बेहतर वित्तीय संसाधनों की उपलब्धता कृषि उत्पादन में 24 फीसदी तक बढ़ोतरी करने की क्षमता रखती है। वहीं जलवायु परिवर्तन जैसे जोखिम को 16 फीसदी तक कम करने में वित्तीय संसाधन कारगर हो सकते हैं। यह महत्वपूर्ण तथ्य भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) के राष्ट्रीय कृषि आर्थिकी एवं नीति अनुसंधान संस्थान (एनआईएपी) के एक पॉलिसी पेपर ‘केन फाइनेंस मीटिगेट क्लाइमेट रिस्क्स इन एग्रीकल्चर’ में सामने आया है।
यह पेपर वित्तीय संसाधनों को केंद्र में रखकर कृषि उत्पादन और जलवायु परिवर्तन से जुड़े जमीनी तथ्यों के आधार पर पड़ताल करने के बाद उपरोक्त नतीजा बताता है। इस पेपर को संस्थान के डायरेक्टर प्रताप एस बिरथल, वाशिंगटन स्थित आईएफपीआरआई के सीनियर रिसर्च फैलो देवेश रॉय, ओहायो स्टेट यूनिवर्सिटी के पोस्ट डॉक्टोरल स्कोलर जावेरियाह हजराना और नाबार्ड के पूर्व चीफ जनरल मैनेजर केजेएस सत्यसाईं ने लिखा है।
पेपर में कहा गया है कि वित्तीय संसाधनों के कृषि उत्पादन पर असर का आकलन किया जा सकता है। इसके चलते उत्पादकता में 24 फीसदी तक की बढ़ोतरी संभव है जबकि उत्पादकता घटने के जोखिम को यह 16 फीसदी तक कम कर सकता है। इसका वित्तीय संसाधनों के संगठित क्षेत्र या असंगठित क्षेत्र के जरिए उपलब्धता से सीधा संबंध है। संगठित क्षेत्र से उपलब्ध वित्तीय संसाधन असंगठित क्षेत्र के स्रोत से हासिल संसाधनों के मुकाबले दोगुना अधिक प्रभावी हैं। वहीं जोखिम को कम करने में भी संगठित क्षेत्र से उपलब्ध संसाधन अधिक कारगर हैं। हालांकि दोनों एक दूसरे के पूरक भी हैं।
पेपर की एक अहम सिफारिश में कहा गया है कि क्लामेइट एक्शन के लिए 40 फीसदी वित्तीय संसाधनों का आवंटन किया जाना चाहिए। इसके साथ शार्ट टर्म क्रेडिट का अगर पूंजीगत निवेश के रूप में उपयोग होता है तो वह अधिक फायदेमंद रहता है। फिलहाल कृषि में लघु अवधि और दीर्घअवधि संसाधनों का अनुपात 3:2 का है। जबकि इसे इसके उलट होना चाहिए। दीर्घकालिक संसाधनों में बढ़ोतरी के जरिये कृषि क्षेत्र में कमजोर पूंजी निर्माण की स्थिति और जोखिम के लिए जरूरी वित्तीय संसाधनों की स्थिति को सुधारा जा सकता है।
पेपर में रेखांकित किया गया है कि ग्रामीण वित्तीय बाजार में वित्तीय संसाधनों की उपलब्धता के मामले में स्थिति महिलाओं और छोटे किसानों के प्रतिकूल है जबकि उनको ही अधिक वित्तीय संसाधनों की दरकार है। इसके साथ ही हार्टिकल्चर फसलों, पशुपालन और दूसरे गैर-फसली कामकाज के जरिये आय के स्रोत के विविधिकरण के लिए 30 फीसदी बढ़ोतरी की जरूरत है जो आईटी, इनपुट, फसल बीमा और दूसरी सेवाओं के लिए जरूरी है।
