जूट स्वदेशी उत्पाद है और पश्चिम बंगाल का गौरव है लेकिन यह उद्योग लड़खड़ा रहा है। इस क्षेत्र की दुर्दशा के लिए बाजार, सरकारी खरीद और विविधीकरण की कमी और खराब बुनियादी ढांचे के साथ-साथ जूट मिलों की दयनीय स्थिति जिम्मेदार हैं। जूट क्षेत्र की गिरावट का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि पिछले एक दशक में इस नकदी फसल का उत्पादन 13 फीसदी से अधिक गिर गया है। केंद्रीय कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय की ओर से मई 2022 में जारी फसलों के तीसरे अग्रिम अनुमान में 2021-22 में जूट उत्पादन 10.77 लाख टन रहने का अनुमान लगाया गया जो एक दशक पहले 2011-12 में 20.03 लाख टन रहा था।
इसे देखते हुए केंद्र सरकार ने हाल ही में एक फैसला लिया है जिससे पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा में जूट श्रमिकों, किसानों और मिलों को बढ़ावा मिलने की संभावना है। आर्थिक मामलों की मंत्रिमंडलीय समिति (सीसीईए) ने खाद्यान्नों और चीनी पैकेजिंग में जूट की बोरी का इस्तेमाल अनिवार्य रूप से करने के लिए आरक्षण मानदंडों को लागू करने का फैसला किया है। यह फैसला न केवल पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा के लिए बल्कि बिहार, ओडिशा, असम, मेघालय, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना के जूट क्षेत्र के लिए अच्छी खबर है। सीसीईए की बैठक में जूट वर्ष 2022-23 के लिए चावल, गेहूं और चीनी की पैकेजिंग में जूट की बोरी के अनिवार्य उपयोग के लिए आरक्षण मानदंडों को मंजूरी दे दी है। आरक्षण मानदंडों के तहत खाद्यान्नों की पैकेजिंग में जूट की बोरी का ही पूरी तरह से इस्तेमाल करना अनिवार्य किया गया है जबकि चीनी की पैकेजिंग में जूट की बोरी का 20 फीसदी इस्तेमाल जरूरी किया गया है। यह जूट क्षेत्र के लिए बहुत बड़ा प्रोत्साहन है। जूट उद्योग भारत की अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण स्थान रखता है, खासकर पश्चिम बंगाल में जहां लगभग 75 जूट मिलें हैं जो लाखों श्रमिकों को आजीविका प्रदान करती हैं। 2016 के आंकड़ों के मुताबिक, देश के 93 जूट मिलों में से 70 पश्चिम बंगाल में हैं। पश्चिम बंगाल देश के जूट उद्योग का केंद्र है जो लगभग 10,000 करोड़ रुपये का है। मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक, कई मिलें बंद होने की कगार पर हैं।
जेपीएम एक्ट के तहत जूट को आरक्षण देने से 3.70 लाख श्रमिकों को प्रत्यक्ष रोजगार और लगभग 40 लाख किसानों के हितों की रक्षा होती। जेपीएम एक्ट, 1987 जूट किसानों, श्रमिकों और जूट के उत्पाद बनाने वालों के हितों की रक्षा करता है। जूट उद्योग के कुल उत्पादन का 75 फीसदी उत्पादन जूट की बोरी है। जूट की बोरी के कुल उत्पादन में से 85 फीसदी की आपूर्ति भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) और राज्यों की खरीद एजेंसियों (एसपीए) को की जाती है। बाकी 15 फीसदी का निर्यात और सीधे बिक्री की जाती है। अनाजों की पैकिंग के लिए सरकार सालाना लगभग 9,000 करोड़ रुपये की जूट की बोरी खरीदती है। यह जूट किसानों और श्रमिकों के लिए बाजार गारंटी सुनिश्चित करता है। जूट की बोरी का औसत उत्पादन लगभग 30 लाख गांठ (9 लाख मीट्रिक टन) है। सरकार का कहना है कि जूट किसानों, श्रमिकों और जूट उद्योग के हितों की रक्षा के लिए जूट की बोरी के उत्पादन का पूरा उठान सुनिश्चित करने के लिए वह प्रतिबद्ध है।
आरक्षण मानदंड लागू करने से जूट की खेती और जूट पैकेजिंग सामग्री के घरेलू उत्पादन को बढ़ावा मिलेगा जिससे भारत आत्मनिर्भर बनेगा। यह पर्यावरण की रक्षा में भी मदद करेगा क्योंकि जूट प्राकृतिक, बायो डिग्रेडेबल, रिन्यूएबल और दोबारा इस्तेमाल करने वाला फाइबर है। घरेलू स्तर पर जूट उत्पादन का समर्थन करने के लिए सीसीईए का निर्णय आत्मनिर्भर भारत पहल के मुताबकि है। भारत जूट का सबसे बड़ा उत्पादक है। इसके बाद बांग्लादेश और चीन का नंबर आता है। इसे गोल्डन फाइबर के रूप में भी जाना जाता है। यह भारत में कपास के बाद सबसे महत्वपूर्ण उद्योगों में से एक है। हालांकि, जूट खेती का रकबा और व्यापार के मामले बांग्लादेश सबसे ऊपर है। वैश्विक जूट निर्यात में बांग्लादेश की हिस्सेदारी तीन चौथाई फीसदी है जबकि भारत केवल 7 फीसदी निर्यात करता है। पिछले कुछ सालों में भारत का जूट उत्पादन और रकबा घट गया है जबकि बांग्लादेश का बढ़ा है।
वित्त वर्ष 2022-23 के लिए जूट का न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) 4,750 रुपये प्रति क्विंटल तय किया गया है। जूट प्रमुख रूप से पश्चिम बंगाल, असम, मेघालय और त्रिपुरा के कुछ हिस्सों में उगाया जाता है। यह 24 डिग्री से 37 डिग्री सेल्सियस के तापमान वाले गर्म और आर्द्र जलवायु में बढ़ता है। यह पूरी तरह से बायोडिग्रेडेबल और रिसाइकिल करने योग्य है। यह न केवल कार्बन डाइऑक्साइड खींचता है और ऑक्सीजन छोड़ता है बल्कि फसल चक्र में उगाए जाने पर मिट्टी की उर्वरता भी बढ़ाता है। जलाए जाने पर यह विषैली गैसों का उत्पादन भी नहीं करता है।