नवंबर में पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। 2024 के फाइनल मुकाबले से पहले किसानों का रुख निश्चित रूप से इन चुनावों के नतीजों पर असर डालेगा। इन राज्यों में कृषि से जुड़े मुद्दे प्राथमिकता में होंगे क्योंकि यहां ग्रामीण मतदाता निर्णायक भूमिका में हैं जिनमें से ज्यादातर कृषि एवं इससे जुड़े क्षेत्रों पर निर्भर हैं। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान और तेलंगाना में जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आ रहे हैं, चुनाव में किसानों का प्रभाव और अधिक स्पष्ट होता जा रहा है।
मध्य प्रदेश की 72.4 फीसदी, छत्तीसगढ़ की 70 फीसदी, राजस्थान की 62 फीसदी और तेलंगाना की 60 फीसदी आबादी कृषि क्षेत्र से जुड़ी हुई है। मतदाताओं का यह विशेष वर्ग हर राजनीतिक दल के लिए महत्वपूर्ण वोट बैंक है। जो भी पार्टी सत्ता में है या जो सत्ता में आना चाहती है, उन सभी का लक्ष्य यही है कि इन मतदाताओं को वादों के जरिये लुभाकर भरपूर राजनीतिक फसल काटी जाए। मगर विडंबना यह है कि राजनीतिक रूप से भरपूर फसल होने के बावजूद सकल राज्य घरेलू उत्पाद (जीएसडीपी) में इनकी हिस्सेदीरी कम है। आबादी की तुलना में जीएसडीपी में कृषि क्षेत्र की हिस्सेदीरी मध्य प्रदेश में जहां 36.3 फीसदी है, वहीं छत्तीसगढ़ में 32 फीसदी, राजस्थान में 24 फीसदी और तेलंगाना में सिर्फ 21 फीसदी है।
किसानों की आमदनी कम और स्थिर है। वे हमेशा सरकारी सहायता की तलाश में रहते हैं और फसलों के लिए बारिश और अनुकूल जलवायु पर निर्भर हैं। कृषि कारक मोटे तौर पर इसी तरह काम करता है। सोचने वाली बात यह भी है कि क्या इन चुनावी राज्यों में किसानों को फसलों का उचित दाम मिल रहा है? देश की जीडीपी में कृषि क्षेत्र की हिस्सेदारी लगभग 20 फीसदी है लेकिन कुल कार्यबल का 45 फीसदी से अधिक हिस्सा इस क्षेत्र से जुड़ा हुआ है।
छत्तीसगढ़ में जहां प्रति व्यक्ति सालाना आमदनी 1.3 लाख रुपये है, वहीं एमपी में 1.4 लाख रुपये और राजस्थान में 1.6 लाख रुपये है। केवल यूपी, बिहार, झारखंड जैसे राज्य ही प्रति व्यक्ति आमदनी के हिसाब से इन तीनों से नीचे हैं। जबकि 3.1 लाख रुपये प्रति व्यक्ति सालाना आय के साथ तेलंगाना देश में शिखर पर है। इन चार चुनावी राज्यों की अर्थव्यवस्था में कृषि अपेक्षाकृत बड़ी भूमिका निभाती है। विधानसभा चुनाव के लिए प्रचार अभियान तेज होने के साथ ही इस क्षेत्र से संबंधित मुद्दे सामने आने की अधिक संभावना है।
राजस्थान
2019-20 के आंकड़ों के मुताबिक, राजस्थान में बुवाई का रकबा शुद्ध रूप से सबसे अधिक 180.3 लाख हेक्टेयर तक रहा है। यहां की खेती देश के अन्य राज्यों की तुलना में विविधतापूर्ण रही है क्योंकि खरीफ सीजन में यहां के किसान बाजरा, ज्वार, कपास, मूंग, ग्वार/क्लस्टर बीन के अलावा धान, सोयाबीन, मूंगफली और तिल जैसी अलग-अलग फसलों की खेती करते हैं। वहीं रबी सीजन में गेहूं, सरसों, जौ, चना, लहसुन, प्याज, जीरा, धनिया, सौंफ, मेथी जैसी फसले उगाते हैं। यह पंजाब और हरियाणा के विपरीत है। पंजाब और हरियाणा में बड़े पैमाने पर गेहूं, धान और कपास के साथ-साथ आलू, मक्का, बाजरा और सरसों की खेती की जाती है।
