देश में हरित क्रांति के जनक और दुनिया के सबसे प्रतिष्ठित कृषि वैज्ञानिकों में शुमार डॉ. एमएस स्वामीनाथन का 98 वर्ष की उम्र में गुरुवार को चेन्नई में निधन हो गया। 7 अगस्त, 1925 को कुंभकोणम में जन्मे स्वामीनाथन का पूरा नाम मनकोम्बु संबासिवन स्वामीनाथन था। देश की खाद्य आत्मनिर्भरता में उनका सबसे बड़ा योगदान है। सी2 लागत पर 50% मुनाफा देकर न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की उनकी सिफारिश ने उन्हें किसानों के घर-घर तक पहुंचा दिया।
स्वामीनाथन उम्र संबंधी बीमारियों से काफी समय से पीड़ित थे। गुरुवार को 11.20 बजे उन्होंने अंतिम सांस ली। उनकी तीन बेटियां हैं- सौम्या स्वामीनाथन, मधुरा स्वामीनाथन और नित्या राव। उनकी पत्नी मीना स्वामीनाथन की मृत्यु पहले ही हो गई थी। सर्जन पिता एम.के. संबासिवन और मां पार्वती थंगम्मल के घर जन्मे स्वामीनाथन की स्कूली शिक्षा कुंभकोणम में ही हुई। कृषि विज्ञान में उनकी गहरी रुचि थी। स्वतंत्रता आंदोलन में उनके पिता की भागीदारी और महात्मा गांधी के प्रभाव ने उन्हें इस विषय में उच्च अध्ययन करने के लिए प्रेरित किया, नहीं तो वे एक पुलिस अधिकारी बन गए होते जिसके लिए उन्होंने 1940 के दशक के अंत में योग्यता हासिल कर ली थी। तब तक उन्होंने दो स्नातक डिग्रियां प्राप्त कर लीं थी जिनमें से एक कृषि महाविद्यालय, कोयंबटूर (अब तमिलनाडु कृषि विश्वविद्यालय) से थी।
डॉ. स्वामीनाथन ने 'हरित क्रांति' की सफलता के लिए दो केंद्रीय कृषि मंत्रियों सी. सुब्रमण्यम (1964-67) और जगजीवन राम (1967-70 और 1974-77) के साथ मिलकर काम किया। हरित क्रांति की बदौलत ही भारत गेहूं और चावल के उत्पादन में आत्मनिर्भर बन पाया। प्रसिद्ध अमेरिकी कृषि वैज्ञानिक और 1970 के नोबेल पुरस्कार विजेता नॉर्मन बोरलाग की गेहूं पर खोज ने इस संबंध में बड़ी भूमिका निभाई थी।
स्वामीनाथन को संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम द्वारा "आर्थिक पारिस्थितिकी के जनक" के रूप में भी जाना जाता था। भारत में ज्यादा उपज देने वाली गेहूं और चावल की किस्मों को विकसित करने और उनका नेतृत्व करने के लिए उन्हें 1987 में पहले विश्व खाद्य पुरस्कार से सम्मानित किया गया जिसके बाद उन्होंने चेन्नई में एमएस स्वामीनाथन रिसर्च फाउंडेशन की स्थापना की।
स्वामीनाथन को 1971 में रेमन मैग्सेसे पुरस्कार और 1986 में अल्बर्ट आइंस्टीन विश्व विज्ञान पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया था। स्वामीनाथन ने धान की ज्यादा उपज देने वाली किस्मों को विकसित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई जिससे यह सुनिश्चित करने में मदद मिली कि भारत के कम आय वाले किसान अधिक उत्पादन कर सकें।