फसलों की नई प्रजातियों को विकसित करने के लिए जीनोम एडिटिंग की टेक्नोलॉजी का उपयोग करने पर इन फसलों के फील्ड ट्रायल के लिए राज्यों की सहमति की प्रक्रिया लागू की जा सकती है। इस संबंध में पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने 15 सितंबर, 2021 को राज्यों को एक पत्र (आफिस मेमोरेंडम) लिखकर उनकी राय मांगी है। डिपार्टमेंट ऑफ बॉयोटेक्नोलॉजी (डीबीटी) ने जीनोम एडिटेड प्लांट्स के फील्ड ट्रायल के लिए जेनेटिक इंजीनियरिंग अप्रेजल कमेटी (जीईएसी) के अप्रेजल से छूट मांगी है। लेकिन पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय का मानना है कि जीईएसी के अप्रेजल के लिए प्रस्ताव पर संबंधित राज्य द्वारा फील्ड ट्रायल की सहमति के बाद ही विचार किया जाएगा। इसी के लिए राज्यों को यह पत्र लिखकर उनकी राय मांगी गई है। इसके साथ डीबीटी द्वारा जीनोम एडिटेड प्लांट्स की सेफ्टी असेसमेंट की ड्राफ्ट गाइडलाइंस भी राज्यों को भेजी हैं। इन ड्राफ्ट गाइडलाइंस में एसडीएन1 और एसडीएन2 श्रेणियों को जीईएसी की मंजूरी से छूट की बात कही गई है।
मंत्रालय के इस पत्र के बाद जीनोम एडिटिंग की इस नई तकनीक से फसलों और पौधों की नई किस्मों को विकसित करने की प्रक्रिया में देरी होने की बात की जा रही है। रूरल वॉयस के साथ बातचीत करते हुए एक वरिष्ठ कृषि वैज्ञानिक और नीतिगत मामलों के विशेषज्ञ ने कहा कि इस तकनीक को दूसरी जीएम फसलों के बराबर रखने से देश को नुकसान होगा। उन्होंने बताया कि इस तकनीक ने नई प्रजातियों को विकसित करने की प्रक्रिया को बहुत छोटा कर दिया है। साथ ही यह सटीक परिणाम लाने में सक्षम है। जीन एडिटिंग की इस नई तकनीक को क्रिसपर/कास9 नाम दिया गया है। इसके लिए फ्रांस की वैज्ञानिक डॉ. एमानुअल कारेंपेंटीअर और अमेरिका की वैज्ञानिक डॉ. जेनिफर डुआंडा को 2020 का केमिस्ट्री का नोबल पुरस्कार दिया गया था। इस तकनीक का उपयोग जीन एडिटिंग के जरिये नई प्रजातियों को विकसित करने में किया जा रहा है। अमेरिका और फ्रांस में इस टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल कर कई वेरायटी रिलीज की जा चुकी हैं। जो दूसरे देश अपने फायदे के लिए इस तकनीक का इस्तेमाल कर रहे हैं उनमें जापान और आस्ट्रेलिया शामिल हैं।
उक्त वैज्ञानिक का कहना है कि इस तकनीक में एक प्लांट के परिवार के जींस को ही एडिट किया जाता है और उसी फैमिली के प्लांट के अधिक उत्पादकता, बीमारी से लड़ने में सक्षम, तापमान में परिवर्तन के बावजूद उत्पादन में सक्षम गुणों को लेकर एक नई किस्म तैयार करना संभव है। साथ ही इसके जरिये बेहतर टारगेटेड अप्रोच का फायदा लिया जा सकता है। ट्रांसजनिक फसलों के लिए दूसरे जीन्स को इंपोर्ट किया जाता है। इसलिए दोनों को एक धरातल पर रखना जायज नहीं है। एसडीएन1 और एसडीएन2 से तैयार प्लांट्स के फील्ड ट्रायल पर राज्यों की सिफारिश की शर्त जोड़ने का मतलब है प्रक्रिया में देरी होना और इस तकनीक के फायदे से देश के कृषि क्षेत्र का चूक जाना।
