केंद्र सरकार द्वारा लाये गये तीन केंद्रीय कृषि कानूनों के विरोध में दिल्ली की सीमाओं पर 114 दिन से चल रहे किसान आंदोलन के जल्दी समाप्त होने की संभावनाएं काफी कम दिख रही हैं। यही वजह कि इस आंदोलन को चला रहे किसान संगठनों के पदाधिकारियों ने अगले करीब एक माह तक विभिन्न राज्यों में रैलियों और प्रदर्शन का शेड्यूल तैयार कर लिया है। साथ ही सरकार के साथ किसी तरह के परोक्ष चैनल के जरिये बातचीत चलने से भी साफ इनकार किया है। सरकार का भी आधिकारिक रुख अभी तक यही है कि उसने 20 जनवरी को कानूनों को डेढ़ साल के लिए स्थगित करने जो प्रस्ताव दिया था वह उसी पर कायम है। वहीं अब राजनीतिक दल भी किसानों के आंदोलन का राजनीतिक फायदा लेने के लिए खुलकर सामने आ गये हैं। वहीं संयुक्त किसान मोर्चा ने नौ सदस्यों की एक समिति बना दी है। इसका मकसद सरकार के साथ बातचीत में सभी 40 संगठनों के प्रतिनिधियों की बजाय छोटे ग्रुप के जरिये बातचीत को निर्णायक दिशा में ले जाना है। लेकिन यह भी तय है कि अभी तक किसान संगठन तीन केंद्रीय कानूनों को रद्द करने और न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की कानूनी गारंटी से कम पर कुछ भी मानने को तैयार नहीं हैं। वहीं इस पूरे घटनाक्रम में दो अहम बातें भी शामिल हैं। पहला सुप्रीम कोर्ट द्वारा इस मसले का हल ढ़ूंढ़ने के लिए गठित समिति की रिपोर्ट के जल्द आने की संभावना। समिति के एक सदस्य के इस्तीफा देने से अब इसमें तीन सदस्य हैं और दो माह के लिए गठित समिति का कार्यकाल पूरा होने से इस समिति की रिपोर्ट जल्दी आने की संभावना है। कयास है कि अगर समिति कानूनों के स्थगन और एमएसपी पर किसानों की मांग के करीब कोई सिफारिश करती है तो इससे सरकार को इस मसले से बाहर निकलने का रास्ता मिल सकता है।
दूसरे पांच राज्यों के विधान सभा चुनावों के चलते राजनीतिक नुकसान की आशंका से सरकार कुछ दबाव में है। एक केंद्रीय मंत्री ने रुरल वॉयस के साथ बातचीत में स्वीकार किया कि किसान आंदोलन से राजस्थान, पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश में भाजपा को राजनीतिक नुकसान होने की आशंका है। वहीं एक दूसरे वरिष्ठ केंद्रीय मंत्री ने भी इसी तरह की राय भाजपा के सहयोगी दल के एक वरिष्ठ सदस्य के साथ एक बातचीत में स्वीकार की। किसान संगठनों के नेताओं के पश्चिम बंगाल में जाने से नुकसान की आशंका जताते हुए भाजपा के एक वरिष्ठ नेता ने कहा कि किसान संगठनों को इस तरह से राजनीति में नहीं उतरना चाहिए। इन परिस्थितियों के बीच ही कई लोग मेघालय के राज्यपाल सत्यपाल मलिक के हाल के बयान को राजनीतिक चश्में से देख रहे हैं। मलिक ने बागपत में एक कार्यक्रम में और उसके बाद मीडिया के साथ बातचीत कहा कि सरकार को किसानों की बात मानकर एमएसपी की कानूनी गारंटी दे देनी चाहिए । किसान अगर खाली हाथ जाते हैं तो वह इसे नहीं भूलेंगे। जरूरत पड़ने पर मैं मध्यस्थता के लिए तैयार हूं। लेकिन रुरल वॉयस के साथ बातचीत में किसान संगठनों ने सत्यपाल मलिक के साथ किसी भी तरह के संपर्क से साफ इनकार किया है।
