बात कुछ दिनों पहले की है। मेरे दोस्त नसीब सिंह वर्मा के साथ एक दिन चर्चा हो रही थी। उन्होंने पूर्व विधायक ठाकुर फूल सिंह की एक बात का जिक्र किया। फूल सिंह अक्सर कहा करते थे, भारत के गांव नमक की खदान हैं, जो भी यहां काम करने आता है वह गल जाता है। मैंने उनका लिखा कुछ काम तलाशने की कोशिश की ताकि ग्रामीण विकास या गांव में होने वाले बदलाव या फिर कहें ग्रामीण क्षेत्र या ग्रामीण लोगों के पुनर्निर्माण पर उनके क्या विचार हैं, उसे जान सकूं। पर मैं वह तलाशने में नाकाम रहा। मैं उनकी तलाश इसलिए कर रहा था क्योंकि मैं सहारनपुर जिले की 5 ग्राम पंचायतों में काम करना चाहता था। 31 दिसंबर 2015 को जब मैं भारत सरकार की नौकरी से रिटायर हुआ तो मेरी दो ख्वाहिशें थीं। पहली तो यह कि ग्रामीण विकास पर किसी अंतरराष्ट्रीय प्रकाशक के लिए किताब लिखना। रूरल लोकल गवर्नेंस एंड डेवलपमेंट किताब लिखने के साथ मेरी वह इच्छा पूरी हुई जिसका प्रकाशन द सेज ने किया। दूसरी इच्छा ग्रामीण क्षेत्र में सक्रिय रूप से काम करने की थी। इसी इच्छा को पूरा करने के लिए कर्प फाउंडेशन ट्रस्ट का रजिस्ट्रेशन कराया गया। गांव और वहां रहने वाले लोगों के सामाजिक और आर्थिक विकास के लक्ष्य के साथ 2 साल पहले कर्प फार्म की शुरुआत की गई। इसके लिए मुझे कहीं से कोई फंड नहीं मिला। फार्म स्थापित करने, ऑर्गेनिक खेती करने और प्रशिक्षण देने तथा क्षमता निर्माण के लिए मैंने अपनी कमाई ही खर्च की। बीते 2 साल मेरे और पत्नी के लिए बड़े मुश्किल भरे रहे। हम दोनों कोविड-19 से ग्रस्त हो गए थे और 12 दिनों तक अस्पताल में भर्ती रहे।
हालांकि मेरा पैसा, मेरा दिमाग, मेरे सारे प्रयास ग्रामीण विकास के लिए थे, पर इसे अलग रूप में नहीं बल्कि संपूर्णता में देखा जाना चाहिए। इसमें अर्थव्यवस्था के प्राइमरी, सेकेंडरी और टर्शियरी तीनों सेक्टर शामिल हैं। हमारा फार्म सहारनपुर शहर से करीब 11 किलोमीटर दूर है जिसे लगभग जंगल का इलाका कह सकते हैं। फिर भी हम दोनों कई बार जाकर फार्म में ही रहते हैं। हमारे फार्म में ठहरने की बात सुनकर जानकर एक दिन पिताजी ने कहा, “अरे महिपाल वहां मत रहो, वह जंगल का इलाका है और असुरक्षित है। कोई तुम्हें नुकसान पहुंचा सकता है। गांव में रहो या फिर शहर में।” मैंने जवाब में उन्हें सिर्फ धन्यवाद कहा। जो लोग नौकरी या बिजनेस के सिलसिले में बहुत पहले गांव छोड़ कर चले गए थे उनके लिए यहां रहना और गांव के वातावरण के साथ खुद को ढालना मुश्किल होता है। लेकिन सामाजिक पूंजी निर्माण के लिए अगर आप इस तरह का वातावरण तैयार करने में सफल होते हैं तो गांव वाले भी आपकी प्रशंसा करेंगे।
जब मैं गांव में काम करने की इच्छा जाहिर करता था तो मेरे कुछ मित्र कहते थे कि वहां तुम्हें लोगों का समर्थन नहीं मिलेगा क्योंकि वहां लोगों के भीतर नकारात्मकता बहुत ज्यादा है। वे सोचेंगे कि गांव में तुम्हारे काम करने का उद्देश्य क्या है। मैंने भी नकारात्मकता का अनुभव किया और इस लेख में उन्हीं बातों को साझा करना चाहता हूं। अगर आप किसी की गलती को रेखांकित करें या सही बात कहेंगे तो यह अपने लिए मुसीबत मोल लेने के समान है। अगर आप किसी से कहें कि अमुक ने इतनी अधिक शराब पी ली कि वह अपने होश में नहीं रहा, तो आपको तत्काल जवाब मिलेगा, “मैं तुम्हारे पैसे से शराब नहीं पी रहा, अपने पैसे से पी रहा हूं।” वह व्यक्ति यह नहीं समझता कि दूसरों के लिए समस्या पैदा करना भी गलत बात है। पैसे का इस्तेमाल हर व्यक्ति को इस तरह करना चाहिए कि उसका अधिक से अधिक सदुपयोग हो सके। शराब पीकर घर के भीतर या बाहर उधम मचाना भी अच्छा नहीं है। अगर कोई व्यक्ति गांव का विकास करना चाहता है और इस तरह के सवाल करता है तो उसे शराबियों से नकारात्मक जवाब ही मिलता है। गांव की समस्याओं का समाधान करने के लिए अगर व्यक्ति कोई सुधार करना चाहता है तो ये लोग उसे शारीरिक नुकसान भी पहुंचा सकते हैं और ऐसे लोग ऐसा करके खुश भी होते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो दूसरों के जीवन में नकारात्मकता फैलाकर ये लोग खुश होते हैं। ऐसे में विकास कैसे हो सकता है। दूसरी तरफ वह लोग भी हैं जो जरूरतमंदों की मदद करते हैं। वे सामाजिक इन्फ्रास्ट्रक्चर की रचना करने के साथ बच्चों में वैज्ञानिक सोच का भी विकास करते हैं।
