क्लाइमेट क्राइसिस की ताजा चेतावनियों के बीच, दुनिया भर के देश स्कॉटलैंड के ग्लासगो में एकत्रित हो रहे हैं। कोप 26 जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन का 26वां सम्मेलन है। जब प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी 31 अक्टूबर से यूनाइटेड किंगडम के ग्लासगो में संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज (यूनएफसीसीसी ) में कोप 26 वें सम्मेलन को संबोधित करेंगे, तो वह निश्चित रूप से वैश्विक नेताओं के साथ साझा करेंगे कि भारत बड़ी युवा आबादी के साथ एक महत्वाकांक्षी अर्थव्यवस्था के लिए हरित मार्ग के साथ पर्यावरण की रक्षा करने में सबसे आगे है। कोप 26 के अध्यक्ष, प्रधान मंत्री बोरिस जॉनसन के मंत्रिमंडल में भारतीय मूल के ब्रिटिश राज्य मंत्री आलोक शर्मा इस बात ध्यान से सुन रहे होंगे।
आगरा में जन्मे आलोक शर्मा, कार्बन उत्सर्जन को कम करने के लिए प्रतिबद्धताओं पर वैश्विक वार्ताओं का संचालन करेंगे। वह भारत और अन्य विकासशील और अल्प विकसित देशों के लिए बहुत सहानुभूति रखते हैं। पृथ्वी के बढ़ते तापमान के इस स्तर तक ले जाने के लिए जिम्मेदार कारक कौन है और यह जीवन और आजीविका के लिए कैसे खतरा है। जब विश्व उत्सर्जन का भार उठाने की बात आती है तो विकसित राष्ट्र चाहते हैं कि विकासशील देश और अल्प विकसित राष्ट्र समान दायित्व के साथ आर्थिक बोझ में समान रूप से साझीदार हों। इस बात को अच्छी तरह से जानते हैं ऐसा जरूर होगा ।
आलोक शर्मा ने एक कोप 26 के आधिकारिक प्रकाशन में कहा है कि उत्सर्जन को कम करना पर्याप्त नहीं है। कई देशों के लिए तो तस्वीर और भी धुंधली है। मैं भारत में पैदा हुआ था और एक समय के लिए मैंने अंतरराष्ट्रीय सहायता के लिए जिम्मेदार यूके सरकार के मंत्री के रूप में कार्य किया मैं अल्प विकसित देशों के साथ वास्तविक सहानुभूति है जिनका मानना है बडे़ देश ही इस समस्या का निवारण कर सकते हैं ।
अभी तक सब कुछ अच्छा चला है अपने देश के पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्री भूपेंद्र यादव की अध्यक्षता वाली भारतीय वार्ता टीम को भारत के मुद्दे को उठाना चाहिए जहां आलोक शर्मा इसे छोड़ते हैं। कृषि और ग्रामीण परिदृश्य पर केंद्रित करने के लिए भारतीय टीम को वैश्विक स्तर पर चीजों को उस परिप्रेक्ष्य में रखना चाहिए जो जमीनी वास्तविकता को दर्शाता है न कि हमें जैव-विविधता पर फैंसी नेरेटिव बातें करनी है। कश्मीर से कन्या कुमारी तक भारत में एक विशाल जैव विविधता है जिसे हमें वैसे भी संरक्षित करने की जरुरत है।अगर केरल में इलायची और पंजाब में गेहूं और सरसों उगाने के लिए सही जलवायु है तो जैव विविधता के नाम पर किसी आर्डर के साथ छेड़छाड़ नहीं की जा सकती है।
