आमवाली, कैराना, शामली, मुजफ्फरनगर
उत्तर प्रदेश में विधान सभा चुनावों के पहले चरण की 58 सीटों पर चुनाव प्रचार बंद हो गया है। इन सीटों पर 10 फरवरी को मतदान होगा। इसके दो दिन पहले इस चरण की सबसे चर्चित विधान सभा सीट कैराना के तहत आने वाला गांव आमवाली। यहां जाट किसान, मुसलमान और बाकी जातियों के लगभग बराबर वोट हैं। योगेंद्र सिंह तोमर, नसीम और ओमवीर सिंह से जब मुलाकात होती है, उसके कुछ देर पहले ही यहां समाजवादी पार्टी के प्रत्याशी नाहिद हसन के लिए प्रचार कर रहीं उनकी बहन इकरा हसन एक नुक्कड़ मीटिंग करके दूसरे गांव में निकली हैं। चुनावी मुद्दों के बारे में बात करने पर योगेंद्र और ओमवीर युवाओँ में बेरोजगारी, महंगी बिजली, गन्ना भुगतान में देरी और अवारा पशुओं की समस्या गिनवाते हैं। टेंट का काम करने वाले नसीम का जोर बेरोजगारी और धंधा खत्म होने पर है। यह बात किसी को भी चौंका सकती है कि जिस विधान सभा सीट से गृह मंत्री अमित शाह ने भाजपा का चुनाव प्रचार शुरू किया और हिंदू पलायन की बात की, वहां वोटरों के बीच हिंदू मुस्लिम कोई मुद्दा नहीं है।
बात केवल आमवाली गांव के इन वोटरों की नहीं है, मुजफ्फरनगर, शामली, बागपत, देवबंद, मेरठ, बिजनौर और गाजियाबाद के खासतौर से ग्रामीण हिस्सों में आम लोगों के साथ बातचीत में यह बात साफ होती है कि उत्तर प्रदेश में सांप्रदायिक रूप से संवेदनशील माने जाने वाले इन जिलों में धार्मिक आधार पर विभाजन इस चुनाव का मुख्य मुद्दा नहीं बन रहा है। बल्कि यह कहना ज्यादा ठीक होगा कि उत्तर प्रदेश में इस बार के चुनाव में लोगों के जीवन से जुड़े मसलों और स्थानीय मुद्दों की वापसी हुई है। चुनावों में सामान्य मुद्दों का लौटना भारतीय जनता पार्टी के लिए अच्छा संकेत नहीं है क्योंकि यह उसकी चुनावी रणनीति के लिए ठीक नहीं।
असल में विधान सभा चुनावों का पहला चरण भाजपा के लिए मुश्किलें और गठबंधन के लिए बेहतर नतीजों के संकेत के रूप में देखा जा सकता है। भाजपा के कई बड़े नेताओं ने इस लेखक के साथ अनौपचारिक बातचीत में स्वीकार किया कि उनको नुकसान हो रहा है। इसके लिए आबादी के गणित को समझना होगा।
उत्तर प्रदेश के 26 जिलों में मुसलमानों की आबादी 20 फीसदी से अधिक है। इनमें 14 जिले ऐसे हैं जहां मुस्लिम आबादी 30 फीसदी से अधिक है। सिद्धार्थ नगर में मुस्लिम आबादी 29.23 फीसदी और बागपत में 27.98 फीसदी है। यानी इन 16 जिलों में अगर मुस्लिम वोट एकजुट होते हैं तो भाजपा के विरोधी दलों के पास एक बड़ा वोट बैंक हो जाएगा। इसमें अगर वे किसी दूसरी जाति का वोट जोड़ने में कामयाब होते हैं तो भाजपा के लिए चुनाव जीतना मुश्किल हो सकता है।
इन सभी जिलों की बात करें तो अमरोहा में मुस्लिम आबादी 40.78 फीसदी, बहराइच में 33.53 फीसदी, बरेली में 34.5 फीसदी, बिजनौर में 43.04 फीसदी, बदायूं में 23.26 फीसदी, हापुड़ में 32.39 फीसदी, गाजियाबाद में 22.53 फीसदी, मेरठ में 34.43 फीसदी, मुरादाबाद में 50.80 फीसदी, मुजफ्फरनगर में 41.11 फीसदी, पीलीभीत में 24.11 फीसदी, रामपुर में 50.57 फीसदी, सहारनपुर में 41.95 फीसदी, संभल में 32.58 फीसदी, शामली में 41.73 फीसदी, संत कबीरनगर में 23.50 फीसदी, अमेठी में 20.96 फीसदी, बाराबंकी में 20.96 फीसदी, लखीमपुर खीरी में 20.18 फीसदी, लखनऊ में 21.46 फीसदी और श्रावस्ती में 30.79 फीसदी है।
