केंद्र सरकार द्वारा लाये गये तीन केंद्रीय कृषि कानूनों के खिलाफ किसानों का आंदोलन छठे माह में चल रहा है। दिल्ली की सीमाओं पर 27 नवंबर, 2020 से धरना दे रहे किसान कोविड-19 महामारी की दूसरी लहर के पीक के बावजूद हटने को तैयार नहीं हैं। लेकिन एक उम्मीद की किरण जो जनवरी में दिखाई दी थी उस ओर अब लगता है किसी का ध्यान ही नहीं है। सुप्रीम कोर्ट द्वारा जनवरी के दूसरे सप्ताह में तीनों कानूनों को लागू करने पर अगले आदेश तक रोक लगा देने के साथ एक चार सदस्यीय एक्सपर्ट समिति गठित की गई थी। जिसके एक सदस्य भूपिंदर सिंह मान ने इस्तीफा दे दिया था लेकिन तीन सदस्यों ने अपना कामकाज जारी रखा और 19 मार्च, 2021 को सुप्रीम कोर्ट को अपनी रिपोर्ट सौंप दी। उस समय के मुख्य न्यायाधीश एस.ए. बोबड़े के 23 अप्रैल,2021 को सेवानिवृत्त होने के बाद से यह मामला अभी ठंडे बस्ते में है। लेकिन यह सभी संबंधित पक्षों की जिज्ञासा जरूर है कि एक्सपर्ट समिति ने अपनी रिपोर्ट में क्या सिफारिशें की हैं ताकि इन तीन कानूनों के खिलाफ चल रहे किसान आंदोलन का हल निकल सके। यह भी सच है कि हाल के विधान सभा चुनावों से नतीजों और उत्तर प्रदेश में पंचायत चुनावों के नतीजों ने किसान संगठनों की इस धारणा को मजबूत किया है कि वह सरकार पर अब अधिक दबाव बनाने की स्थिति हैं क्योंकि वह इन नतीजों के भाजपा के खिलाफ जाने में किसान आंदोलन की भूमिका भी मान रहे हैं।
समिति के एक सदस्य ने रुरल वॉयस के साथ एक बातचीत में कहा कि हमने 19 मार्च को ही सुप्रीम कोर्ट को अपनी रिपोर्ट सौंप दी थी। हमें उम्मीद थी कि इसे सार्वजनिक किया जाएगा लेकिन करीब डेढ़ माह बीत गया है और अभी रिपोर्ट गोपनीय ही बनी हुई है। कमेटी गठित करने वाली पीठ की अध्यक्षता कर रहे तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश के सेवानिवृत्त होने के बाद अब न्यायालय कब इस मामले पर विचार करेगा हमारे लिए कहना मुश्किल है।
दूसरी और इन केंद्रीय कानूनों के खिलाफ आंदोलनरत किसानों के मुख्य संगठनों ने इस समिति के सामने जाने से इनकार कर दिया था और वह इससे सामने गये ही नहीं। उनका कहना है कि इस समिति की रिपोर्ट को लेकर सुप्रीम कोर्ट का क्या रुख होगा इसका हमारे आंदोलन पर कोई खास असर पड़ने वाला नहीं है। आंदोलन जारी है और कानूनों की वापसी तक जारी रहेगा।
केंद्र सरकार के तीन कृषि कानून भारत के हाल के इतिहास में किसानों का अभूतपूर्व आंदोलन खड़ा कर देंगे। इसकी शायद किसी को उम्मीद नहीं थी। लेकिन हजारों की तादाद में किसान करीब छह माह से दिल्ली की अलग-अलग सीमाओं पर आंदोलन कर रहे हैं। उनकी मांग तीनों ने कृषि कानूनों को खत्म करने की है। ये कानून हैं 1) फार्मर्स प्रोड्यूस ट्रेड एंड कॉमर्स (प्रमोशन एंड फैसिलिटेशन) एक्ट 2020, 2) फार्मर्स (एंपावरमेंट एंड प्रोटेक्शन) एग्रीमेंट ऑन प्राइस एश्योरेंस एंड फार्म सर्विसेज एक्ट 2020 और 3) एसेंशियल कमोडिटीज अमेंडमेंट एक्ट 2020. इन कृषि कानूनों के खिलाफ देश के अन्य हिस्सों में भी छोटे पैमाने पर आंदोलन हुए हैं। यह कानून जून, 2020 के पहले सप्ताह में अध्यादेशों के जरिये लागू हुए थे और सितंबर में इनको संसद में पारित कर कानून बनाया गया था। अध्यादेशों के समय से ही किसानों ने इन कानूनों के खिलाफ आंदोलन शुरू कर दिये थे और सितंबर में भारत बंद का आह्वान किया था। उसके बाद नवंबर में किसानों के यह