जिन चीजों के बारे में बात होने जा रही है उनमें से एक खाद्य उत्पादन के अपने पैटर्न को बदलने के लिए देशों पर बहुपक्षीय दायित्वों को शामिल करना है। कोप 26 के अध्यक्ष को भी इस बारे में बात करनी चाहिए कि इस अगर हम गंभीर हैं तो तापमान को 1.5 डिग्री तक बढ़ने और जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के देखते हुए हमें अपने नजरिए को बदलना होगा और अपने भोजन को विकसित करने के तरीके को बदलना होगा। यदि हम दुनिया की जैव विविधता की रक्षा और उसे पुनर्स्थापित करना चाहते हैं यह सब जरूरी है।
भारत जो 130 करोड़ लोगों का देश है और हमेशा अपने किसानों का अभारी रहेगा जिन्होंने खाद्य सुरक्षा में उसे आत्मनिर्भर बनाया। यही नहीं बल्कि जितनी जरूरत है उससे कहीं अधिक उत्पादन किया है। इस अतिरिक्त आनाज के कारण ही कोराना महामारी के दौरान 80 करोड़ लोगों को सरकार मुफ्त खाद्यान्न उपलब्ध करा पाई। वह भी उस समय जब दुनिया कई हिस्से खाने की कमी से जुझ रहे थे।
जैव-विविधता के नाम पर किसी भी बहुपक्षीय प्रतिबद्धताओं को लेकर भारतीय वार्ताकारों को बेहद सतर्क रहना चाहिए जो हमें खाद्य उत्पादन और उपलब्धता में नये नियमों के लिए बाध्य कर सकती हैं। अच्छी बात यह है कि पर्यावरण मंत्री यादव ने भारत की बातचीत की रणनीति को गोपनीय रखा है और खुलासा नहीं किया है। उम्मीद है कि हम 2050 तक 'नेट जीरो एमिशन' के विचार पर अति उत्साह नहीं दिखाएंगे, जिसका रोडमैप 2030 तक तैयार किया जाना है। विकसित दुनिया के कुछ शीर्ष नेताओं के मधुर और लुभावने उद्धरण हो सकते हैं, कि भारत को अपने नेतृत्व के महत्व को दिखाते हुए जलवायु परिवर्तन का नायक बनना चाहिए। यह ठीक है लेकिन भारत को अपनी खाद्य सुरक्षा की कीमत पर हीरो नहीं बनना चाहिए।
हमारी कृषि में एक प्रकार का विरोधाभास है। जब जलवायु परिवर्तन प्राकृतिक आपदाओं को में बढ़ोतरी करता है तो किसानों को सबसे ज्यादा नुकसान होता है। साथ ही बदलते मौसम के मिजाज से फसल की पैदावार पर असर पड़ना लाजमी है। इसलिए हमें निश्चित रूप से एक चैंपियन बनने और परिवर्तन का एजेंट बनने की आवश्यकता है लेकिन पहले दायित्व उन लोगों पर डालें जिन्होंने पृथ्वी को सबसे ज्यादा प्रदूषित किया है। सबसे विकसित ओईसीडी देश जिन्होंने बेलगाम तरीके से प्राकृतिक संसाधनों का दोहन किया है, उन्हें जलवायु परिवर्तन की दिशा में सालाना 100 अरब डॉलर के योगदान के अपने वादे पर खरा उतरना चाहिए। लेकिन अब हम जो देख रहे हैं वह वित्तीय बाजीगरी है जिसमें वाणिज्यिक ऋणों को भी उनके यूएनएफसीसीसी दायित्व को पूरा करने के लिए जोड़ा जा रहा है।
अगले 12-13 दिन अहम होने जा रहे हैं। जहां भारत को वैश्विक जलवायु परिवर्तन एजेंडा में शीर्ष पर बने रहना है, बिना किसी लुभावने जाल में फंसे जो उन कदमों के लिए हमें मजबूर करता हो जो हमारे किसानों के लिए हानिकारक हों। हमारे देश के किसानों की संस्कृति हमेशा से पहाड़ों, वृक्षों और नदियों को संरक्षित रखने और महत्व देने की परपंरा रही है।
(प्रकाश चावला सीनियर इकोनामिक जर्नलिस्ट हैं और आर्थिक नीतियों पर लिखते हैं)