नीति आयोग के सदस्य प्रो. रमेश चंद ने कहा है कि फसलों के बाजार मूल्य और न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) के बीच के अंतर को पाटने के लिए भावांतर भुगतान जैसी योजनाओं के जरिये किसानों को भुगतान किया जाना चाहिए। किसानों को उनकी उपज का वाजिब मूल्य दिलाने के लिए एमएसपी और भावांतर भुगतान योजना एक साथ चलाई जा सकती हैं।
रूरल वॉयस के सहयोगी प्रकाशन रूरल वर्ल्ड पत्रिका को दिए विशेष इंटरव्यू में प्रोफेसर चंद ने कहा कि कृषि मार्केटिंग अभी भी बहुत ही जटिल मुद्दा है क्योंकि उत्पादन काफी हद तक जलवायु पर निर्भर करता है। जलवायु की वजह से फसलों के उत्पादन में उतार-चढ़ाव होता रहता है। इसका असर किसानों एवं उपभोक्ताओं दोनों पर पड़ता है। इस उतार-चढ़ाव को तो रोका नहीं जा सकता है, लेकिन बाजार की सही नीतियों के जरिये इसके असर को कम किया जा सकता है।
उन्होंने कहा, “किसानों को उनकी उपज के लिए जो कीमत मिलती है उसके दो पहलू हैं। एक तो सरकार से न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) मिलता है और दूसरा, बाजार से कीमत मिलती है। ये दोनों एक-दूसरे के प्रतिस्पर्धी नहीं, बल्कि पूरक हैं। बाजार प्रतिस्पर्धी हो तो किसानों को वाजिब कीमत मिल जाएगी, लेकिन उत्पादन ज्यादा होने पर प्रतिस्पर्धा के बावजूद कीमत गिर जाती है। इसलिए बाजार में कीमतों के एक तय सीमा से ज्यादा ऊपर या ज्यादा नीचे जाने पर सरकारी हस्तक्षेप की जरूरत पड़ती है।”
प्रो. रमेश चंद ने कहा, “हमें दो-तीन चीजों का ध्यान रखना चाहिए। एक तो यह है कि हम एमएसपी इतना न बढ़ाएं कि बाजार में यदि किसानों को बेहतर कीमत मिल सकती है, तो एमएसपी उसको नुकसान न पहुंचाए। दूसरा यह कि एमएसपी देने का जरिया क्या है। हमारे देश में इसे ज्यादातर सरकारी खरीद के जरिये दिया जाता है। अनाजों की सरकारी खरीद इसलिए भी जरूरी है कि हमें सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के लिए अनाज चाहिए। अगर हमें पीडीएस से अलग अनाज की जरूरत है तब हमें दूसरे साधन अपनाने की जरूरत है, जैसे भावांतर भुगतान योजना जिसका आइडिया मैंने बहुत साल पहले दिया था। मध्य प्रदेश और हरियाणा में इस पर थोड़ा अमल हुआ है। इसलिए इस तरह के दूसरे साधनों का भी प्रयोग करना चाहिए जो एमएसपी के नकारात्मक असर को नियंत्रित कर सकते हैं।”
उन्होंने कहा कि खाद्य प्रबंधन और खाद्य कीमतों पर नियंत्रण उपभोक्ताओं और किसानों दोनों के लिए महत्वपूर्ण है। किसानों और व्यापारियों को भी इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि अगर कीमतें तय सीमा के अंदर रहेंगी तो सरकार हस्तक्षेप नहीं करेगी। यदि यह उससे ऊपर या नीचे जाता है तो सरकार अवश्य हस्तक्षेप करेगी। विदेशों में भी अधिकतर सरकारें ऐसा करती हैं।
कृषि सब्सिडी और किसानों को सीधे नगद हस्तांरण किए जाने के बारे में पूछे जाने पर उन्होंने कहा, “दोनों के अपने फायदे और नुकसान हैं। सब्सिडी का सबसे बड़ा फायदा यह है कि यह उत्पादन को प्रोत्साहित करता है, क्योंकि ज्यादातर सब्सिडी इनपुट पर दी जाती है। जो किसान इनपुट का इस्तेमाल नहीं करते हैं उन्हें सब्सिडी नहीं मिलती है, जबकि नगद हस्तांरण सभी के लिए है और वह चाहे जिस तरीके से इसे खर्च करे। सब्सिडी से ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि सब्सिडी देने का तरीका क्या है और किस चीज पर दी जाती है, क्योंकि सब्सिडी देने से अधिक सब्सिडी वितरण के तरीके से इसका नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। उदाहरण के लिए, हम किसानों को सिंचाई के लिए मुफ्त बिजली देते हैं, लेकिन इससे पानी का उपयोग अधिक होगा और भूजल स्तर नीचे चला जाएगा। इस तरह दोनों के नकारात्मक और सकारात्मक पहलू हैं। हमें सभी पहलुओं को ध्यान में रखते हुए संतुलित दृष्टिकोण अपनाना चाहिए।”
नीति आयोग के सदस्य प्रोफेसर रमेश चंद दुनिया के जाने-माने एग्रीकल्चरल इकोनॉमिस्ट हैं। देश की कृषि नीतियों के निर्धारण में हमेशा उनकी छाप दिखती है। एग्रीकल्चरल इकोनॉमिस्ट होने के नाते उन्होंने कई पेपर और किताबें लिखी हैं। हाल ही में हरित क्रांति और अमृत काल को लेकर भारतीय कृषि पर उनका महत्वपूर्ण पेपर आया है, जिसमें उन्होंने देश के कृषि क्षेत्र के भविष्य का रोडमैप रखने की कोशिश की है।