तीन कृषि बिलों को रद्द करने और फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की कानूनी गारंटी के मुद्दे पर दिल्ली के बार्डरों पर चल रहे किसानों के आंदोलन के जल्द समाप्त होने की उम्मीद 8 जनवरी को उस समय कमजोर हो गई जब सरकार और किसान संगठनों के प्रतिनिधियों की नौवीं बैठक बेनतीजा समाप्त हो गई। इस बैठक में सरकार का रुख पिछली बैठक के मुकाबले सख्त रहा। इस बैठक के पहले सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के दौरान सरकार की ओर से संकेत दिया गया था कि किसानों के साथ बातचीत अच्छी चल रही है और हल निकलने की उम्मीद है। इसीलिए सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में अपना रुख साफ करने से भी परहेज रखा था। लेकिन 8 जनवरी की बैठक में कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर और उनके साथ बातचीत में हिस्सा ले रहे दूसरे मंत्रियों की तरफ से साफ कर दिया गया कि सरकार कानून रद्द करने पर तैयार नहीं है और वह इनमें संशोधन पर ही बातचीत करना चाहती है। दूसरी ओर किसान संगठनों के प्रतिनिधियों ने अपने पुराने रुख में कोई बदलाव नहीं किया और उनका कहना है कि वह केवल कानूनों को रद्द करने पर ही बातचीत करेंगे। सरकार और किसान संगठनों के प्रतिनिधियों के बीच पैदा गतिरोध के माहौल में अब निगाहें सुप्रीम कोर्ट की ओर भी हैं जहां 11 जनवरी को इस मुद्दे पर सुनवाई होनी हैं। हालांकि वार्ता में शामिल किसान संगठनों ने कृषि मंत्री की सुप्रीम कोर्ट जाने की सलाह को ठुकरा दिया है। लेकिन वहां एक किसान संगठन और दूसरे पक्षों द्वारा दायर याचिका पर कृषि कानूनों के मामले पर सुनवाई चल रही है।
असल में भले ही इस मुद्दे पर आठ दौर की बातचीत पहले हो चुकी है लेकिन सरकार की राय रही है कि यह कानून किसानों के हित में हैं और व्यापक हितों के मद्देनजर इन्हें रद्द नहीं किया जा सकता है। रुरल वॉयस ने इस बीच वरिष्ठ केंद्रीय मंत्रियों और सरकार के अधिकारियों के साथ अनौपचारिक बातचीत में उनका रुख जानने की कोशिश की। उसमें यह बात साफ तौर से उभर कर सामने आई कि अभी सरकार में कानूनों को बरकरार रखने की राय कायम है। इसलिए पिछली बैठकों में हल निकलने की जो उम्मीदें लगाई जा रही थी उनका कोई पुख्ता आधार नहीं था। हालांकि कानूनों में संशोधन को लेकर सरकार के रुख में लचीलापन दिखता है। हालांकि कई वरिष्ठ अधिकारियों और मंत्रियों का मानना है कि अगर समय रहते कुछ सावधानी बरती जाती तो शायद आंदोलन की नौबत नहीं आती। वैसे एक बड़े पक्ष का यह भी तर्क है कि यह आंदोलन क्षेत्र विशेष के किसानों का है इसलिए इसका कोई बहुत बड़ा राजनीतिक नुकसान भाजपा को नहीं होगा।
वहीं दूसरी ओर आंदोलन के 45 दिन बीत जाने के बावजूद किसानों का रुख अपनी मांग पर कायम है। वह तीनों कानूनों को रद्द करने से कम पर मानने के लिए तैयार नहीं हैं। साथ ही पंजाब से शुरु हुआ आंदोलन पहले हरियाणा में फैला और उसके बाद उत्तराखंड के तराई वाले इलाके, पश्चिमी उत्तर प्रदेश राजस्थान में पांव पसार चुका है। इनके अलावा मध्य प्रदेश, तमिलनाडु और कई दूसरे राज्यों में इन कानूनों के खिलाफ किसान आंदोलन कर रहे हैं। जैसे जैसे यह आंदोलन लंबा खिंच रहा है उसके साथ ही यह उत्तर प्रदेश के रुहेलखंड, तराई और मध्य उत्तर प्रदेश के किसानों को भी अपनी ओर खींच रहा है। उत्तर प्रदेश में गेहूं की बुआई समाप्त होने के चलते वहां से आ रहे किसानों की तादाद बढ़ रही है। यही वजह है कि गाजीपुर बार्डर पर किसानों का जमावड़ा बढ़ता जा रहा है। इसके चलते उत्तर प्रदेश की राज्य सरकार को गन्ना मूल्य और उसके बकाया भुगतान पर किसानों की नाराजगी झेलनी पड़ सकती है और आने वाले दिनों में यह मुद्दा भी आंदोलन में मुखर होगा।
इसके चलते आने वाले दिनों में सरकार और किसानों के बीच स्थिति और असहज हो सकती है। किसान संगठनों ने 26 जनवरी के दिन गणतंत्र दिवस पर दिल्ली में टैक्टर मार्च का ऐलान कर रखा है। इसके पहले विरोध के तमाम कार्यक्रमों की लंबी फेहरिस्त है। दूसरी ओर सरकार कानूनों के पक्ष में प्रचार का जबरदस्त कार्यक्रम चला रही है और इसके लिए नये वीडियो और बुकलेट जारी कर रही है। इस काम में सरकारी मशीनरी के साथ भाजपा और उसके सहयोगी संगठनों का भी सहयोग लिया जा रहा है। इस परिस्थिति के बीच सरकार और किसान संगठनों के प्रतिनिधियों की अगली बैठक 15 जनवरी को होगी। वहीं सुप्रीम कोर्ट में इस मुद्दे पर 11 जनवरी को सुनवाई होगी। इसलिए आने वाली दिनों में यह मुद्दा देशभर में छाया रहेगा और मीडिया व राजनीति का भी केंद्र बिंदु बना रहेगा। हालांकि जो स्थिति है उसमें किसानों और सरकार के रुख को देखते हुए दोनों पक्षों को मान्य हल निकलना काफी मुश्किल हो गया है।