केंद्र और राज्य सरकारें समय-समय पर कृषि कर्ज माफी योजना लाती रहती हैं, इसके बावजूद संकट में फंसे किसानों की स्थिति नहीं सुधरती। कुछ समय बाद फिर से वे कर्ज के जाल में फंस जाते हैं। किसानों की इस समस्या के दीर्घकालिक समाधान के लिए कृषि कर्ज माफी पर भारत कृषक समाज और नाबार्ड की एक स्टडी रिपोर्ट में कुछ सुझाव दिए गए हैं। इनमें कर्ज लेने की प्रक्रिया आसान बनाना और कागजी कार्रवाई काम करना, संकटग्रस्त किसानों की पहचान के लिए इंडेक्स बनाना, कर्ज माफी के बजाय ग्रांट का तरीका अपनाना और किसानों के लिए एनपीए की परिभाषा बदलना शामिल हैं।
रिपोर्ट में कहा गया है कि कृषि कर्ज माफी का मूल मकसद सूखा या बाढ़ जैसी आपदा के समय किसानों और बैंकों की मदद करना था। लेकिन समय के साथ इसका इस्तेमाल बढ़ा और उन किसानों को भी इसका फायदा दिया जाने लगा जो संकट में नहीं थे। इससे इस योजना का उद्देश्य पूरा नहीं हो पाता है।
रिपोर्ट के अनुसार, बैंक जैसे संस्थाओं से कर्ज का दायरा बढ़ा है, फिर भी अनेक किसान इससे बाहर हैं। देश के सभी किसानों को इसके दायरे में लाने की जरूरत है। इसके लिए एक तो कर्ज लेने की प्रक्रिया आसान बनाने और कागजी कार्रवाई काम करने की जरूरत है। अक्सर गरीब और अनपढ़ किसानों को बैंकिंग सेवाएं लेने के लिए बिचौलियों की जरूरत पड़ती है। देखा गया है कि बैंक भी ऐसे बिचौलियों को तरजीह देते हैं क्योंकि इससे उनका काम आसान हो जाता है। लेकिन ये बिचौलिए फीस के तौर पर कर्ज राशि का एक निश्चित हिस्सा लेते हैं। उत्तर प्रदेश में तो अनेक किसान यह मानते हैं कि इन बिचौलियों को बैंकों ने आधिकारिक रूप से नियुक्त कर रखा है और उनके बिना बैंक से कर्ज नहीं लिया जा सकता। रिपोर्ट में कहा गया है कि सरकार को बैंकों और वित्तीय संस्थानों को यह चेतावनी देने की जरूरत है कि वे बहुत अधिक कर्ज देने पर जोर ना लगाएं। इससे कर्ज की क्वालिटी खराब होती है।
किराए पर खेत लेकर खेती करने वालों के साथ भी समस्या है। कर्ज के बदले गिरवी रखने का नियम काफी सख्त है। नतीजा यह होता है कि वास्तव में जरूरतमंद किसानों को कर्ज नहीं मिल पाता है। किराए पर खेत लेने वाला किसान तो कर्ज माफी की सोच भी नहीं सकता है। उसके पास गिरवी रखने को कुछ नहीं होता, इसलिए उसे मजबूरन साहूकारों से ऊंचे ब्याज पर कर्ज लेना पड़ता है। उन्हें पीएम किसान अथवा किसी अन्य सरकारी योजना का भी लाभ नहीं मिल पाता है।
इस स्टडी के लिए किए गए सर्वे में शामिल किसानों ने बताया कि गैर संस्थागत कर्ज उनके लिए बड़ा महत्वपूर्ण है और उसके बिना उनकी समस्या और बढ़ जाएगी। एक तो साहूकारों से कर्ज लेना उनके लिए आसान होता है और जब मर्जी उससे पैसे ले सकते हैं। संकट के दिनों में इन साहूकारों की तरफ से की गई मदद को भी किसानों ने काफी सराहा। रिपोर्ट में सुझाव दिया गया है कि सरकार को इन निजी कर्जदाताओं पर रोक लगाने के बजाय उन्हें रेगुलेट करना चाहिए।
रिपोर्ट के अनुसार, क्या हर क्षेत्र के संकटग्रस्त किसानों या संकटग्रस्त क्षेत्र के प्रत्येक किसान की मदद की जानी चाहिए? बड़ा सवाल है कि यह कैसे पता चले कि किस किसान को वास्तव में मदद की जरूरत है। उसके पहचान की कोई व्यवस्था ना होने के कारण पूरे प्रदेश के किसानों को मदद करने की नीति अपनाई जाती है, जबकि सबको इसकी जरूरत नहीं पड़ती। उदाहरण के लिए, महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश में जिन गन्ना किसानों ने कर्ज लिया था उनमें ज्यादातर के पास सिंचाई वाली जमीन है और उन्हें उचित एवं पारिश्रमिक मूल्य (एफआरपी) तथा राज्य परामर्श मूल्य (एसएपी) के रूप में अच्छी कीमत मिल जाती है। लेकिन उन सबको कृषि कर्ज माफी का फायदा मिला। दूसरी तरफ, छोटे और सीमांत किसान, जिनके पास सिंचाई वाली जमीन नहीं है और जो ऐसी फसलें उगाते हैं जिन्हें न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर नहीं खरीदा जाता है, उन्हें न तो बैंकों से कर्ज मिल पाता है न ही कर्ज माफी का फायदा मिलता है।