पेपर में कहा गया है कि कृषि में जलवायु परिवर्तन के जोखिम को देखते हुए रिक्स मैनेजमेंट पर जोर देने के लिए नीतिगत बदलाव की जरूरत है। भारत की कृषि नीति व क्रेडिट नीति मुख्य रूप से उत्पादन केंद्रित है। लेकिन जलवायु परिवर्तन के बढ़ते जोखिम को देखते हुए इसे कृषि फाइनेंस और क्रेडिट प्लानिंग के साथ जोड़ने की जरूरत है। वहीं क्लाइमेट स्मार्ट इंटरवेंशन के जरिये क्षेत्र विशेष पर आधारित उपायों को तैयार करना होगा। वित्तीय संस्थानों को सभी भागीदारों, समुदायों और रिसर्च संस्थानों के साथ मिलकर काम करने की जरूरत है। जिनमें स्वयंसेवी समूह, एक्सटेंशन एजेंसीज, गैर सरकारी संगठन, एग्रीबिजनेस कंपनियां और पंचायत स्तर पर काम करने वाली संस्थाएं शामिल हैं। इसके जरिये एग्रो क्लाइमेटिक परिस्थितियों के आधार पर जोखिम कम करने के उपायों को प्रभावी तरीके से लागू किया जा सकता है।
वित्तीय संस्थानों को किसान समुदाय की वित्तीय जरूरतों, खासतौर से छोटे किसानों की जरूरत, को ध्यान रखते हुए बाजार द्वारा होने वाले भेदभाव को दूर करने के तरीके अपनाने चाहिए। इसके लिए कोलेटरल के चलते बढ़ने वाली वित्तीय लागत को कम करने के उपाय खोजने की जरूरत है साथ ही लेन-देन की लागत को घटना जरूरी है। सामुदायिक स्तर पर प्रबंधित संसाधनों में निवेश के जरिये छोटे किसानों की मदद की जा सकती है।
पेपर में कहा गया है निजी क्षेत्र के एग्रीटेक निवेश का बड़ा हिस्सा फसल उपरांत प्रबंधन और रिटेल की गतिविधियों में ही लगा है। जबकि इसके साथ ही क्लाइमेट रिस्क को करने वाले कदमों पर भी निवेश किया जा सकता है। इसके लिए एग्रीबिजनेस फर्म, स्टार्ट-अप्स, कोआपरेटिव्स और एफपीओ के बीच समझौते का सुझाव दिया गया है।
सरकार द्वारा हाल ही में कार्बन और ग्रीन क्रेडिट नेशनल मार्केट का हवाला देते हुए पेपर में कहा गया है कि संबंधित भागीदार जलवायु परिवर्तन जोखिम को करने वाली तकनीक का इस्तेमाल कर प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण कर सकते हैं। किसानों और दूसरे भागीदारों को वित्तीय संसाधान उपलब्ध कारकर वित्तीय संस्थान इस मार्केट में अहम भूमिका अदा कर सकते हैं।
क्लाइमेट स्मार्ट इंटरवेंशन के फायदों का आकलन एक पेचीदा मामला है क्योंकि इसमें फसलों का उत्पादकता जुड़े कई तरह के सिस्टम काम करते हैं। क्लाइमेट स्मार्ट कदमों के फायदे और नुकसान का आकलन करने के मौजूदा मानक अभी बहुत विश्वसनीय नहीं हैं। इस स्थिति में कृषि बीमा जोखिम से सुरक्षा का एक महत्वपूर्ण उपाय है। लेकिन इसके लिए प्रीमियम का भुगतान फसल उत्पादन सीजन के पहले होना चाहिए और यह ऐसा समय होता है जब किसान अपने सीमित वित्तीय संसाधनों के साथ कई दूसरी जरूरतों को पूरा करने लिए जूझता रहता है। भारत में 2020 तक फसल बीमा बैंकों और वित्तीय संस्थानों से कर्ज लेने वाले किसानों के लिए अनिवार्य था। इसकी एक वजह बीमा कंपनियों की ट्रांजेक्शन लागत को कम रखना भी थी। लेकिन अब यह अनिवार्यता समाप्त होने से फसल बीमा सुविधा लेने पर इसका प्रतिकूल असर पड़ सकता है।