संयुक्त किसान मोर्चा द्वारा बातचीत के लिए गठित नौ सदस्यीय समिति में गुरनाम सिंह चढ़ूनी, युद्धवीर सिंह, योगेंद्र यादव, हन्नान मोल्ला, शिवकुमार कक्का, दर्शनपाल, बलबीर सिंह राजेवाल, जगजीत सिंह डालेवाल समेत आठ नेता शामिल हैं। नौवें सदस्य के रूप में जोगेंद्र सिंह उग्राहां इस समिति में विशेष आमंत्रित सदस्य हैं। संयुक्त किसान मोर्चा के पदाधिकारियों का कहना है कि आगे सरकार के साथ होने वाली किसी भी बातचीत में यह समिति हिस्सा लेगी। इसके साथ ही यह समिति सभी संगठनों के बीच तालमेल कर आंदोलन की आगे की रुपरेखा और सरकार के साथ बातचीत की रणनीति तैयार करने का जिम्मा निभा रही है।
जिन पांच राज्यों में विधान सभा चुनाव हो रहे हैं उनमें केंद्र सरकार में सत्तारुढ़ भाजपा के लिए पश्चिम बंगाल और असम की अहमियत सबसे अधिक है। असम में भाजपा दूसरी बार अपनी सत्ता बरकरार रखना चाहती है और पश्चिम बंगाल में वह सरकार बनाने के लिए पूरा जोर लगा रही है। किसान संगठनों के नेता पश्चिम बंगाल में एक बार रैलियां कर चुके हैं और उन्होंने वहां के लोगों से भाजपा की किसान विरोधी नीतियों और तीन कृषि कानूनों को किसान विरोधी बताते हुए वोट नहीं देने की अपील की है। वहीं रूरल वॉयस के साथ बातचीत में कई किसान नेताओं ने कहा है कि वह एक बार फिर पश्चिम बंगाल में रैलियां करने पर विचार कर रहे हैं।
जहां तक पिछले दिनों के राज्यपाल सत्यपाल मलिक के बयानों की बात है तो उस पर भारतीय किसान यूनियन के पदाधिकारी साफ करते हैं कि उन्होंने जो बयान दिया है वह उनका अपना बयान है। हम इस पर कोई टिप्पणी नहीं कर सकते हैं और न ही हमसे उनका कोई संपर्क है। इसलिए उनकी मध्यस्थता की बात का अभी कोई अर्थ नहीं है। 28 जनवरी को भारतीय किसान यूनियन के प्रवक्ता राकेश टिकैत की गिरफ्तारी रुकवाने के लिए शीर्ष केंद्रीय नेतृत्व को फोन करने के दावे पर यूनियन के पदाधिकारी कहते हैं, इसके बारे में हमें न कोई जानकारी है और न ही हमारा उनसे संपर्क है। हालांकि उनका कहना है कि उस शाम को किसानों द्वारा भारी तादाद में गाजीपुर के लिए कूच करने और हरियाणा में प्रदर्शन शुरू होने व मुजफ्फरनगर में अगले दिन पंचायत की घोषणा व भाजपा के दो विधायकों द्वारा गाजीपुर धरना स्थल पर किसानों को हटाने की कोशिश के चलते हुई तीखी प्रतिक्रिया ने सरकार की किसानों को धरना स्थल से हटाने की कार्रवाई को रोका था।