यह बात हम सब जानते हैं कि पंचायती राज को बेहतर बनाने की जरूरत है, क्योंकि अभी यह गांवों में जिस तरीके से लागू है वह नियम कायदे के मुताबिक नहीं है। अगर कोई व्यक्ति पंचायत के कामकाज पर सवाल उठाता है तो प्रधान के साथ उसका झगड़ा हो जाएगा। कई बार झगड़ा इतना बढ़ जाता है की हत्याएं तक हो जाती है। इससे झगड़ा आगे चलकर दोनों परिवारों के बीच दुश्मनी का रूप ले लेता है। गांवों में लोकतंत्र सिर्फ नाम के लिए है। पंचायती राज की पूरी व्यवस्था प्रधान और ग्राम सचिव पर केंद्रित होती है। जिन लोगों पर पंचायत के काम नियम पूर्वक करने की जिम्मेदारी होती है वे शायद ही कभी ऐसा करते हैं। लोगों की भागीदारी सिर्फ कागजों तक सीमित रहती है। यह कहना गलत नहीं होगा कि यह पंचायती राज नहीं बल्कि अफसर राज है। कुछ प्रधानों तथा अन्य लोगों ने मुझे बताया कि पंचायत के काम वे अपनी जेब से करवाते हैं, बाद में उन्हें वह पैसा मिलता है। कितने प्रधानों के पास इतना पैसा होता है कि वह अपनी जेब से पहले खर्च करें? आखिर वे ऐसा करते ही क्यों हैं? हो सकता है कुछ प्रधान कर्ज लेकर यह काम करते हों और ब्याज समेत रकम लौटाते हों। यह सब इसलिए होता है क्योंकि अफसरों और प्रधानों के बीच एक तरह की मिलीभगत होती है। यही कारण है कि नियम कायदे ताक पर रख दिए जाते हैं। उसके बाद जाति का भेदभाव भी है। हर जाति अपना वर्चस्व चाहती है। इलाके का विकास कैसे हो, यह सोचने के बजाय उनकी चिंता यह होती है कि सुबह-शाम मंदिर में कौन सा भजन गायन होना चाहिए। ग्रामीण क्षेत्रों की यह स्थिति देखकर ही डॉ भीमराव आंबेडकर ने संविधान सभा में कहा था कि गांव स्थानीयता, अज्ञानता संकीर्ण विचार और सांप्रदायिकता की जगह हैं। मैं डॉ आंबेडकर की इस टिप्पणी पर लोगों की राय भी जानना चाहूंगा।
शिक्षा यहां लोगों की प्राथमिकता नहीं है। सरकारी स्कूल हैं लेकिन अक्सर माता-पिता अपने बच्चों को तथाकथित निजी स्कूलों में भेजते हैं, जहां के शिक्षक सरकारी स्कूलों के शिक्षकों के विपरीत ना तो योग्य होते हैं और ना ही प्रशिक्षित। सरकारी स्कूलों में शिक्षा मुफ्त होती है। आर्थिक तंगी होने के बावजूद लोग निजी स्कूलों में बच्चों को भेजते हैं। बच्चों की पढ़ाई कैसी चल रही है, यह पूछने पर उनका जवाब होता है, हम तो अनपढ़ हैं, हम इस बारे में नहीं जानते। लेकिन हम स्कूल को इतनी फीस देते हैं। अभिभावकों के लिए बच्चों को निजी स्कूलों में भेजना अहम की बात होती है। सवाल है कि बच्चों को निजी स्कूलों में भेजने से क्या मिलता है। अगर कोई रिमेडियल स्कूल शुरू करता है और बच्चों को अपने खर्च से मदद करता है तब भी उसके खिलाफ नकारात्मकता फैलाई जाती है कि अमुक व्यक्ति रिमेडियल स्कूल चला कर बहुत कमाई कर रहा है। वास्तविकता तो यह होती है कि वह कमजोर और पिछड़े वर्ग के बच्चों में शिक्षा के विकास के लिए खुद खर्च कर रहा होता है। किसी भी अच्छे कार्य में लोगों को साथ लेने के लिए बड़े प्रयासों की जरूरत पड़ती है। अगर आप ऐसी पार्टी आयोजित करें जहां मुफ्त में शराब वितरित की जाए तो वहां काफी लोग इकट्ठा होंगे। मैंने ग्रामीण विकास के लिए गांव में अनेक लोगों से बात की, लेकिन सब का अनुभव दुखद ही रहा। ऐसे में सवाल उठता है कि कोई गांव में काम क्यों करें।
इसका दूसरा पहलू यह है कि बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि गांव के विकास के लिए आपने कौन सा तरीका अख्तियार किया है। बेहतर नतीजे के लिए आपको एक ऐसी एजेंसी की तरह काम करना चाहिए जो विभिन्न पक्षों को एक प्लेटफॉर्म पर ला सके। महिलाओं या पुरुषों का स्वयं सहायता समूह बनाया जा सकता है और उन्हें माइक्रोफाइनेंस तथा लघु उद्यमों के लिए बैंकों से जोड़ा जा सकता है। इस तरह के कदम उठाने पर गांव के लोग उसका स्वागत करेंगे। उसके प्रयासों को आगे बढ़ाने के लिए सामाजिक कार्यकर्ता भी आसानी से मिल सकते हैं। मैं और मेरी पत्नी समाज शिल्पी दंपती के रूप में ही काम कर रहे हैं>
(लेखक इंडियन इकोनॉमिक सर्विस के पूर्व अधिकारी हैं)