मौजूदा चुनावों में भाजपा के चुनाव प्रचार की रणनीति अब भी बहुसंख्यक मतदाताओं को साथ लेने की है। इसी रणनीति के तहत कानून व्यवस्था को बड़ा मुद्दा बनाया जा रहा है और बेरोजगारी, महंगाई और किसानों के मुद्दों पर पार्टी ज्यादा बात नहीं कर रही है। लेकिन भाजपा की यह रणनीति मुस्लिम मतदाताओं को एकजुट कर रही है। वहीं गैर-मुस्लिम मतदाता आम लोगों से जुड़े मुद्दों पर बात कर रहे हैं। हालांकि सामान्य मतदाता यह जरूर स्वीकार करता है कि राज्य में कानून व्यवस्था अखिलेश यादव के नेतृत्व वाली समाजवादी पार्टी की सरकार से बेहतर है। लेकिन उन पर मुस्लिम विरोध की चुनावी रणनीति काम नहीं कर रही है। वे महंगाई पर भी बात करते हैं तो युवा बेरोजगारी की बात कहते हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के चार जिलों शामली, बागपत, मुजफ्फरनगर और गाजियाबाद में गन्ना मूल्य के भुगतान में देरी पर उसकी नाराजगी तो काफी अधिक है।
इस स्थिति ने मौजूदा विधान सभा चुनावों को सातवें दशक के सामान्य चुनावों के समकक्ष खड़ा कर दिया है। जहां मुस्लिम मतदाता तो एकजुट हो रहे हैं लेकिन बहुसंख्यक मतदाता विभाजित हैं। ऐसे में किसी भी एक जाति के वोट मुस्लिम मतों के साथ जुड़े तो नतीजे प्रभावित हो सकते हैं।
पहले चरण की 58 सीटों वाले जिलों में कई जिले मुस्लिम मतों की बड़ी संख्या वाले हैं। इन जिलों में राष्ट्रीय लोक दल और समाजवादी पार्टी के गठबंधन के चलते मुस्लिम वोट गठबंधन के साथ एकजुट होते दिख रहे हैं। किसान आंदोलन में मुख्य भूमिका निभाने वाले जाट इस चुनाव में जयंत चौधरी की अध्यक्षता वाले राष्ट्रीय लोक दल के साथ खड़े हैं और उसका फायदा गठबंधन के समाजवादी पार्टी उम्मीदवारों को भी मिल रहा है। किसान आंदोलन का राष्ट्रीय लोक दल को भारी फायदा मिल रहा है क्योंकि इसका मुख्य आधार जाट वोट हैं। गठबंधन के चलते जाट-मुस्लिम मत बड़ी संख्या में नतीजों को पलटते दिख रहे हैं।
इस चुनाव का एक अहम पक्ष है इक्का-दुक्का सीटों को छोड़कर बसपा का चुनावों से लगभग गायब होना। अधिकांश सीटों पर बसपा उम्मीदवारों के बारे में आम मतदाता को जानकारी भी नहीं है और न ही उसका प्रचार कहीं दिखता है। पहले चरण के लिए बसपा प्रमुख मायावती ने केवल आगरा में एक चुनावी सभा की है।
हालांकि भाजपा ने पहले चरण के लिए पूरी ताकत झोंक रखी है। गृह मंत्री अमित शाह के अलावा मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने ताबड़तोड़ दौरे किये हैं, लेकिन उनके भाषणों में बहुसंख्यक मतों को खुश करने की कोशिश और कानून व्यवस्था के मुद्दे ही प्रमुख रहे हैं।
इसलिए यह चुनाव उत्तर प्रदेश की राजनीति में एक नया दौर लाते दिख रहे हैं। भाजपा 2014, 2017 और 2019 में हिंदुत्व और बहुसंख्यक मतों को एकजुट करने की रणनीति से चुनावी कामयाबी हासिल करती रही, लेकिन इस बार अभी तक चुनावी फिजा उसकी रणनीति के अनुरूप नहीं बन रही है। यह राज्य में चुनावों के सामान्य दौर (नार्मलाइजेशन) के लौटने का संकेत है। मुजफ्फरनगर के अपने घर में इस लेखक के साथ लंबी बातचीत में भारतीय किसान यूनियन के राष्ट्रीय प्रवक्ता और किसान नेता राकेश टिकैत कहते हैं कि उत्तर प्रदेश का चुनाव हिंदू-मुस्लिम के बंटवारे की धारणा को नकार रहा है। जाट और गैर जाट के बारे में वे कहते हैं कि हम दूसरी बिरादारी को कह रहे हैं कि जाटों का साथ मत छोड़ना। हम खेती किसानी, महंगाई और बेरोजगारी के मुद्दों पर लोगों को अपना ध्यान केंद्रित करने के लिए कह रहे हैं। हालांकि वे किसी पार्टी विशेष के लिए मतदान या विरोध पर सीधे किसी भी टिप्पणी करने से बचते हैं।