लोक सभा चुनावों के बाद राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण महाराष्ट्र की विधान सभा के चुनावों के लिए 20 नवंबर को मतदान होने जा रहा है। पिछले कुछ दिनों में महाराष्ट्र में चुनावी मुद्दों के रूप में किसानों की समस्याओं की गूंज रही है। इनके केंद्र में हैं सोयाबीन, कपास, प्याज और गन्ना किसान। सोयाबीन और कपास को लेकर जिस तरह से राजनीतिक नफे-नुकसान की बात हो रही है, वह मराठवाड़ा और विदर्भ के किसानों का अपने मुद्दों को लेकर जागरुक होना दर्शाता है। इस बार वे उसी तरह से अपने मुद्दे उठा रहे हैं जिस तरह पश्चिमी महाराष्ट्र के गन्ना और प्याज किसान अपनी मांग उठाते रहे हैं।
असल में अब देश के हर हिस्से में किसान अपनी फसल के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) और जिन फसलों के लिए एमएसपी नहीं है उनकी बेहतर कीमतों को लेकर बेहद जागरूक हो गये हैं। यही वजह है कि महाराष्ट्र के चुनावों में सोयाबीन और कपास की कीमतों में गिरावट बड़ा मुद्दा बनकर उभरी है। सरकार ने प्याज निर्यात पर लगी पाबंदियों को खत्म कर किसी हद तक प्याज किसानों की नाराजगी को कम करने की कोशिश की है। लेकिन राज्य में सोयाबीन, कपास, गन्ना और दुग्ध उत्पादक किसानों की परेशानियां चुनावी मुद्दा बन रही हैं।
महाराष्ट्र में करीब 50 लाख हेक्टेयर में सोयाबीन की खेती होती है। कपास की खेती 40 लाख हैक्टेयर में होती है और 10 लाख हेक्टेयर में गन्ना उत्पादन होता है। वहीं प्याज का उत्पादन करीब सात लाख हेक्टेयर क्षेत्र में होता है। इस तरह से देखा जाए तो प्याज और गन्ना किसानों के मुद्दे जिस तरह से सुर्खियों में रहते हैं, राजनीतिक तौर पर वैसी चर्चा सोयाबीन और कपास किसानों के मुद्दों की नहीं होती है। जबकि सोयाबीन और कपास का क्षेत्र अधिक है। लेकिन इस बार स्थिति बदली हुई है। महाराष्ट्र के चुनाव में सोयाबीन और कपास किसानों के मुद्दे खूब गूंज रहे हैं।
प्याज का उत्पादन मुख्यत: नासिक, पुणे, अहमदनगर और सोलापुर में होता है। जबकि कपास का उत्पादन जलगांव, यवतमाल, औरंगाबाद, जालना, बीड, अमरावती, वर्धा, नांदेड, धुले और परभनी में होता है। गन्ने का अधिक उत्पादन पश्चिम महाराष्ट्र और मराठवाड़ा में होता है, जबकि विदर्भ में इसका उत्पादन बहुत अधिक नहीं है।
सरकार ने चालू खरीफ मार्केटिंग सीजन (2024-25) के लिए सोयाबीन का एमएसपी 4892 रुपये प्रति क्विंटल तय किया है। लेकिन महाराष्ट्र में सोयाबीन किसानों को 4000 रुपये प्रति क्विंटल से भी कम दाम पर सोयाबीन बेचना पड़ रहा है। महाराष्ट्र में केंद्र सरकार ने प्राइस सपोर्ट स्कीम (पीएसएस) के तहत 13 लाख टन सोयाबीन खरीद का लक्ष्य रखा है लेकिन दो दिन पहले तक यह आंकड़ा 5000 टन पर भी नहीं पहुंचा था। किसानों की नाराजगी को देखते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दो दिन पहले एक चुनावी सभा में सोयाबीन किसानों को 6000 रुपये देने की बात कही तो कांग्रेस ने वादा किया कि उनकी सरकार बनने पर सोयाबीन के लिए 7000 रुपये प्रति क्विंटल का दाम दिया जाएगा।
महाराष्ट्र के कारोबारियों और किसानों का कहना है कि सोयाबीन की कम खरीद के पीछे एक बड़ा कारण फसल में नमी (मॉयस्चर) का स्तर तय मानक से अधिक रहना है। किसान खरीद केंद्रों पर फसल लाते रहे हैं, लेकिन मानक से अधिक नमी के चलते उसकी सरकारी खरीद नहीं हो पाई। नतीजतन उन्हें इसे निजी कारोबारियों को बेचना पड़ा। अब मामले के राजनीतिक तूल पकड़ने के बाद 15 नवंबर को केंद्रीय कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय ने सरकारी खरीद के लिए सोयाबीन में नमी के स्तर को 15 फीसदी तक बढ़ाने का निर्देश जारी कर दिया। दिलचस्प बात यह है कि राज्य में सोयाबीन की कटाई पूरी हो चुकी है और बड़े पैमाने पर किसान अपनी फसल कम कीमत पर बेच चुके हैं। ऐसे में भाजपा को इस मुद्दे पर राजनीतिक खामियाजा भुगतना पड़ सकता है।
वहीं कपास को लेकर भी स्थिति बेहतर नहीं है। राज्य में कपास की कीमतें एमएसपी से नीचे चल रही हैं। चालू सीजन के लिए मिडिल स्टेपल कपास की किस्म का एमएसपी 7121 रुपये प्रति क्विंटल है लेकिन 15 नवंबर को यवतमाल में इस किस्म की कपास का दाम 6900 रुपये प्रति क्विंटल था। एक साल पहले इसका दाम 7200 रुपये प्रति क्विंटल और दो साल पहले 9000 रुपये प्रति क्विंटल था। इन कीमतों के आधार पर किसानों की दिक्कत समझी जा सकती है। इसी के चलते उनकी नाराजगी बढ़ी है।
अब जब चुनाव प्रचार अपने अंतिम चरण में है और 20 नवंबर को मतदान है, तो किसानों के मुद्दे चुनावी नतीजों पर कितना असर डालेगा, यह जानने के लिए बहुत इंतजार नहीं करना पड़ेगा। लेकिन जिस तरह से चुनाव प्रचार के चरम पर किसानों के मुद्दों पर चर्चा हो रही है, उससे इतना तो जाहिर है कि महाराष्ट्र की राजनीति अब गन्ना और प्याज किसानों तक सीमित नहीं है। विपक्षी गठबंधन महाविकास अघाड़ी में शामिल सभी पार्टियां राज्य में किसानों की दुर्दशा को मुद्दा बनाकर सियासी लाभ उठाने में कोई कसर नहीं छोड़ रही हैं। जबकि भाजपा और महायुति गठबंधन का पूरा जोर किसानों की नाराजगी को किसी तरह कम करने पर है।