फल और सब्जियां जल्दी खराब हो जाने वाली चीज हैं। किसानों को अक्सर इस कारण नुकसान भी उठाना पड़ता है। लेकिन अब ऐसी तकनीक आ गई है जिससे किसानों की इस समस्या का काफी हद तक समाधान हो सकता है। दरअसल आईआईटी गुवाहाटी के वैज्ञानिकों ने ऐसी बायोडिग्रेडेबल कोटिंग तैयार की है जिससे किसान फल और सब्जियों को 2 महीने तक ताजा रख सकते हैं। यह कोटिंग एडिबल यानी खाने योग्य होती है।
वैज्ञानिकों का दावा है कि कोटिंग में इस्तेमाल किए गए मटेरियल का आलू, टमाटर, हरी मिर्च जैसी सब्जियों और स्ट्रॉबेरी, सेब, अनानास, कीवी जैसे फलों पर परीक्षण किया गया है।
यह रिसर्च फल और सब्जियों में अंकुर निकलने तथा उन्हें सड़ने से रोकने के लिए की गई थी। इसका एक और मकसद उत्पादन और सप्लाई चैन में खाद्य पदार्थों के नुकसान को कम कर संयुक्त राष्ट्र के सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल्स टिकाऊ विकास के लक्ष्य एसडीजी को हासिल करना भी है।
आईआईटी गुवाहाटी की टीम का नेतृत्व प्रोफेसर विमल कटियार ने किया जो डिपार्टमेंट ऑफ केमिकल इंजीनियरिंग एंड सेंटर फॉर एक्सीलेंस इन सस्टेनेबल पॉलीमर से जुड़े हैं। अन्य शोधकर्ताओं में प्रोफेसर वैभव वी गौड़, रिसर्च स्कॉलर सुश्री कोना मंडल, ताबली घोष, मंडावी गोस्वामी, शिखा शर्मा और सोनू कुमार शामिल हैं।
इनका शोध पत्र रॉयल सोसायटी आफ केमिस्ट्री एडवांसेस (https://doi.org/10.1039/D2RA00949H), फूड पैकेजिंग एंड शेल्फ लाइफ, फूड केमेस्ट्री, आईजेबीएम, एसीएस-जेएफसी और अमेरिकन केमिकल सोसायटी की फूड साइंस एंड टेक्नोलॉजी (https://doi.org/10.1021/acsfoodscitech.2c00174 ) में प्रकाशित हुआ है।
समस्याएं और चुनौतियां:
अलग-अलग रिपोर्ट के अनुसार भारत में तैयार होने के बाद उचित रखरखाव के अभाव में के कारण 20 से 35% बागवानी फसलें बर्बाद हो जाती हैं। इन फसलों को संरक्षित रखने के लिए उचित सुविधाओं का अभाव है। स्टोरेज, प्रोसेसिंग, ग्रेडिंग, पैकिंग और ट्रांसपोर्टेशन जैसी सुविधाओं की कमी के कारण ऐसा होता है। भारत चीन के बाद बागवानी फसलों का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक है।
प्रोफेसर विमल कटियार के अनुसार भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) के मुताबिक खराब स्टोरेज व्यवस्था के कारण 4.6% से 15.9% तक फल और सब्जियां नष्ट हो जाती हैं। आलू, प्याज और टमाटर जैसी फसलों में तो फसल तैयार होने के बाद नुकसान 19% तक चला जाता है जिसकी वजह से इनकी कीमतों में भी इजाफा होता है।
वैज्ञानिकों का मानना है कि उन्होंने जो नई तकनीक विकसित की है उससे देश को सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल के लक्ष्य 12.3 को हासिल करने में मदद मिलेगी।
कोटिंग और उससे जुड़े शोध:
शोधकर्ताओं ने माइक्रो एल्गी के एक्सट्रैक्ट और पॉलिसैचेराइड के मिश्रण से फल और सब्जियों की कोटिंग के लिए एक फिल्म तैयार की। समुद्र में पाया जाने वाला माइक्रो एल्गी Dunaliella tertiolecta अपने एंटी ऑक्सीडेंट गुणों के वजह से जाना जाता है। इसमें कैरोटीनॉयड, प्रोटीन और पॉलिसैचेराइड जैसे बायोसक्रिय कंपाउंड होते हैं।
यह एल्गल आयल का भी अच्छा स्रोत है। यह तेल ओमेगा 3 फैटी एसिड का नॉन एनिमल स्रोत है। इसका इस्तेमाल बायोफ्यूल के तौर पर भी होता है। तेल निकाल लेने के बाद अवशिष्ट आमतौर पर फेंक दिया जाता है।
शोधकर्ताओं ने इसी अपशिष्ट का इस्तेमाल कोटिंग फिल्म बनाने में किया। इसमें उन्होंने चितौसन का भी प्रयोग किया जो एक तरह का कार्बोहाइड्रेट है। चितौसन मैं भी एंटीमाइक्रोबॉयल (सूक्ष्मजीव रोधी) और एंटी फंगल (फंगस रोधी) गुण पाए जाते हैं। इससे खाद्य योग्य फिल्म तैयार की जा सकती है। जरूरत के मुताबिक कस्टमाइज्ड कोटिंग भी तैयार की जा सकती है ताकि फल और सब्जियों की शेल्फ लाइफ बढ़ाई जा सके।.
शोधकर्ताओं ने इन कोटिंग का परीक्षण चूहों पर किया जिसमें पता चला कि कोटिंग में इस्तेमाल किया गया मटेरियल जहरीला नहीं है और उसका प्रयोग एडिबल फूड पैकेजिंग मैटेरियल के तौर पर किया जा सकता है। शोधकर्ताओं ने इसका पेटेंट भी करा लिया है।
प्रोफेसर विमल कटियार के मुताबिक कोटिंग अपनी तरह का अलग प्रोडक्ट है और इसका बड़े पैमाने पर उत्पादन किया जा सकता है। 40 डिग्री तक तापमान पर यह रोशनी और गर्मी को आसानी से झेल सकते हैं। इन्हें खाया भी जा सकता है। इनकी कोटिंग करने के बाद फल और सब्जियों का रंग, रूप, फ्लेवर, पोषण वैल्यू सब कुछ सुरक्षित रहता है जिससे उनकी शेल्फ लाइफ महीनों बढ़ जाती है।
(एम. सोमशेखर, हैदराबाद के स्वतंत्र पत्रकार हैं। वह डेवपलमेंट से संबंधित मुद्दों, साइंस, टेक्नोलॉजी, कृषि, बिजनेस और स्टार्ट-अप पर विशेषज्ञता रखते हैं )