभी ज्यों का त्यों है। इसलिए यह चुनाव अहम हैं। राजनीतिक दल किसानों के मत पाने के लिए अपने दावे और वादों पर बात करेंगे। पंजाब में कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार अपने दावे करेगी, उसने किसानों का कर्ज भी माफ किया, लेकिन एक सीमा तक ही कर्ज माफ करने की नीति के चलते सभी किसान खुश नहीं हैं। यह बात साफ है कि गेहूं और धान की सरकारी खरीद को लेकर किसानों को कोई शिकायत नहीं होगी क्योंकि वहां इनकी रिकार्ड खरीद हो रही है। किसानों को बिजली सब्सिडी पर सरकार ने उसके द्वारा गठित समिति की रिपोर्ट पर कोई फैसला नहीं लिया। हालांकि समिति की सिफारिशों पर सवाल भी उठे क्योंकि वह समिति के सभी सदस्यों की राय नहीं थी। गन्ना किसानों के लिए गन्ना के राज्य परामर्श मूल्य (एसएपी) में काफी बढ़ोतरी की गई और चालू पेराई सीजन में यह उत्तर प्रदेश से अलग है। वहीं तीन नये केंद्रीय कृषि कानूनों के खिलाफ किसानों के आंदोलन को पंजाब की कांग्रेस सरकार ने पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह और मौजूदा मुख्यमंत्री चरनजीत सिंह चन्नी दोनों ने समर्थन दिया। हालांकि अब आंदोलन करने वाली किसानों की 32 जत्थेबंदियों में से 22 जत्थेबंदियों ने संयुक्त समाज मोर्चा बनाकर चुनाव लड़ने का फैसला किया है। यह सारे मसले चुनाव पर असर डालेंगे।

जहां तक उत्तर प्रदेश की बात है तो वहां आंदोलन का असर पश्चिमी उत्तर प्रदेश और तराई के इलाके में अधिक रहा है। कर्ज माफी उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार ने भी की थी। लेकिन तमाम दावों के उलट वहां कई मसले हैं जो किसानों के मतों पर असर डालेंगे। मसलन सबसे मजबूत किसान लॉबी गन्ना किसानों के लिए राज्य सरकार ने तीन साल तक गन्ने के राज्य परामर्श मूल्य (एसएपी) को फ्रीज रखा और चुनाव के ठीक पहले अपने अंतिम साल में केवल 25 रुपये प्रति क्विटंल की मामूली बढ़ोतरी की। इसके बाद एसएपी 350 रुपये प्रति क्विटंल हो गया लेकिन यह भाजपा शासित पड़ोसी राज्य हरियाणा के 362 रुपये प्रति क्विटंल से कम है। इसका अहसास किसानों को रहेगा। गन्ना मूल्य के भुगतान में देरी और देरी से हुए भुगतान पर कानूनी प्रावधान होने के बावजूद गन्ना किसानों को ब्याज नहीं मिला। इसका असर चुनावों पर पड़ सकता है। इसके अलावा किसानों के लिए बिजली दरों में बढ़ोतरी की गई थी जिसमें चुनाव की घोषणा के चंद दिनों पहले कमी की गई। यह फैसला भाजपा सरकार की उस चिंता का संकेत है जो बिजली दरों में बढ़ोतरी से चुनावी नुकसान की उसकी आशंका को साबित करती है। धान हो या गेहूं, दोनों की सरकारी खरीद की स्थिति बेहतर नहीं होने के चलते बड़ी संख्या में किसानों को ये फसलें न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) से काफी कम दाम पर बेचनी पड़ीं। हालांकि राज्य सरकार, केंद्र सरकार की प्रधानमंत्री किसान कल्याण योजना के तहत किसानों को सालाना मिलने वाले 6,000 रुपये का फायदा लेने की कोशिश करेगी। 

वैसे उत्तर प्रदेश का चुनावी गणित पूरी तरह से किसानों के मुद्दों पर केंद्रित नहीं रहता और यह चुनाव भी इसका अपवाद नहीं होगा। उत्तर प्रदेश में जाति, धर्म और क्षेत्रीयता नतीजों को बड़े पैमाने पर प्रभावित करते हैं। लेकिन ऐसा भी नहीं है कि जिस किसान आंदोलन का असर देश के हर हिस्से में किसानों को अपने हक के लिए जागरूक कर गया है उससे उत्तर प्रदेश के किसान अछूते रहेंगे। एमएसपी की अहमियत किसानों को जिस तरह से किसानों के देश के बाकी हिस्से में समझ आई है वह उत्तर प्रदेश में भी आ रही है। ऐसे में भाजपा और विपक्ष दोनों के दावों और वादों को किसान जरूर तोलेंगे और राज्य के एक बड़े हिस्से में किसानों की नाराजगी का भाजपा को नुकसान हो सकता है।

जहां तक उत्तराखंड की बात है तो वहां की सरकार का गठन राज्य का मैदानी इलाका काफी हद तक तय करता ह, क्योंकि इस हिस्से में सरकार का फैसला करने के लिए सीटों की जरूरी तादाद है। यहां के किसान पश्चिमी उत्तर प्रदेश और तराई के किसानों से अलग नहीं हैं। इसलिए किसानों के मुद्दों का असर यहां के चुनावों पर पड़ना तय है।

हालांकि चुनाव काफी नजदीक हैं और अभी तक किसानों का मसला काफी अहम और नतीजों को प्रभावित करने वाला लग रहा है। आने वाले दिनों में पार्टियों के चुनाव घोषणापत्र और सत्तारूढ़ दलों के दावे मतदाताओं द्वारा तौले जाएंगे। यह एक बड़ा तथ्य है कि उत्तर प्रदेश, पंजाब और उत्तराखंड बड़ी ग्रामीण आबादी और कृषि पर आधारित अर्थव्यवस्था वाले राज्य हैं। इसलिए यहां खेती-किसानी से जुड़े मसले चुनावी नतीजों की दिशा तय करेंगे। लेकिन अगर नतीजे इस बात को साबित नहीं करते हैं तो इन चुनावों के बाद किसानों के मुद्दे भी कमजोर पड़ जाएंगे और साल भर से अधिक चले किसान आंदोलन ने जो दबाव सरकार पर बनाया है,  वह भी कमजोर पड़ जाएगा।