मिस्र के शर्म अल शेख में 27वां जलवायु सम्मेलन आयोजित हो रहा है। यह 2016 के बाद अफ्रीका में आयोजित होने वाला पहला वैश्विक जलवायु सम्मेलन है। साथ ही यह पहला सम्मेलन है जिसमें खाद्य एवं कृषि पर अधिक फोकस किया गया है। सम्मेलन का स्थान और इसका फोकस दोनों काफी महत्वपूर्ण हैं। अफ्रीका इन दिनों लगातार मानवीय संकट का केंद्र बना हुआ है। इस संकट का मुख्य कारण खाद्य उत्पादन पर जलवायु परिवर्तन का प्रभाव है।
यह बड़े ही दुर्भाग्य की बात है कि जलवायु पर होने वाली चर्चाओं में कृषि और खाद्य को हमेशा नजरअंदाज किया गया। जलवायु परिवर्तन के लिए कुल सार्वजनिक फंडिंग में सिर्फ 3% कृषि और खाद्य के लिए होता है। हालांकि यह सेक्टर लगभग एक तिहाई ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार है।
संयुक्त राष्ट्र के प्रत्येक जलवायु परिवर्तन कॉन्फ्रेंस में यह देखने को मिलता है कि गैर सरकारी संगठन (एनजीओ), वैज्ञानिक और यहां तक कि अंतरराष्ट्रीय संस्थान भी किस कृषि क्षेत्र के खिलाफ यह आलोचना करते हैं। ज्यादातर चर्चाओं में कृषि और खाद्य को सामने नहीं रखा जाता है, जबकि किसान ही जलवायु परिवर्तन से सबसे अधिक प्रभावित हो रहे हैं।
दरअसल कृषि क्षेत्र जलवायु परिवर्तन में भागीदार होने के साथ-साथ इसका शिकार भी है। अगर पेरिस समझौते को मानते हुए प्री-इंडस्ट्रियल युग की तुलना में ग्लोबल वार्मिंग को 2 डिग्री सेल्सियस से कम रखना है तो कृषि क्षेत्र की अनदेखी नहीं की जा सकती है।
लेकिन सच्चाई यही है कि ट्रांसपोर्ट अथवा ऊर्जा क्षेत्र को जितनी तवज्जो दी जा रही है उतनी कृषि को नहीं। अभी तक जलवायु परिवर्तन पर होने वाली चर्चाओं में खाद्य की चर्चा मामूली रूप से होती है। जलवायु सम्मेलन में पहली बार कृषि के लिए पूरा दिन निर्धारित किया गया है। 12 नवंबर को सिर्फ इसी विषय पर चर्चा होगी और उससे पहले उच्चस्तरीय राउंडटेबल बैठक भी होगी।
रूस-यूक्रेन युद्ध ने ग्लोबल फूड सिस्टम के असंतुलन को रेखांकित किया है। इस वर्ष अत्यधिक सूखे ने अनेक देशों में फसलों को प्रभावित किया है। पाकिस्तान और नाइजीरिया में जलवायु संकट का असर भीषण बाढ़ के रूप में सामने आया। दुर्भाग्य की बात है कि जलवायु पर होने वाली चर्चाओं में इन मुद्दों का समाधान तलाशने का अवसर खो दिया गया।
लेकिन सीओपी 27 (COP27) के खाद्य एवं कृषि पेवेलियन में खाद्य एवं कृषि पर विशेष चर्चा की जाएगी। इस चर्चा का आयोजन संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन (FAO) एवं सीजीआईएआर और रॉकफेलर फाउंडेशन कर रहे हैं।
यह घटनाक्रम ऐसे महत्वपूर्ण समय में हो रहा है जब यूरोप, अमेरिका और अफ्रीका में अभूतपूर्व सूखे की स्थिति है। भारत में गेहूं की फसल को हीटवेव से नुकसान हुआ और पाकिस्तान तथा चीन में बाढ़ और सूखे की नौबत आई। यह सब घटनाएं बताती हैं कि एक्सट्रीम वेदर की परिस्थिति में खाद्य उत्पादन का जोखिम कितना बड़ा है।
दुनिया के 35 करोड़ किसानों और उत्पादकों का प्रतिनिधित्व करने वाले संगठनों ने 7 नवंबर को विश्व नेताओं को एक खुला पत्र लिखा था। उन्होंने चेतावनी दी कि अगर सरकार छोटे स्तर पर उत्पादन के लिए एडेप्टेशन फाइनेंस को बढ़ावा नहीं देती है और कम लागत वाली विविध खेती को प्रमोट नहीं करती है तो वैश्विक खाद्य सुरक्षा के लिए संकट उत्पन्न होगा। जलवायु संकट के प्रभावों से बचने के लिए दी जाने वाली मदद को एडेप्टेशन फाइनेंस कहते हैं।
कृषि जलवायु परिवर्तन का शिकार तो है ही, यह एक तिहाई से अधिक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के लिए भी जिम्मेदार है। कई निजी संस्थाओं के संगठन ग्लोबल एलायंस फॉर द फ्यूचर ऑफ फूड ने हाल ही एक रिपोर्ट में कहा है कि जलवायु से संबंधित सिर्फ 3% सार्वजनिक फंडिंग कृषि और खाद्य के लिए है। यह इस क्षेत्र के महत्व को देखते हुए बहुत कम है।
सरकारें भी इस सेक्टर के महत्व को कमतर आंकती हैं। विकसित देशों की बात करें तो 62% देशों ने 2030 तक प्रदूषण कम करने के अपने राष्ट्रीय लक्ष्य (nationally determined contributions - NDC) में खाद्य प्रणाली से जुड़ा कोई उपाय नहीं किया है। विकासशील देशों में उनकी वित्तीय जरूरतों का सिर्फ 4% खाद्य प्रणाली में बदलाव के लिए रखा गया है।
किसी ने सोचा भी नहीं था कि भारत में गेहूं और चावल की कमी होगी। लेकिन यह ऐसा वर्ष है जब जलवायु परिवर्तन का फसलों पर प्रभाव सबके सामने है। विशेषज्ञ मानते हैं कि कृषि क्षेत्र से जो उत्सर्जन होता है उसका ज्यादातर औद्योगिक कृषि के कारण है। वह एग्रो इकोलॉजी (कृषि पारिस्थितिकी) में बदलाव की जरूरत भी बताते हैं। नई कृषि पारिस्थितिकी ऐसी हो जिसमें प्रकृति और स्थानीय समुदाय को साथ लेकर खाद्य सुरक्षा, आजीविका और जैव विविधता सुनिश्चित की जाए।
विशेषज्ञों का कहना है कि हम जिस तरह खाना खाते हैं, जैसी खेती करते हैं और खाद्य पदार्थों का वितरण करते हैं उसे पूरी तरह बदलने की जरूरत है।