भारतीय कृषि अनुसांन परिषद (आईसीएआर) ने इस टेक्नोलॉजी का फायदा उठाने के लिए इस पर काम शुरू किया है। साथ ही डिपार्टमेंट ऑफ बॉयोटेक्नोलॉजी ने नेशनल एकेडमी ऑफ एग्रीकल्चरल साइंसेज (नास) के साथ विस्तृत चर्चा के बाद जीनोम एडिटेड प्लांट्स की सेफ्टी असेसमेंट की ड्राफ्ट गाइडलाइंस तैयार की। ड्राफ्ट गाइडलाइंस की डीबीटी द्वारा गठित एक एक्सपर्ट कमेटी ने भी समीक्षा की। इसके साथ ही रेगुलेटरी कमेटी ऑन जेनेटिक मेनिपुलेशन (आरसीजीएम) ने भी इनको मंजूरी दी। इसके बाद यह गाइडलाइंस जीईएसी के पास उसकी सिफारिशों के लिए भेजी गई हैं जो उनकी समीक्षा के बाद मंत्रालय की अंतिम मंजूरी के लिए भेजेगी।
असल में ड्राफ्ट गाइडलाइंस पर संबंधित विभागों और कृषि शोध पर काम कर रहे संस्थानों व विभागों की व्यापक राय ली गई थी। उसके बाद यह गाइडलाइंस मंजूरी के लिए भेजी गई। इसके बारे में पिछले दिनों संबंधित मंत्रालयों के अधिकारियों की बैठक भी हुई। जिसमें सहमति व्यक्त की गई कि इन गाइडलाइंस को मंजूरी देकर नोटिफाइड करना जरूरी है। सूत्रों के मुताबिक आईसीएआर के डायरेक्टर जनरल (डीजी) को इसका प्रजेंटेशन भी दिया था। इस मीटिंग में जीईएसी की चेयरपर्सन को भी बुलाया था लेकिन उन्होंने कहा कि हमने कमेंट भेजे है। लेकिन इस बैठक के अगले ही दिन इस संबंध में राज्यों को पत्र भेज दिया गया, जिसका जिक्र इस खबर में उपर किया गया है।
पर्यावरण मंत्रालय के ताजा पत्र के चलते यह मसला अटकता दिख रहा है। इस बारे में एक वरिष्ठ कृषि वैज्ञानिक ने रूरल वॉयस को बताया कि जीन एडिटिंग सामान्य प्लांट ब्रीडिंग प्रक्रिया की तरह ही है। एसजीएन1 और एसजीएन2 में कोई बाहरी जीन नहीं है। इसलिए इसे ट्रांसजनिक प्रक्रिया के समकक्ष रखने की जरूरत नहीं है। एसजीएन-3 प्रक्रिया में बाहर से जीन लाया जाता है। इसलिए इस प्रक्रिया को जीएम फसलों के सिस्टम में डालने की जरूरत नहीं है। गाइडलाइंस का मसौदा नास, तास और तमाम संबंधित विशेषज्ञ संस्थान ने चर्चा के बाद तैयार किया और उसका ब्रीफ प्रधानमंत्री को भेजा गया है।
एक अन्य कृषि वैज्ञानिक का कहना है कि एक विशुद्ध साइंटिफिट मुद्दे को राज्यों को भेजने के कदम को साइंटिफिक एडवांसमेंट की प्रक्रिया को पटरी से उतारने की कोशिश के रूप में देखा जाए तो इसे गलत नहीं कहा सकता है। इसका सीधा मतलब देश के किसानों और कृषि क्षेत्र को इसके जरिये मिलने वाले फायदों उन्हें वंचित करना है। इस स्थिति में क्रिसपर/कास9 की नई टेक्नोलॉजी और देश में मौजूद अपार प्लांट जेनेटिक संपदा के चलते मिल रहे मौके के बावजूद हम ‘मेक इन इंडिया’ को आगे बढ़ाने में नाकाम रह जाएंगे। जब एसडीएन1 और एसडीएन2 के जरिये जीनोम एडिटिंग किसी भी तरह से ट्रांसजनिक नहीं है तो इसके लिए रेगुलेटरी ट्रायल और राज्यों की सहमति की जरूरत कहां पैदा होती है। क्यों नहीं नीतिगत मसले पूरी तरह वैज्ञानिक तर्किकता के साथ तय किये जाते हैं। इस तरह के नीतिगत माहौल की कमी के बीच किसानों की आय को दोगुना के लिए लक्ष्य को कैसे हासिल किया जाएगा।
मार्च में कृषि शोध से जुड़े संस्थानों ने एक पॉलिसी ब्रीफ भी तैयार किया था। इन संस्थानो में ट्रस्ट फॉर एडवांसमेंट इन एग्रीकल्चरल साइंसेज (तास), नेशनल एकेडमी ऑफ एग्रीकल्चरल साइंसेज (नास), आईसीएआर, बॉयोटेक कंसोर्सियम इंडिया लिमिटेड, टाटा इंस्टीट्यूट फॉर जेनेटिक्स एंड सोसाइटी, नेशनल एग्री-फूट बॉयोटेक्नोलॉजी इंस्टीट्यूट, बॉयोटेक्नोलॉजी इंडस्ट्री रिसर्च असिस्टेंस काउंसिल शामिल हैं। मार्च में इस विषय पर इन संस्थानों ने एक डायलॉग किया था और इस तकनीक को देश में कृषि क्षेत्र के लिए जरूरी बताया था।