राजस्थान बाजरा, सरसों, मूंग, ग्वार और जौ का शीर्ष उत्पादक है, जबकि मूंगफली (गुजरात के बाद), लहसुन (मध्य प्रदेश के बाद), जीरा एवं सौंफ (गुजरात के बाद) और मेथी (मध्य प्रदेश के बाद) के उत्पादन में दूसरे नंबर पर है। ज्वार (महाराष्ट्र और कर्नाटक के बाद), चना और सोयाबीन (मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र के बाद), तिल (उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के बाद) और धनिया (मध्य प्रदेश और गुजरात के बाद) का यह तीसरे नंबर का उत्पादक है। कपास उत्पादन (गुजरात, महाराष्ट्र और तेलंगाना के बाद) में राज्य का स्थान चौथा और गेहूं (यूपी, एमपी, पंजाब और हरियाणा के बाद), और प्याज (महाराष्ट्र, एमपी, कर्नाटक और गुजरात के बाद) उत्पादन में 5वें नंबर पर है।
दिलचस्प बात यह है कि सरकारी आंकड़ों के अनुसार, 2021-22 में राजस्थान ने दूध उत्पादन में 3.33 करोड़ टन उत्पादन कर यूपी (3.3 करोड़ टन) को पछाड़ दिया और अग्रणी दूध उत्पादक के रूप में उभरा। यह देश का शीर्ष ऊन उत्पादक भी है। यहां बकरियों और ऊंटों की सबसे बड़ी आबादी है। राजस्थान के किसानों ने इस बार अब तक के सर्वाधिक 8 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में कपास की बुवाई की मगर पिंक बॉलवॉर्म के गंभीर संक्रमण ने फसल को बर्बाद कर डाला, खासकर श्री गंगानगर और हनुमानगढ़ जिलों के मुख्य कपास क्षेत्र में करीब एक तिहाई फसल को इस कीट ने नुकसान पहुंचाया है।
इस रेगिस्तानी राज्य में मानसून देर से आता है और जल्दी चला जाता है। यही वजह है कि यह हमेशा कृषि उत्पादन से जूझता रहता है। हालांकि, अन्य वर्षों की तुलना में इस साल मानसून के दौरान राज्य में सामान्य से कहीं अधिक बारिश हुई जिससे उत्पादन बढ़ने की संभावना है। फिर भी, कांग्रेसी मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के सामने वही समस्या है जो भाजपाई वसुंधरा राजे के सामने थी- कृषि उत्पादन में कम वृद्धि, पिछले दशक में सीएजीआर (चक्रवृद्धि वार्षिक वृद्धि दर) केवल 2.7 फीसदी रही, भूजल स्तर गिर रहा है और उत्पादन उन्हीं फसलों (गेहूं, सरसों, चना, मूंगफली, मूंग और सोयाबीन) का ज्यादा हो रहा है जिनकी खरीद न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर होती है।
कृषि अर्थशास्त्रियों का कहना है कि फसलों में विविधता लाने के लिए किसानों को प्रोत्साहित करने के तहत ज्यादा से ज्यादा फसलों की एमएसपी पर खरीद होनी चाहिए क्योंकि वर्तमान में एमएसपी वाले सात फसलों का अधिक उत्पादन एक बड़ी समस्या है। किसानों की शिकायत है बढ़ती इनपुट एवं श्रम लागत एवं स्थिर उत्पादन से मुनाफा प्रभावित हो रहा है। भाजपा के शासन के दौरान भी उनकी यही शिकायत थी। इसके अलावा, वेयरहाउसिंग और कोल्ड स्टोरेज सुविधाएं भी कांग्रेस शासन में उतनी ही कम उपलब्ध हैं जितनी कि भाजपा शासन में थीं। गहलोत के लिए यह कठिन चुनौती है।
मध्य प्रदेश
मध्य प्रदेश में शुद्ध रूप से बुवाई का रकबा 155.1 लाख हेक्टेयर रहा है जो राजस्थान से कम है, लेकिन इसका कुल फसली रकबा सभी राज्यों में सबसे अधिक 282.8 लाख हेक्टेयर है। राजस्थान में यह 275.2 लाख हेक्टेयर है। इस प्रकार, मध्य प्रदेश के एक खेत में औसतन 1.8 फसलें उगती हैं, जबकि राजस्थान में यह केवल 1.5 है। मध्य प्रदेश में उच्च फसल गहनता (पंजाब और हरियाणा के 1.9 से थोड़ा कम) का संबंध सिंचाई से जुड़ा हुआ है। 2009-10 तक राज्य में रबी सीजन के दौरान सरकारी नहरों से बमुश्किल 8 लाख हेक्टेयर में सिंचाई होती थी। यह 2014-15 तक तिगुना बढ़कर 23.9 लाख हेक्टेयर और 2022-23 में 32.6 लाख हेक्टेयर को पार कर गया।
