दूध में पाए जाने वाले छोटे और गोल वसा कण (ग्लोब्यूल) मनुष्य के लिए लाभदायक होते हैं। लेकिन इन कणों को दूध से अलग करना और उनसे तरह-तरह के उत्पाद बनाना काफी चुनौतीपूर्ण होता है। इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (आईआईटी) रुड़की की एक रिसर्च टीम ने ऐसी प्रक्रिया विकसित की है जिसमें सिर्फ एक चरण में गाय या भैंस के दूध से वसा के ग्लोब्यूल को अलग किया जा सकता है।
आईआईटी की टीम ने इसके लिए जाने-माने क्रॉस फ्लो माइक्रोफिल्ट्रेशन तकनीक का प्रयोग किया है। यह तकनीक गाय और भैंस के दूध में पाए जाने वाले सेहतमंद वसा के ग्लोब्यूल को उनके आकार के हिसाब से अलग करने में मदद करती है। इस तकनीक में ग्लोब्यूल की ढांचागत और पोषण विशेषताएं बरकरार रहती हैं।
फोटोः गाय और भैंस के दूध से वसा कण निकालने में इस्तेमाल होने वाला पॉलीसल्फोन मेंब्रेन।
इस खोज से न सिर्फ पूरी प्रक्रिया स्ट्रीमलाइन करने में, बल्कि समय, ऊर्जा और संसाधन तीनों की बचत करने में भी मदद मिलेगी। इस तरीके से दूध में वसा की मात्रा को भी कम किया जा सकता है। इससे दूध अलग-अलग आयु वर्ग के लोगों के लिए खाने के उपयुक्त हो सकता है।
इस तकनीक की मदद से दूध से अलग किए गए वसा के ग्लोब्यूल से फंक्शनल फूड के अवयव तैयार किया जा सकते हैं। इनमें शिशुओं के खाने का फार्मूला भी शामिल है। ये ग्लोब्यूल खाद्य तथा फार्मास्यूटिकल इंडस्ट्री में तरह-तरह के हाई वैल्यू प्रोडक्ट बनाने में कच्चे माल के तौर पर इस्तेमाल किये जा सकते हैं।
दूध से वसा के कण अलग करने के इस नए तरीके में दुग्ध एवं खाद्य प्रसंस्करण उद्योग में क्रांतिकारी बदलाव लाने की क्षमता है। आईआईटी रुड़की का दावा है कि इससे दूध के वसा कणों की पोषण गुणवत्ता ज्यादा प्रभावी और सस्ते तरीके से बनाए रखने में मदद मिलेगी।
शोध की लेखिका और बायोसाइंसेज एवं बायो इंजीनियरिंग विभाग की आयुषी कपूर के अनुसार, “हमने ऐसा एक चरण वाला तरीका विकसित किया है जो न सिर्फ कम दबाव में बेहतर तरीके से काम करता है बल्कि अलग किए गए वसा कणों के स्ट्रक्चर को भी संरक्षित रखता है। अभी दूध से वसा के कण निकालने की जो प्रक्रिया है उसमें 4 से 5 स्टेप होते हैं। इसमें एक तो समय अधिक लगता है, और दूसरा यह प्रक्रिया खर्चीली भी होती है। अधिक स्टेप होने के कारण वसा कणों को नुकसान पहुंचता है और उनकी पोषक क्षमता कम हो जाती है। लेकिन हमने जो तरीका विकसित किया है उसमें कच्चे दूध से ही वसा कणों को अलग किया जा सकता है। इस प्रक्रिया में प्री-प्रोसेसिंग की जरूरत नहीं पड़ती है। इससे समय, ऊर्जा और पैसे की बचत होती है।”
आयुषी का शोध पत्र मौखिक प्रस्तुति के लिए चुना गया है। उन्हें विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग के विज्ञान एवं इंजीनियरिंग शोध बोर्ड की तरफ से अंतरराष्ट्रीय ट्रैवल अवार्ड भी दिया गया है। आयुषी दिसंबर में ऑस्ट्रेलिया के पर्थ में होने वाले मेंबरेन सोसाइटी ऑस्ट्रेलेशिया के सालाना कॉन्फ्रेंस में यह प्रस्तुति रखेंगी।
दूध की माइक्रोफिल्ट्रेशन तकनीक को डेरी उद्योग में काफी लोकप्रियता मिली है। इस तकनीक के जरिए दूध से बायोएक्टिव कम्पोनेंट को अलग करने के साथ उन्हें कंसंट्रेट किया जा सकता है। बाद में उसका प्रयोग फूड फोर्टिफिकेशन में करना भी संभव है। दूध में पाए जाने वाले वसा कण ऐसा ही बायोएक्टिव कंपोनेंट हैं जो सेहत के लिए फायदेमंद होते हैं। लेकिन अभी जो कई चरण वाली प्रक्रिया अपनाई जाती है उसमें वसा कणों के स्ट्रक्चर, मेंब्रेन फास्फोलिपिड को नुकसान होता है, प्रोसेसिंग में ज्यादा समय लगता है और खर्च भी अधिक आता है।
रिसर्च टीम में आयुषी कपूर के अलावा सौरभ दत्ता, एमजेन बायो प्रोसेसिंग सेंटर केक ग्रेजुएट इंस्टीट्यूट हेनरी ई रिग्स स्कूल ऑफ़ अप्लाइड लाइफ साइंसेज, क्लियर मोंट; गौरव गुप्ता, डिपार्टमेंट ऑफ़ इंडस्ट्रियल एंड मैनेजमेंट इंजीनियरिंग, आईआईटी कानपुर; अजय विश्वकर्मा, डिपार्टमेंट ऑफ़ पॉलीमर एंड प्रोसेस इंजीनियरिंग, आईआईटी रुड़की, सहारनपुर कैंपस; अविनाश सिंह, डिपार्टमेंट ऑफ़ डेयरी टेक्नोलॉजी, सैम हिगिनबॉटम यूनिवर्सिटी ऑफ़ एग्रीकल्चर टेक्नोलॉजी एंड साइंसेज, प्रयागराज; सुजय चट्टोपाध्याय, डिपार्टमेंट ऑफ़ पॉलीमर एंड प्रोसेस इंजीनियरिंग, आईआईटी रुड़की, सहारनपुर कैंपस और किरण अंबातीपुड़ी, डिपार्टमेंट ऑफ़ बायो साइंसेज एंड बायो इंजीनियरिंग, आईआईटी रुड़की शामिल हैं।
यह शोध हाल ही सेपरेशन एंड प्यूरीफिकेशन टेक्नोलॉजी पत्रिका में प्रकाशित हुआ है। संस्थान ने इसके पेटेंट के लिए आवेदन किया है। आईआईटी के डायरेक्टर प्रोफेसर के.के. पंत ने बताया कि इस शोध के नतीजे दूध से वसा के ग्लोब्यूल अलग करने की दिशा में प्रयोग को आगे बढ़ाएंगे। यह शोध भावी अनुसंधान और औद्योगिक प्रयोग के द्वार भी खोलता है।