वर्ष 2023 को अंतरराष्ट्रीय मोटा अनाज वर्ष के रूप में मनाया जा रहा है जिसका नेतृत्व भारत कर रहा है। मोटा अनाज छोटे, सीमांत व भूमिहीन किसानों की आमदनी बढ़ाने में मददगार साबित हो रहा है। धान, गेहूं जैसे पारंपरिक अनाजों की खेती की तुलना में एक तो इसमें लागत कम आती है, दूसरा इसकी कीमत भी बाजार में अब पहले के मुकाबले ज्यादा मिलने लगी है। इसका फायदा किसानों को हो रहा है। हालांकि, उनके सामने अभी फसल तैयार करने की चुनौतियां हैं क्योंकि मोटा अनाज के उन्नत थ्रेसर नहीं हैं जिससे उन्हें दिक्कतों का सामना करना पड़ता है।
ओडिशा के नौपदा जिले के दारलीपाड़ा के किसान सुरेंद्र कुलदीप पिछले कुछ वर्षों से रागी उगाते आ रहे हैं। नई दिल्ली स्थित इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में पिछले हफ्ते आयोजित रूरल वॉयस और सॉक्रेटस फाउंडेशन के ‘बजट चर्चा’ कार्यक्रम में हिस्सा लेने आये कुलदीप ने रुरल वॉयस के साथ बातचीत में कहा कि पारंपरिक अनाजों की खेती की तुलना में रागी की खेती में लागत कम आती है। धान की खेती में जहां प्रति हेक्टेयर 25-30 हजार रुपये की लागत आती है, वहीं रागी की प्रति हेक्टेयर लागत 8-10 हजार रुपये है। धान की सिंचाई में जहां पानी ज्यादा लगता है, वहीं रागी में सिंचाई की जरूरत कम पड़ती है। इसी तरह धान में रासायनिक उर्वरकों का इस्तेमाल करना पड़ता है, जबकि रागी में प्राकृतिक उर्वरकों का इस्तेमाल किया जाता है। इससे भूमि की उर्वरा शक्ति भी मजबूत होती है।
ओडिशा के ही सुंदरगढ़ जिले के ज्ञानपाली की किसान अनिमा मिन्ज ने रूरल वॉयस को बताया कि वो एक एफपीओ (किसान उत्पादक संगठन) के जरिये रागी की खेती के लिए प्रेरित हुईं। अनिमा के पास बहुत कम जमीन है। उन्होंने बताया कि जब से वो इसकी खेती कर रही हैं तब से आमदनी पहले के मुकाबले बढ़ी है। एफपीओ से जुड़ने का फायदा यह हुआ कि अच्छे बीज मिलने के साथ ही उनका परामर्श भी मिलता रहता है। उनकी फसल की कीमत भी अच्छी मिल जाती है। इसके अलावा कृषि मेलों एवं कृषि प्रदर्शनियों में रागी से बने उत्पादों को प्रदर्शित करने का मौका मिलता है जिससे भी कमाई हो जाती है। उन्होंने बताया कि रागी से बने बिस्कुटों को लोग काफी पसंद करते हैं। जहां तक चुनौतियों की बात है तो सबसे बड़ी चुनौती फसल तैयार करने की है क्योंकि एफपीओ की ओर से जो थ्रेसर मुहैया कराया गया है उससे फसल की तैयारी में काफी समय लगता है। साथ ही प्रदर्शनियों में रागी उत्पादों की बेहतर पैकेजिंग से उसके दाम अच्छे मिल सकते हैं जो अभी नहीं मिलते हैं। उन्होंने कहा कि इन समस्याओं को दूर करने के लिए रागी किसानों को सरकार की ओर से बढ़ावा मिलना चाहिए।
रूरल वॉयस के साथ बातचीत में ओडिशा के सुंदरगढ़ जिले के बारतोली की रहने वाली ज्योति डांग ने बताया है कि वह आदिवासी समुदाय से आती हैं और उनके पास जमीन नहीं है। वह दूसरों की जमीनों पर रागी की खेती करती हैं। उन्होंने कहा कि रागी किसानों को अगर सरकार बढ़ावा दे और आर्थिक मदद मुहैया कराए तो पैदावार बढ़ाई जा सकती है। भूमिहीन किसान होने की वजह से उनकी दिक्कत यह है कि जब कोई खाली जमीन मिलती है तभी वह खेती कर पाती हैं। इससे उनकी आमदनी ज्यादा होती है।
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सरकारी आंकड़ों के मुताबिक मोटे अनाजों का रकबा काफी बढ़ा है। 2013-14 में जहां 122.9 लाख हेक्टेयर में इसकी खेती की जाती थी, वहीं 2021-22 में यह बढ़कर 154.8 लाख हेक्टेयर तक पहुंच चुका है। इसकी खेती से करीब 2.5 करोड़ छोटे एवं सीमांत किसान जुड़े हैं। मोटे अनाजों को बढ़ावा देने के लिए सरकार रागी, ज्वार, बाजरा जैसी फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) भी तय करती है। मोटा अनाज के मामले में भारत दुनिया के सबसे बड़े उत्पादकों में से एक है। यहां दुनिया के कुल उत्पादन का करीब 25 फीसदी उत्पादन होता है लेकिन निर्यात में हिस्सेदारी अभी भी कम है। भारत ने 2021-22 के दौरान 3.432 करोड़ डॉलर के मोटे अनाज उत्पादों का निर्यात किया जो काफी कम मात्रा है। स्वस्थ और टिकाऊ खाद्य विकल्पों की बढ़ती ग्लोबल मांग को देखते हुए भारत के पास मोटे अनाजों के उत्पादों का निर्यात बढ़ाने की पूरी क्षमता है।
लोगों में इसे लेकर जागरूकता बढ़ी है क्योंकि मोटा अनाज पोषण से भरपूर होता है, इसलिए इसकी मांग बढ़ती जा रही है। एक अनुमान के मुताबिक, मोटा अनाजों के उत्पादों की बिक्री में हाल के दिनों में 30 फीसदी की वृद्धि दर्ज की गई है। देश के 12-13 राज्यों में मोटा अनाजों की खेती दी जाती है।