यह विस्तार नए निवेशों और अधूरी परियोजनाओं को पूरा करने के कारण हुआ। साथ ही, नहरों का समय पर रखरखाव (गाद निकालने, सफाई और दरारों को ठीक करने) और कंक्रीट लाइनिंग के माध्यम से मौजूदा सिंचाई क्षमता के उपयोग में सुधार के कारण हुआ। नहरों के अलावा शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार ने 2010-11 और 2020-21 के बीच सिंचाई पंपों के लिए बिजली कनेक्शन को 13.2 लाख से बढ़ाकर 32.5 लाख से अधिक कर दिया।
सिंचाई कवरेज में वृद्धि ने एमपी को भारत का दूसरा सबसे बड़ा गेहूं उत्पादक (यूपी के बाद) राज्य बना दिया। साथ ही सरकारी खरीद एजेंसियों (पंजाब के बाद) का बड़ा आपूर्तिकर्ता बनने में इसे सक्षम बनाया है। यह सोयाबीन, चना, टमाटर, लहसुन, अदरक, धनिया और मेथी का देश का अग्रणी उत्पादक है। इसके अलावा प्याज (महाराष्ट्र के बाद), सरसों (राजस्थान के बाद) और मक्का (कर्नाटक के बाद) में नंबर 2 है। उच्च कृषि उत्पादन और किसानों की स्थिर आय शिवराज सिंह चौहान के लिए वोट खींचने वाले प्रमुख कारक थे। मगर इस बार स्थिति अलग लग रहा है। कृषि उत्पादन वृद्धि धीमी हो गई है और अनियमित मानसून की वजह से सोयाबीन, कपास और दाल सहित कई फसलों का उत्पादन बुरी तरह प्रभावित हुआ है। सोयाबीन की कीमतें इस समय 4,500 रुपये प्रति क्विंटल के आसपास है जो एक साल पहले 4,800 रुपये और दो साल पहले 6,000 रुपये के स्तर पर थी। मौजूदा दर एमएसपी (4,600 रुपये प्रति क्विंटल) से भी कम है। खाद्य तेलों के बढ़ते आयात का सोयाबीन के भाव पर असर पड़ा है। नई फसल मंडियों में आने लगी है। भाव कम मिलने से किसानों का गुस्सा भड़क सकता है।
किसानों की नाराजगी का फायदा उठाने के लिए कांग्रेस ने 2 लाख रुपये तक का कृषि कर्ज माफ करने, सिंचाई के लिए 5 एचपी मोटर के लिए मुफ्त बिजली देने, किसानों का बकाया बिजली माफ करने और बिजली से संबंधित और किसान आंदोलन के झूठे मामले वापस लेने का वादा किया है। साथ ही, कहा है कि अगर पार्टी सत्ता में आई तो 2,600 रुपये प्रति क्विंटल की दर से गेहूं और 2,500 रुपये प्रति क्विंटल की दर से धान खरीद की जाएगी। आदिवासी वोटरों को लुभाने के लिए कांग्रेस ने तेंदू पत्ता चुनने वालों की मजदूरी 4,000 रुपये प्रति मानक बोरा तक करने का वादा किया है।
छत्तीसगढ़
धान का कटोरा कहा जाने वाला छत्तीसगढ़ धान उत्पादन में तो 8वें नंबर (पश्चिम बंगाल, यूपी, पंजाब, तेलंगाना, ओडिशा, आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु के बाद) पर है, लेकिन सरकारी खरीद में तीसरे नंबर (पंजाब और तेलंगाना के बाद) पर है। यहां के किसानों को मौजूदा समय में धान की कीमत सबसे ज्यादा मिल रही है। 2022-23 के लिए उन्हें सामान्य किस्म के धान के लिए 2,640 रुपये और ग्रेड 'ए' धान के लिए 2,660 रुपये प्रति क्विंटल का भुगतान किया गया। इसमें केंद्र का एमएसपी 2,040-2,060 और राज्य सरकार का 600 रुपये का बोनस शामिल था। पिछले मार्केटिंग वर्ष में 23.4 लाख किसानों से 1.07 करोड़ टन धान खरीदा गया था और लगभग 28,500 करोड़ रुपये का भुगतान किसानों को किया गया।
