इंग्लैंड में जीन एडिटिंग के मामलों में गैरजरूरी लालफीताशाही को कम करने के लिए नया कानून बनाया जाएगा। इससे इंग्लैंड के किसानों को बेहतर रोग प्रतिरोधी, पौष्टिक और अधिक उपज देने वाली फसलें उगाने में मदद मिलेगी। यह जानकारी इंग्लैंड के पर्यावरण, खाद्य और ग्रामीण मामलों के विभाग (डीईएफआरए) की तरफ से दी गई है। इस कानून के आने से इंग्लैंड के कृषि वैज्ञानिक जीन एडिटिंग जैसी आनुवांशिक तकनीकों का उपयोग करके पौधों से संबंधित अनुसंधान और विकास में मजबूत हो सकेंगे। यह नया नियम यूरोपीय संघ से इंग्लैंड के अलग होने यानी ब्रेक्सिट के बाद संभव हुआ है।
जीन एडिटिंग के माध्यम से पौधों के प्रजनन पर प्रतिबंध लगाने वाले यूरोपीय न्यायालय के 2018 के फैसले के बाद इस पर रोक लगा दी गई थी। न्यायालय के फैसले का आधार 2001 का यूरोपियन यूनियन का वह निर्देश था जिसमें जेनेटिकली मोडिफाइड ऑर्गेनिज्म (जीएमओ) पर प्रतिबंध लगाया गया था। हालांकि, ऐसे अध्ययन हैं जो कहते हैं कि "जीएमओ निर्देश नई तकनीकों के मुताबिक नहीं हैं।" लेकिन यूरोपीय संघ में पर्यावरणविदों और जैविक किसानों का कहना है कि संशोधित पौधों को जीएमओ के रूप में लेबल करना जारी रखना चाहिए।
विभाग के अनुसार, नए नियम ब्रिटेन में उन पौधों पर लागू होंगे जहां जीन संपादन का उपयोग नई किस्मों को बनाने के लिए किया जाता है। प्रकृति द्वारा प्रदान किए गए जेनेटिक संसाधनों का जेनेटिक प्रौद्योगिक के जरिए उपयोग करने से किसानों को बेहतर फसल उगाने के अवसर मिलेंगे। यह हानिकारक रसायनों, कीटनाशकों और दवाओं के उपयोग को कम करके पर्यावरण की रक्षा के नए तरीकों में मदद करेगा। अन्य संभावित लाभों में फसलों को प्रतिकूल मौसम और जलवायु परिवर्तन के प्रति अधिक प्रतिरोधी बनाना शामिल है।
ब्रिटेन के एग्री इनोवेशन मंत्री जो चर्चिल कहते हैं, नई आनुवंशिक प्रौद्योगिकी हमें खाद्य सुरक्षा, जलवायु परिवर्तन और जैव विविधता के नुकसान जैसी बड़ी चुनौतियों से निपटने में मदद कर सकती हैं। हालांकि, आनुवंशिक प्रौद्योगिकी पर अनुसंधान करने वाले सभी वैज्ञानिकों को किसी भी शोध और परीक्षण के लिए विभाग को सूचित करना जारी रखना होगा। फिलहाल आनुवंशिक रूप से संशोधित पौधों को जीएमओ के रूप में ही वर्गीकृत किया जाएगा। इन पौधों की व्यावसायिक खेती और उनसे प्राप्त किसी भी खाद्य उत्पाद को मौजूदा नियमों के अनुसार अधिकृत करने की आवश्यकता होगी।
जीन एडिटिंग, जेनेटिक मॉडिफिकेशन से इस मायने में भिन्न है, कि इस प्रौद्योगिकी से ब्रीडर और वैज्ञानिक प्राकृतिक प्रजनन जैसा ही तरीका अपना सकते हैं। जीन-एडिटिंग की तकनीक वायरस येलो प्रतिरोधी चुकंदर, बिना शतावरी फफूंदी गेहूं, प्रतिरोधी टमाटर और रोग प्रतिरोधी केले जैसी फसलों के उत्पादन में उपयोगी साबित होगी।
भारत में जीन एडिटिंग की नीति राजनीति का शिकार होती दिख रही है। जैव प्रौद्योगिकी विभाग (डीबीटी) के दिशानिर्देशों के अनुसार एसडीएन1 और एसडीएन2 श्रेणियों को जेनेटिक इंजीनियरिंग मूल्यांकन समिति (जीईएसी) के मूल्यांकन से छूट दी जानी चाहिए। इससे भारतीय कृषि को विज्ञान से मिलने वाले लाभ की प्रक्रिया में तेजी आएगी। ट्रांसजेनिक फसलों के विपरीत, एसडीएन1 और एसडीएन2 श्रेणियों में कोई विदेशी जीन शामिल नहीं है।
दुर्भाग्यवश पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय इस पर विश्वास नहीं कर पा रहा है। इस विभाग के लिए फील्ड ट्रायल में राज्य की सहमति भी जरूरी है। इसलिए उसने इस संबंध में राज्यों को एक पत्र भेजकर उनकी राय मांगी है। लेकिन लगता है मामला अटका हुआ है। भारत में नीति निर्माताओं को यह तय करने की आवश्यकता है कि हमें इंग्लैंड के रास्ते जाना चाहिए या यूरोपीय संघ की तरह प्रतीक्षा करनी चाहिए। ऐसा नहीं है कि जब समृद्धि की बात आती है तो हम यूरोपीय संघ की तुलना में कहीं भी खड़े होते हैं। भारत के लिए समय सबसे महत्वपूर्ण है।