दक्षिण एशिया में वायु प्रदूषण में गिरावट दर्ज किए जाने के कारण वैश्विक प्रदूषण में थोड़ी कमी आई है, लेकिन दुनिया के तीन-चौथाई से ज्यादा देशों ने या तो राष्ट्रीय प्रदूषण मानक निर्धारित नहीं किए हैं या उन्हें पूरा नहीं कर रहे हैं।
साल 2022 में वैश्विक प्रदूषण थोड़ा कम हुआ था, लेकिन वायु गुणवत्ता जीवन सूचकांक (एक्यूएलआई) के नए आंकड़ों के अनुसार, मानव स्वास्थ्य के लिए वायु प्रदूषण सबसे बड़ा बाहरी खतरा बना हुआ है। अगर विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के दिशा-निर्देशों को पूरा करने के लिए दुनिया महीन कणों के प्रदूषण (पीएम2.5) को स्थायी रूप से कम कर दे तो औसत मानव जीवन प्रत्याशा में 1.9 वर्ष की वृद्धि होगी।
वायु गुणवत्ता जीवन सूचकांक (एक्यूएलआई) की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में बहुत महीन कणों से होने वाला प्रदूषण (पीएम2.5) 2021 के मुकाबले 2022 में 19.3 फीसदी घटा था। इसके बावजूद देश की 42.6 फीसदी आबादी ऐसे क्षेत्रों में रहती है जहां प्रदूषण स्तर राष्ट्रीय वायु गुणवत्ता मानक से अधिक है। अगर पार्टिकुलेट पॉल्यूशन को डब्ल्यूएचओ मानक के हिसाब से कम किया जाए तो देश की राजधानी दिल्ली के निवासियों की जीवन प्रत्याशा में 7.8 वर्ष की बढ़ोतरी हो सकती है।
रिपोर्ट बताती है कि पार्टिकुलेट पॉल्यूशन से औसत भारतीय की आयु 3.6 वर्ष घट रही है। उत्तर भारत का मैदानी इलाका देश का सबसे प्रदूषित क्षेत्र हैं जहां 54 करोड़ लोग (देश की 38.9 फीसदी आबादी) रहते हैं। अगर प्रदूषण वर्तमान स्तर पर बना रहता है तो इस क्षेत्र के निवासियों की जीवन प्रत्याशा में डब्ल्यूएचओ के मानक के सापेक्ष औसतन 5.4 वर्ष और राष्ट्रीय मानक के सापेक्ष औसतन 1.9 वर्ष की कमी आने का खतरा है।
यूनिवर्सिटी ऑफ शिकागो के एनर्जी पॉलिसी इंस्टीट्यूट (ईपीआईसी) के निदेशक और अर्थशास्त्र के प्रतिष्ठित प्रोफेसर माइकल ग्रीनस्टोन कहते हैं, "वायु प्रदूषण एक वैश्विक समस्या बना हुआ है। इसका सबसे ज्यादा दुष्प्रभाव कुछ ही देशों में केंद्रित है। कुछ क्षेत्रों में तो जीवन 6 वर्षों से भी ज्यादा घट रहा है। अधिक प्रदूषण अक्सर नीति निर्धारण में कमी या मौजूदा नीतियों को लागू करने में विफलता को दर्शाता है।"
रिपोर्ट के अनुसार, पार्टिकुलेट पॉल्यूशन (बहुत छोटे और महीन कणों से होने वाला प्रदूषण) का जीवन प्रत्याशा पर प्रभाव धूम्रपान के बराबर है, जो अत्यधिक शराब के सेवन से 4 गुना अधिक, सड़क दुर्घटनाओं से 5 गुना अधिक और एचआईवी/एड्स से 6 गुना अधिक है। फिर भी, दुनिया भर में प्रदूषण की चुनौती बहुत असमान है। पृथ्वी पर सबसे प्रदूषित स्थानों पर रहने वाले लोग ऐसी हवा में सांस लेते हैं जो सबसे कम प्रदूषित स्थानों पर रहने वाले लोगों की तुलना में छह गुना अधिक प्रदूषित है। इसके कारण उनका जीवन औसतन 2.7 वर्ष कम हो जाता है।
दक्षिण एशिया में वायु प्रदूषण घटने के कारण 2022 में वैश्विक प्रदूषण में गिरावट आई है। प्रदूषण एक दशक से भी ज्यादा समय से बढ़ रहा था, लेकिन एक साल में इसमें 18 प्रतिशत की गिरावट आई। इस गिरावट के कारणों को निश्चित रूप से जानना मुश्किल है, लेकिन मौसम संबंधी कारणों - जैसे कि सामान्य से अधिक बारिश - ने इसमें अहम भूमिका निभाई है। प्रदूषण में गिरावट के बावजूद दक्षिण एशिया दुनिया में सबसे ज्यादा प्रदूषित क्षेत्र बना हुआ है, जहां अधिक प्रदूषण के कारण कुल जीवन वर्षों में से 45 प्रतिशत की हानि होती है। अगर विश्व स्वास्थ्य संगठन के दिशा-निर्देशों के अनुसार प्रदूषण को स्थायी रूप से कम कर दिया जाए, तो इन देशों में रहने वाले औसत व्यक्ति की जिंदगी में 3.5 साल की वृद्धि होगी।
राष्ट्रीय मानक प्रभावी नीतियां तैयार करने और वायु गुणवत्ता में सुधार के लिए महत्वपूर्ण हैं। दुनिया की एक तिहाई आबादी ऐसे क्षेत्रों में रहती है जो देश अपने द्वारा निर्धारित मानकों को पूरा नहीं करते हैं। अगर वे देश अपने स्वयं के मानदंडों को पूरा कर दें तो ये 2.5 अरब लोग औसतन 1.2 साल अधिक जीवित रहेंगे।
एक्यूएलआई की निदेशक तनुश्री गांगुली कहती हैं कि महत्वाकांक्षी मानक निर्धारित करना इस समस्या के हल का केवल एक हिस्सा है। उतना ही महत्वपूर्ण है नीतियों को लागू करना और निगरानी तंत्र विकसित करना। कुछ देश इसमें सफल हो रहे हैं। यह इस बात का प्रमाण है कि वायु प्रदूषण की समस्या का समाधान किया जा सकता है।
दुनिया में 94 देशों में से 37 देश ऐसे हैं जो वायु गुणवत्ता के अपने मानकों को पूरा नहीं करते हैं जबकि आधे से अधिक देशों ने कोई मानक तय ही नहीं किया है। कुल मिलाकर, दुनिया भर के 77 प्रतिशत देशों और क्षेत्रों ने या तो राष्ट्रीय मानक को पूरा नहीं करते या उनका कोई राष्ट्रीय मानक नहीं है।
ईपीआईसी के स्वच्छ वायु कार्यक्रम की निदेशक क्रिस्टा हसेनकोफ़ कहती हैं, "अत्यधिक प्रदूषित देश, जिनके पास वायु गुणवत्ता संबंधी बहुत कम आंकड़े हैं या कोई आंकड़ा नहीं है, उन्हें समस्या की सही जानकारी नहीं मिल पाती है। क्योंकि कम आंकड़े होने से इस मुद्दे पर कम ध्यान जाता है या नीति निवेश कम होता है, जिससे आंकड़ों की मांग कम होती है। यह एक दुष्चक्र है। लगातार कोशिशों और वायु गुणवत्ता संबंधी आंकड़ों के जरिए इस दुष्चक्र को तोड़ा जा सकता है। इस तरह के आंकड़े राष्ट्रीय मानक तय करने के लिए आवश्यक हैं।"