किसानों से सीधी खरीद के माध्यम से छत्तीसगढ़ की चावल क्रांति रमन सिंह के नेतृत्व वाली पिछली भाजपा सरकार में शुरू हुई। तब रमन सरकार ने एमएसपी के ऊपर 300 रुपये प्रति क्विंटल का बोनस देना शुरू किया था। भूपेश बघेल के नेतृत्व वाली मौजूदा कांग्रेस सरकार ने वादा किया है कि अगर पार्टी दोबारा सत्ता में आती है तो धान का खरीद मूल्य बढ़ाकर 3,600 रुपये प्रति क्विंटल किया जाएगा। बघेल को उम्मीद है कि इस बार भी कांग्रेस धान खरीद योजना के जरिये सत्ता पर फिर से काबिज हो सकती है। 2018 के चुनाव में भी कांग्रेस ने यही दांव चला था और 2,500 रुपये प्रति क्विंटल पर धान खरीद का वादा किया था। इसकी बदौलत कांग्रेस ने 15 साल पुरानी रमन सरकार को सत्ता से बेदखल कर दिया था। कांग्रेस ने अपना वादा निभाया और एक अन्य योजना के तहत राज्य के सभी किसानों को सालाना 9,000 रुपये प्रति एकड़ दिए।
तेलंगाना
तेलंगाना में सत्तारूढ़ के. चंद्रशेखर राव के नेतृत्व वाली भारत राष्ट्र समिति (बीआरएस) सरकार का तुरुप का इक्का रायथु बंधु योजना रही है। मई 2018 में शुरू की गई इस योजना के तहत सभी भूमि मालिक किसानों को 10 हजार रुपये प्रति एकड़ सालाना की आर्थिक सहायता दो किस्तों में दी जाती है। बीआरएस ने अपने चुनावी घोषणा-पत्र में वादा किया है कि अगर पार्टी फिर से सत्ता में आती है तो इस राशि को बढ़ाकर 15 हजार रुपये प्रति एकड़ सालाना कर दिया जाएगा। रायथु बंधु की तरह ही प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि और आंध्र प्रदेश सरकार की रायथु भरोसा योजना के तहत किसानों को नगदी हस्तांतरित की जाती है। रायथु भरोसा योजना के तहत 2018 से अब तक 65 लाख से अधिक किसानों को 72,815 करोड़ रुपये की राशि वितरित की गई है।
2014-15 और 2022-23 के बीच तेलंगाना का कुल फसल क्षेत्र 131 लाख एकड़ से बढ़कर 238 लाख एकड़ हो गया है। कालेश्वरम लिफ्ट सिंचाई परियोजना और मिशन काकतीय के तहत सूक्ष्म सिंचाई और गांव के टैंकों के पुनरुद्धार की योजनाओं की बदौलत राज्य का सकल सिंचित क्षेत्र 62.5 लाख एकड़ के दोगुने से भी अधिक बढ़कर 135 लाख एकड़ हो गया है। बीआरएस सरकार की योजनाओं के कारण राज्य का चावल उत्पादन 2014-15 के 44 लाख टन से बढ़कर 2022-23 में 1.75 करोड़ टन हो गया है। इस अवधि के दौरान धान की सरकारी खरीद में लगभग छह गुना वृद्धि (24 लाख टन से 1.4 करोड़ टन) हुई है।
तेलंगाना आज पंजाब के बाद केंद्रीय पूल में धान का दूसरा सबसे ज्यादा योगदान देता है। यह कपास खरीद में नंबर एक और उत्पादन में तीसरे नंबर (महाराष्ट्र और गुजरात के बाद) स्थान पर है। इसके अलावा, यह हल्दी का शीर्ष उत्पादक, मिर्च में दूसरे नंबर (आंध्र प्रदेश के बाद) पर और अंडा उत्पादन में तीसरे नंबर (आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु के बाद) पर है।
2014 में राज्य बनने के बाद से ही किसान केसीआर सरकार के फोकस में रहे हैं। 2014-15 से 2022-23 तक कृषि उत्पादन का सीएजीआर 14 फीसदी रहा है। लेकिन तेलंगाना के किसानों के लिए सब कुछ ठीक नहीं है। केसीआर की सरकार ने केंद्रीय फसल बीमा योजना को लागू नहीं किया है। फसल बीमा का मुद्दा कैसे आगे बढ़ेगा, यह देखने वाली बात है। साथ ही बटाईदार किसानों का मुद्दा है। केसीआर ने बटाईदार किसानों को औपचारिक मान्यता दी है जिससे उन्हें बैंक कर्ज जैसे लाभ प्राप्त करने की अनुमति मिली, लेकिन ये प्रक्रिया सिर्फ एक बार 2015-16 में हुई। कई पट्टेदार किसान अब तक इस योजना से बाहर हैं। केसीआर को कृषि क्षेत्र पर और काम करने की जरूरत होगी।
बहरहाल, आगामी विधानसभा चुनाव में ये सारे कारक कितने प्रभावी होंगे और किसान इस पर किस मूड के साथ मतदान करेंगे, इसका पता तो 3 दिसंबर को ही चलेगा जब चुनावी नतीजे आएंगे।