पांच राज्यों की विधान सभा चुनावों के नतीजों के आधार पर कहा जा रहा है कि दिल्ली की सीमाओं पर 13 माह से अधिक समय तक चले किसान आंदोलन से चुनाव बेअसर रहे हैं। उत्तर प्रदेश के नतीजों को देखें तो एकबारगी ऐसा लगता भी है क्योंकि भाजपा यहां बहुमत के साथ सत्ता में वापस आई है। लेकिन इन नतीजों और आंदोलन के प्रभाव वाले जिलों के परिणामों को करीब से देखने पर यह नहीं कहा जा सकता है कि किसान आंदोलन का मुद्दा बिलकुल बेअसर रहा है। हां यह विपक्ष को उतना मजबूत नहीं कर सका कि राज्य में सत्ता परिवर्तन हो जाए। आंदोलन पंजाब, हरियाणा, उत्तराखंड की तराई व मैदानी इलाकों और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान चला रहे थे। इन स्थानों के चुनाव नतीजों को देखना आंदोलन के असर के आकलन का बेहतर तरीका हो सकता है। जो साबित करता है कि जहां पंजाब में आंदोलन का असर व्यापक रहा, वहीं उत्तर प्रदेश में यह पश्चिम के चार जिलों में नतीजे प्रभावित कर सका।
केंद्र सरकार के तीन नये कृषि कानूनों के खिलाफ आंदोलन पंजाब में सबसे मुखर रहा और दिल्ली की सीमाओं पर भी पंजाब के किसानों की भागीदारी अधिक रही। राज्य में सत्ता के दावेदार शिरोमणि अकाली दल की केंद्र सरकार में भागीदारी थी लेकिन विरोध बढ़ता देख जनाधार को बचाने के लिए पार्टी की एकमात्र मंत्री ने केंद्रीय मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया था। आंदोलन का पार्टी ने समर्थन किया लेकिन वह नुकसान को नहीं रोक पाई और दशकों के बाद चुनाव नतीजों में वह सबसे कमजोर स्थिति में है। जहां तक भाजपा की बात है तो उसने पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह की पार्टी और दूसरे कुछ दलों के साथ गठबंधन बनाकर चुनाव लड़ा। प्रधानमंत्री से लेकर उनके मंत्रिमंडल के तमाम सहयोगियों ने वहां प्रचार किया लेकिन पार्टी दो सीटों तक ही सीमित रह गयी। पांच विधान सभा चुनावों में चार में बहुमत से सरकार बनाने वाली पार्टी को पंजाब में केवल दो सीटें मिलना साबित करता है कि तीनों कृषि कानूनों की वापसी के बाद भी वह किसानों की नाराजगी कम नहीं कर पाई। कांग्रेस और उसकी वहां की सरकार ने किसान आंदोलन का समर्थन किया लेकिन उसकी अपनी खामियां उसे ले डूबी और किसानों को वह अपने साथ नहीं रख सकी। वहीं दलित मुख्यमंत्री का उसका कार्ड राज्य के जाट किसानों को उससे दूर ले गया और दलित कार्ड का भी फायदा नहीं हुआ।
अब बात उत्तर प्रदेश की करें तो किसान आंदोलन का असर और उसे दिल्ली की सीमाओं पर सबसे अधिक समर्थन सहारनपुर, शामली, मुजफ्फरनगर, मेरठ बिजनौर और बागपत जिले का ही सबसे अधिक था। शामली जिले की तीनों सीटें राष्ट्रीय लोकदल और समाजवादी पार्टी के गठबंधन ने जीतीं। बागपत की तीन में से एक सीट रालोद को मिली लेकिन दूसरी सीट करीब दो सौ वोटों से और तीसरी सीट भी सात हजार वोटों से रालोद ने गंवाई। मुजफ्फरनगर जिले की छह सीट में से चार सीटें गठबंधन ने जीतीं और केवल दो सीट भाजपा को मिली, जबकि 2017 में सभी छह सीटें भाजपा ने जीती थीं। मेरठ में सात सीटों में से पांच गठबंधन को मिली। बिजनौर में भी गठबंधन का प्रदर्शन भाजपा से बेहतर रहा।
प्रदेश स्तर पर किसान आंदोलन नतीजों पर बहुत असर छोड़ता नहीं दिखता है। फिर भी मुजफ्फरनगर और शामली जिलों में भाजपा को नुकसान और गठबंधन को बड़ा फायदा हुआ तो इसकी बड़ी वजह है सांप्रदायिकता के आधार पर मतों का विभाजन रुकना। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के ये दो जिले 2013 के सांप्रदायिक दंगों का केंद्र रहे थे। लेकिन इन दोनों जिलों में गठबंधन की जीत का मतलब यहां के मुस्लिम और जाट मतदाताओं का वोट उन्हें मिला है।
हालांकि भाजपा ने अपने चुनाव प्रचार को इस इलाके में सांप्रदायिक रंग देने की कोशिश की थी। केंद्रीय गृह मंत्री ने कैराना में चुनाव प्रचार शुरू कर वहां से धार्मिक आधार पर पलायन का मुद्दा उठाया था। इसी तरह की बातें मुजफ्फरनगर में भी की गई थीं। लेकिन सितंबर में भारतीय किसान यूनियन द्वारा आयोजित किसान महापंचायत में इस सांप्रदायिक विभाजन को रोकने पर जोर दिया गया। किसान आंदोलन का योगदान यहां सांप्रदायिक सद्भाव स्थापित करने में रहा और इसी का फायदा रालोद-सपा गठबंधन को हुआ है। इसके चलते ही थानाभवन से राज्य के कैबिनेट मंत्री सुरेश राणा, सरधना से संगीत सोम और बुढ़ाना के विधायक उमेश मलिक चुनाव हार गये और उनकी हार का अंतर भी काफी अधिक रहा है। इन तीनों पूर्व विधायकों पर मुजफ्फरनगर दंगों के आरोप रहे हैं। इनकी हार की सबसे बड़ी वजह मुस्लिम और जाट मतदाताओं का एक साथ भाजपा के खिलाफ और गठबंधन के पक्ष में वोट करना रहा है।
इसलिए जब राज्य में भाजपा 255 सीटें जीतकर आ रही है, तब भाजपा के इन कद्दावर नेताओं का हारना यह साबित करता है कि यहां पर किसान आंदोलन का चुनाव पर असर रहा है। खास बात यह है कि भारतीय किसान यूनियन का मुख्यालय सिसौली भी मुजफ्फरनगर जिले में ही है और यूनियन ने भाजपा के खिलाफ वोट देने का आह्वान किया था। हालांकि इसके नेताओं ने खुद चुनाव लड़ने से परहेज किया, जो समझदारी भरा कदम माना जा सकता है क्योंकि पंजाब में आंदोलन मे शामिल रही 22 जत्थेबंदियों के सर्व समाज मोर्चा के उम्मीदवारों का जो हश्र हुआ वह किसान संगठनों के लिए राजनीति से दूर रखने के लिए एक बड़ी सीख है।