सरकार के साथ परोक्ष रूप से किसी भी तरह की बातचीत पर उनका कहना है कि तीनों कानूनों को डेढ़ साल की बजाय दो साल तक टालने जैसे प्रस्ताव पर कुछ लोगों ने बात की थी। साथ ही एमएसपी पर भी कुछ कदम बढ़ाने की बात कही गई थी। लेकिन इसमें आधिकारिक जैसा कुछ नहीं था। हालांकि उनका कहना है कि एमएसपी की गारंटी पर अभी सरकार का रुख साफ नहीं है। इसके साथ ही वह कहते हैं कि 26 जनवरी के बाद तीन दिन आंदोलन कुछ कमजोर पड़ा था लेकिन अब हमारी स्थिति मजबूत होती जा रही है। राज्यों में कानूनों के विरोध में लगातार बड़ी पंचायतें हो रही हैं और उनके जरिये हम आंदोलन को गावों तक ले जाने में कामयाब हो रहे हैं। यह क्रम लगातार जारी है। आने वाले दिनों में उड़ीसा, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तराखंड और हरियाणा में पंचायतों का कार्यक्रम है। वहीं उत्तर प्रदेश में उसके बाद भारतीय किसान यूनियन पंचायतें शुरू करेगी। यूनियन के एक पदाधिकारी का कहना है कि उत्तर प्रदेश में साल भर के भीतर विधान सभा चुनाव हैं, उसके पहले पंचायत चुनाव हैं। हम अपनी पंचायतों के जरिये सरकार और भाजपा पर दबाव बनाने की रणनीति पर अमल और तेज करने वाले हैं। हमारे सामने यही उपाय है क्योंकि केंद्र सरकार किसानों के साथ बात नहीं कर रही है।
इस माहौल का फायदा उठाने के लिए जहां उत्तर प्रदेश में राष्ट्रीय लोक दल और समाजवादी पार्टी किसान पंचायतें कर रहे हैं। वहीं कांग्रेस उत्तर प्रदेश, हरियाणा और पंजाब में इस आंदोलन और केंद्रीय कानूनों के खिलाफ किसानों के विरोध को राजनीतिक रूप से फायदे में तब्दील कर रही है। यही नहीं पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस भी इसे भाजपा के खिलाफ इस्तेमाल कर रही है तो दिल्ली में सत्तारुढ़ आम आदमी पार्टी भी उत्तर प्रदेश, हरियाणा और अन्य राज्यों में केद्र सरकार के खिलाफ किसानों के आंदोलन का फायदा उठाने से नहीं चूक रही है। शायद शुरू में केंद्र सरकार और भाजपा को यह आभास नहीं रहा होगा कि यह आंदोलन एक राजनीतिक मुद्दा बन जाएगा और आंदोलन तीन माह से ज्यादा चलता रहेगा। ऐसे में किसानों के थक कर वापस जाने के लिए मजबूर करने की रणनीति भी कामयाब नहीं हो रही है।
इस बीच सबकी निगाहें सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित समिति पर भी हैं। हो सकता है कि यह समिति बीच का रास्ता निकालने जैसी कोई सिफारिश कर दे। जिसमें किसानों को भी अपनी जीत दिखे और सरकार भी अपने कदम पीछे हटाती नहीं दिखे। वैसे समिति के तीनों सदस्य कृषि सुधारों के पक्ष में अपनी राय पहले से देते रहे हैं। वहीं आंदोलनरत किसान संगठनों ने इस समिति के पास जाने या अपनी राय देने से साफ इनकार कर दिया था। इसलिए जो संगठन और किसान इस समिति के पास अपनी राय लेकर गये उनका आंदोलन से कोई नाता नहीं है। ऐसे में समिति की सामान्य सिफारिशों से आंदोलन के भविष्य पर कोई असर होगा कहना मुश्किल है। इस समिति के गठन के समय जनवरी में सुप्रीम कोर्ट ने कानूनों के अमल पर अगले आदेश तक रोक लगा दी थी। इस तरह से यह कानून लागू नहीं हैं। हालांकि इनमें शामिल कई प्रावधान कई राज्य सरकारें इन कानूनों के पहले ही लागू कर चुकी हैं।