आंदोलन काफी तेज हो गये और 26 नवंबर को किसानों ने दिल्ली कूच किया और इसके बाद से किसान दिल्ली की सीमाओं पर जमे हुए हैं। सरकार के साथ कई दौर की बातचीत फेल होने के बाद 22 जनवरी के बाद से किसान संगठनों और सरकार के बीच संवादहीनता की स्थिति है। वहीं इस बीच सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले पर सुनवाई के दौरान 11 जनवरी को एक आदेश जारी कर अगले आदेश तक इन कानूनों को लागू करने पर रोक लगा दी थी और 12 जनवरी को एक चार सदस्यीय एक्सपर्ट समिति गठित की थी जो संबंधित पक्षों के साथ बातचीत कर इस मुद्दे का हल निकालने के लिए रिपोर्ट देगी। इस समिति के एक सदस्य भूपिंदर सिंह मान ने इस्तीफा दे दिया था और उसमें अब तीन सदस्य कृषि अर्थशास्त्री और इक्रीअर में इंफोसिस चेयर प्रोफेसर अशोक गुलाटी, आईएफपीआरआई के पूर्व डायरेक्टर ( साउथ एशिया) पी.के जोशी और शेतकारी संघटना के प्रमुख अनिल घनवत हैं। समिति की पहली बैठक 15 जनवरी को हुई और अंतिम बैठक 17 मार्च को हुई थी। इस बीच समिति ने किसानों, किसान संगठनों, कारोबारियों और सरकारी अधिकारियों के साथ 23 बैठकें की और संबंधित पक्षों से आनलाइन पोर्टल के जरिये भी राय मांगी थी।
इस बीच दो बातें राजनीतिक मोर्चे पर भी हुई हैं। किसान संगठनों ने केंद्र में सत्तारुढ़ भाजपा के खिलाफ हाल में संपन्न विधान सभा चुनावों में लगातार प्रचार किया। किसानों के संयुक्त मोर्चा के नेताओं ने पश्चिम बंगाल में भाजपा को हराने के लिए कई किसान पंचायतों को संबोधित किया। इसके साथ ही उत्तर प्रदेश में गांव पंचायत और जिला पंचायत के त्रिस्तरीय चुनावों में भी किसान संगठनों ने भाजपा के खिलाफ काम किया और कई जगह भारतीय किसान यूनियन से जुड़े लोगों ने चुनाव भी लड़ा। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में किसान आंदोलन का चुनाव नतीजों पर सीधा प्रभाव दिखा और इस क्षेत्र में भाजपा को भारी राजनीतिक नुकसान का सामना करना पड़ा है। इससे उत्साहित किसान संगठनों का कहना है कि वह अपना आंदोलन जारी रखेंगे और यह नतीजे साफ करते हैं किसान भाजपा सरकार से नाराज है। ऐसे में यह नतीजे तमाम प्रतिकूल स्थितियों में चल रहे किसान आंदोलन को मजबूत कर सकते हैं। साथ ही साल भर के भीतर उत्तर प्रदेश में होने वाले विधान सभा चुनावों के मद्देनजर भाजपा की मुश्किलें बढ़ाने वाले हैं।
असल में इस मुद्दे पर स्थायी भाव की स्थिति बनी हुई है। सरकार भी चुप्पी साधे हुए है और किसान संगठन भी बहुत ज्यादा सक्रिय नहीं हैं। अब तो कुछ समय से किसानों के संयुक्त मोर्चा की बैठकें भी नहीं हो रही हैं। पंजाब के किसान संगठन जरूर दिल्ली की सीमाओं पर चल रहे धरनों में अपनी तादाद बरकरार रखने के लिए काम करते रहते हैं।
दूसरी ओर सुप्रीम कोर्ट की समिति की सिफारिशों को लेकर भी बहुत जिज्ञासा नहीं दिख रही है। यह बात जरूर है कि सुप्रीम कोर्ट के अगले आदेश तक देश में इन कानूनों के अमल पर रोक है। जहां तक समिति की सिफारिशों की बात है तो कयास है कि उसके बड़े हिस्से में समिति के पास अपनी राय रखने आये लोगों की बातें ज्यादा हो सकती हैं और एक्सपर्ट्स की राय का हिस्सा सीमित हो सकता है। लेकिन रुरल वॉयस के साथ बातचीत में समिति के एक सदस्य यह जरूर कहते हैं कि समिति की रिपोर्ट को सार्वजनिक किया जाना चाहिए। ऐसा होने से हमने जो हल सुझाया है वह लोगों के सामने आ सकेगा।