रिपोर्ट में किसानों के संकट को दर्शाने वाला ऐसा इंडेक्स बनाने की सिफारिश की गई है जो रियल टाइम आधारित हो तथा उससे किसानों के संकट के स्तर की मॉनिटरिंग करने के साथ उसका पूर्वानुमान भी लगाया जा सके। नीति निर्माता इस इंडेक्स का इस्तेमाल संकटग्रस्त किसान की समय पर और लक्षित मदद में कर सकते हैं।
औपनिवेशिक काल में सरकारें कर्ज माफी के बजाय संकटकालीन ग्रांट देने के साथ अल्पावधि के कर्ज को मध्यम अथवा दीर्घ अवधि के कर्ज में बदल देती थी। इससे किसान को ग्रांट के रूप में तत्काल मदद मिल जाती थी और साथ ही कर्ज चुकाने के लिए समय भी मिल जाता था। आज भी सरकारें सीधे कर्ज माफी के बजाय ग्रांट का तरीका अपना सकती हैं। इससे किसानों को राहत मिल जाएगी। उनके मामले में सरकार को गैर निष्पादित परिसंपत्ति (एनपीए) की परिभाषा भी बदलनी चाहिए।
बीकेएस और नाबार्ड की रिपोर्ट में रिजर्व बैंक की 2019 की एक रिपोर्ट के हवाले से कहा गया है कि किसानों के कर्ज डिफॉल्ट के जोखिम से बचने के लिए बैंकों के पास कोई गारंटी स्कीम नहीं है। रिजर्व बैंक ने एमएसएमई सेक्टर के लिए बनाई गई क्रेडिट गारंटी स्कीम की तरह कृषि क्षेत्र के लिए भी क्रेडिट गारंटी फंड बनाने का सुझाव केंद्र और राज्य सरकारों को दिया है। हालांकि रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि क्रेडिट गारंटी फंड से संकटग्रस्त किसानों की सभी समस्याओं का हल नहीं होगा। किसानों को जिन समस्याओं के कारण कर्ज लेना पड़ता है उनसे वे हमेशा रूबरू होते हैं। इसलिए ऐसा ईकोसिस्टम बनाने की सिफारिश की गई है जो किसानों को अत्यधिक जोखिम से बचाए और मुनाफा कमाने का अवसर प्रदान करे।
किसानों की एक पुरानी समस्या यह है कि उन्हें अपनी उपज की उचित कीमत नहीं मिलती है। गेहूं, चावल, गन्ना और कपास का उत्पादन करने वाले किसानों को तो एमएसपी, एफआरपी या एसएपी जैसी व्यवस्था का फायदा मिल जाता है, लेकिन जल्दी नष्ट होने वाली उपज के किसानों को पूरी तरह बाजार ताकतों पर निर्भर रहना पड़ता है। जब उनकी उपज की आवक बढ़ती है तो बाजार में दाम काफी गिर जाते हैं और किसानों को औने-पौने दाम में उपज बेचनी पड़ती है। रिपोर्ट में कहा गया है कि किसानों के लिए मार्केटिंग के अवसर बढ़ाने की जरूरत है। एपीएमसी व्यवस्था को मजबूत करने के साथ अगर निजी क्षेत्र को भी किसानों से उपज खरीदने में शामिल किया जाए तो उन्हें बेहतर कीमत मिल सकती है। खाद्य प्रसंस्करण उद्योग को बढ़ावा देने से भी इसमें फायदा मिलेगा।
रिपोर्ट में ग्रामीण इलाकों में इंफ्रास्ट्रक्चर के अभाव को दूर करने की भी सिफारिश की गई है। इसमें कहा गया है कि कुछ राज्यों में किसानों को बिजली मुफ्त मिलने से भूजल का बेजा इस्तेमाल होता है। इसलिए बिजली का उचित शुल्क किसानों से लिया जाना चाहिए। इससे बिजली की सप्लाई में भी सुधार आएगा। बिजली जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्र में सुधार जारी रखने की जरूरत है। बिजली के अलावा ग्रामीण इलाकों में अच्छी सड़कों का नेटवर्क भी तैयार करना जरूरी है। इससे किसान खरीदारों के साथ बेहतर जुड़ सकेंगे और उन्हें अपनी उपज की अच्छी कीमत मिलेगी।
रिपोर्ट के अनुसार प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना और पुनर्गठित मौसम आधारित फसल बीमा योजना (रिस्ट्रक्चर्ड वेदर बेस्ट क्रॉप इंश्योरेंस स्कीम – आरडब्ल्यूबीसीआईएस) अच्छा कदम है, लेकिन ऐसे अनेक मामले सामने आए है जिनमें किसानों को बीमा राशि का भुगतान काफी देर से हुआ या नुकसान की तुलना में बीमा राशि बहुत कम मिली। विभिन्न फसलों के लिए मौसम आधारित और यील्ड आधारित बीमा योजना लागू करने की जरूरत है। हालांकि फसल बीमा एक मुश्किल स्कीम है और विकसित देशों को भी इसे लागू करने में दिक्कतें आई हैं। इसमें लगातार मूल्यांकन की जरूरत है ताकि किसानों को पर्याप्त और समय पर बीमा राशि का भुगतान मिले।